स्टीव के आने के ठीक एक दिन पहले मैंने अपने जीवन की प्रथम कविता लिख डाली, उसी कमरे मे बैठ कर। कुछ ऎसी ही रौशनी मेरे जीवन से हट गयी थी, फिर उसी रौशनी का मुझे कितना अधिक इंतज़ार था,उस सूर्यास्त को देख कर महसूस हुआ। मेरी तनहानियों को किसीसे बांटने की बेकरारी से चाह थी। माहौल मे आकाशनीम की भीनी, भीनी महक........मुझे गेहेन उदासियोंकी खाईमे गिरा रही थी......क्या कभी इसमेसे उभर पाऊँगी...? अनागतकी किसे ख़बर थी ...? मेरा वर्तमान तो ना दिन था, ना रात.....
उन दिनों नरेन्द्र मुम्बई मे होनेवाली उनकी प्रदर्शनी को लेकर कुछ ज़्यादाही व्यस्त थे। घंटों अपने स्टूडियो मे बिता देते थे। काफी सारे चित्र मुम्बई जा चुके थे। माजी की हालत और पूर्णिमा की वजह से मेरा वैसेही उनके साथ जान संभव नही था और अब तो स्टीव भी आ रहा था।
स्टीव के घर मे प्रवेश से लेकर उसकी विदातक एकेक पल मेरे मानस पर अंकित होकर रह गया। नरेन्द्र उसे स्टेशन पर लेने गए थे। जब लौटे तो उन लोगों के स्वागत के लिए मैं सामने आयी और स्टीव को देख चकित रह गयी । उसने पूर्णत: भरतीयपरिधान पहना हुआ था। कुरता,पाजामा और मोजडी। मेरे चहरे के चकित भावों को स्टीव ने भांप लिया और नमस्कार के लिए हाथ जोड़ते हुए कहा,"समझ गया। मुझे ये लिबास बोहोत अच्छा लगता है। वैसेभी जैसा देस वैसा भेस,इस उक्ती को मैं मानता हूँ।"
हम लोगों ने नरेंद्रके स्टूडियो मे ही चाय ली। स्टीव नरेन्द्र के चित्रों के मुआयना और प्रशंसा करता रहा। वहाँ पर दीदी का एक बड़ा-सा चित्र लगा हुआ था। उसे दिखाते हुए नरेन्द्र बोले,
"ये नीला, मीना की बड़ी बहन ,मेरी पहली पत्नी,जो अब इस दुनियामे नही है। मेरी बेटी को जन्म देते समय चल बसी," और उनका गला रुंघ-सा गया।
"ये नीला, मीना की बड़ी बहन ,मेरी पहली पत्नी,जो अब इस दुनियामे नही है। मेरी बेटी को जन्म देते समय चल बसी," और उनका गला रुंघ-सा गया।
इन सब बीच की घटनाओं से स्टीव अनभिज्ञ था,क्योंकि दोनो ओर से चला पत्रों का सिलसिला नरेन्द्र की पिता की मृत्यु के बाद रूक गया था।
क्रमशः
No comments:
Post a Comment