Sunday, March 29, 2009

आकाशनीम.१४

स्टीव जानेके चौथे दिनही लॉट आया तो मुझे बड़ा आनंद मिश्रित अचरज हुआ।

"अरे तुम?" तुम को और चार रोज़ बाद आना था ना?मैंने पूछा।

स्टीव ने कहा ,"हाँ! लेकिन एक बात एकदम सच, सच बताऊँ तो बुरा तो नही मानोगी?"

"नही तो!"

"जानती हो मीना, मुझे हर सूर्यास्त के समय तुम्हारी बेहद याद आती। मुझे लगता किसीकी उदास-सी,बड़ी बड़ी आँखें मेरा इंतज़ार कर रही होन। मैंने सोंचा, जो थोडा और समय मेरा हिंदुस्तान मे बचा है, क्यों ना तुम्हारेही साथ बिताऊ?फिर ऐसा अवसर आये ना आये?"कहकर स्टीव ने बड़ी निश्छल निगाहों से मुझे देखा। मैं अन्दर तक सिहर गयी।

सच, स्टीव एक दिन चला जाएगा। फिर वही सूनापन, वही अकेलापन, अबकी बार कुछ ज़्यादाही, क्योंकी अब मुझ से मेरा कोई अत्यंत प्रिय व्यक्ती बिछड़ जाएगा, जी से मैं अपनी मर्यादायों की वजह से कह भी नही पा रही थी कि वो मुझे कितना अधिक प्रिय है। मरे जीवनमे उसका क्या स्थान है। नियति के चक्र मे ये निर्धारित नही था।

फिर रहे सहे दिनों मे हमारी दोस्ती और भी प्रगाढ़ होती चली गयी। एकदूसरेसे कितना कुछ खुलकर बतियाने लगे। स्टीव ने मेरे और कितने सारे स्केचेस बना डाले। पिछले बरामदे में गुज़री वो जादुई शामें, वही आकाशनीम,वही ढलता सूरज। वही तारोंभारा आसमान, दूर पश्चिम मे दिखती पहाड़ियां। यही दिन मेरे भविष्य का सहारा बन ने वाले थे। मैं इन दिनों का हर पल थाम लेना चाहती थी। हर एक पल को भरपूर जीना चाहती थी, जानती थी, ये लम्हें लौटकर फिर कभी नही आएँगे

स्टीव जिस दिन लौटने वाला था, उसकी पूर्व संध्या मे हम जब बरमदेमे बैठे तो मेरी हालत अजीब-सी थी। शायद स्टीव की भी रही होगी।कहना इतना कुछ था लेकिन उचित अनुचित के द्वंद्व मे कह नही सकी। तभी स्टीव की निगाहें मुझ पे ठहरी हुई महसूस हुईं। जैसेही मैंने उसकी ओर देखा, उसने कुर्सीकी हत्थे पे रखा मेरा हाथ थमा और कहा,"मीना,जीवन मे कभी कमजोर मत पडा। तुम कमालकी बहादुर औरत हो। मैं ऐसा कुछ नही कहूँगा या करूँगा, जिस से तुम कमजोर पड़ जाओ। लेकिन याद रखना,मैं कभी भी भुला नही पाउँगा"

उस एक लम्हे को थामकर मुझे सदियोंका सफ़र करना था। वही दो पलका स्पर्श मैं आजतक नही भुला पायी। जाडोंमे मैं रामनगर छोड़कर कभी कहीं नहीं जाती थी। इन्हीं दिनों तो स्टीव आया ..........इसी आकाशनीम की गंध तले उसने मुझे वो किरण दी थी, जिसकी मुझे चाह थी, जिस से मुझे तसल्ली कर लेनी चाहिए थी, लेकिन हुई नही थी........ असीम वेदना, विछोह की वेदना, जो स्याही से कागज़ पे उतरती रही, कभी सारे किनारे लांघकर बाढ्की तरह, कभी सयंत , संयमी नववधू की तरह............

स्टीव के जाने के बाद मेहमानों वाला कमरा मैंने अपना लेखन का कमरा बनवा लिया और मेहमानों के लिए घरके पूरब मे बाना एक कमरा ठीक करवा लिया।

स्टीव ने जाने के बाद दो पत्र लिखे जो मेरे और नरेंद्र के नाम पर थे। मैंने मन ही मन कितने जवाब दे डाले लेकिन पता नही क्यों,पत्रोंमे अपनी भावनाओं का प्रदर्शन करते हुए मेरे हाथ हमेशा रूक गए। जिस रास्तेकी कोई मंज़िल ना हो उस पर चलकर फिर लौटना पड़ जाये तो कितनी थकन ,कितना दर्द होता है, ये मैं जान गयी थी। और आगे बढकर लौटनेसे क्या फायदा? अधिक दर्द सहनेकी ताक़त मुझ मे नही थी, वोभी चुपचाप, पूर्णिमा, माजी,नरेंद्र, सबके आगे मुखौटा पहन कर। माँ-बाबूजी को तो मैंने अपने निजी जीवन की थाह कभी लगनेही नही दीं थी। उन्हें मैं कोई तकलीफ पोह्चाना नही चाहती थी।

उन दो पत्रों के बाद स्टीव की ओरसे और कोई पत्र नही आया। मुझे लगा,मेरे जीवनका एक निहायत सुन्दर अध्याय किसी सपनेकी तरह ख़त्म हो गया।

एक दिन देर रात मैं अपने कमरेमे लेखन कर रही थी लेकिन स्टीव की याद इस क़दर सता रही थी कि ना जाने मैं कब वहाँसे उठकर नरेंद्र के स्टूडियो मे चली गयी और अचानक से उनकी पीठ से लिपटकर रो पडी। उन्हों ने मेरी बाँह पकड़कर स्टूडियो मे रखी कुर्सी पे बिठाया और हलके,हलके मेरा सिर थपथपाते रहे। वे काफी देर खामोश रहे। जब मेरी सिसकियाँ कुछ कम हुई तो बडे प्यारसे बोले,"स्टीव की बोहोत याद रही है मीनू?"

मुझे काटो तो ख़ून नही! मैं चौंक कर खडी होने लगी ,"नरेन्द्र!!"

क्रमशः ।

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