Wednesday, June 24, 2009

याद आती रही..५ ..

(इसके पूर्व...विनीता और विनय के दरमियान, खतों का सिलसिला चलता रहा....)

धीरे, धीरे विनय के खतों की नियमितता घटने लगी...तथा वो सब कुछ सारांश में लिखने लगा..वजह...समय की कमी...

निशा दीदी की शादी की तारीख तय हो गयी। विनीता के माता-पिता, विनय के परिवार वालों को सादर आमंत्रित करने गए...लेकिन वहाँ उनका बड़ा ही अनमना स्वागत हुआ...जब विनीता के पिता ने कहा,
"आप लोग तो हमारे भावी समाधी हैं..आपको अपने परिवार के सदस्य ही समझता हूँ...आपके आने से हमारे समारोह में चार चाँद लग जायेंगे...! अवश्य पधारियेगा...!"

उत्तर में विनय के पिता ने कहा," अभी कोई रस्म तो हुई नही...इसलिए ये भावी समाधी होने का रिश्ता आप जोड़ रहें हैं, सो ना ही जोडें तो बेहतर गोगा..हाँ...गर पड़ोसी होने के नाते आमंत्रण है,तो, देखेंगे...बन पाया तो आ जायेंगे..
वैसे, क्या आप लोग घर जमाई ला रहे हैं?"

"जी नही ! कबीर पेइंग गेस्ट की हैसियत से रह रहा था...और अब जबलपूर लौट जायेगा, जहाँ उसका परिवार है..निशा ब्याह के बाद वहीँ जायेगी...," विनीता के पिता ने ना चाहते हुए भी किंचित सख्त स्वर में कहा और नमस्कार कर के वहाँ से वो पती- पत्नी निकल आए.....

इस मुलाक़ात के पश्च्यात, वे दोनों बड़े ही विचलित हो गए..विनीता ने अपने पिता को अस्वस्थ पाया तो उससे रहा नही गया...वह बार, बार उन्हें कुरेद ने लगी और अंत में उन्हों ने सब कुछ उगल ही दिया..सुन के वो दंग रह गयी..!

वैसेभी शुरू से ही उसे यह आभास हो रहा था कि, विनय के परिवार वालों ने उसे अपनाया नही है....विनय ने उसे बार, बार विश्वास दिलाया था, लेकिन उसका मन नही माना था...इतने सालों में उन लोगों ने किसी भी तीज त्यौहार में उसे शामिल नही किया था...! हाँ ! सालों में...क्योंकि, विनय को गए अब दो साल से अधिक हो गए थे...और इस दौरान विनय एक बार भी हिन्दुस्तान नही आया था...हर बार कुछ ना कुछ बहाना बनाके वो टाल ही जाता रहा था...

निशा दीदी की शादी हो गयी...विनीता और भी अकेली पड़ गयी...ये तो राहत थी,कि, उसके पास काम था, नौकरी थी...जिसे वो खूब अच्छी तरह से निभा रही थी...
अब तो वो add फिल्में भी बनने लगी थी, जोकि, काफी सराही जा रहीँ थीं...उसे पुरस्कृत भी किया जा चुका था...

कुछ और दिन इसी तरह गुज़रे..विनय की ओरसे खतो किताबत पूरी तरह बंद हो गयी...विनीता ने किसी से सुना,कि, विनय को लन्दन में ही कहीँ बड़ी बढिया नौकरी भी मिल गयी है...फिर सुना, उसने अपना अलग से व्यवसाय शुरू कर दिया है..उसने अपनी ज़िंदगी से विनीता को क्यों हटा दिया, ये बात, विनीता कभी समझ नही पायी...

अब उसे हर कोई शादी कर लेने की सलाह देने लगा..उसने इनकार भी नही किया...राज़ी हो गयी...हालाँकि जानती थी, शादी उसकी ज़िंदगी का अन्तिम ध्येय नही है...एक ओर अगर, विनय को कोई बंदी बना के उसके सामने खडा कर देता, तो वो उसे चींख चींख के चाँटे मारती...पूछती, क्यों, क्यों इतना तड़पाया उसने, गर अंत में छोड़ ही जाना था तो...!
दूसरी ओर, गर, बाहें फैलायें, विनय ख़ुद उसके सामने खड़ा हो जाता और उससे केवल एक बार क्षमा माँग लेता तो, वो सब कुछ भुला के, उसकी बाहों में समा जाती...

लेकिन ये दोनों स्थितियाँ केवल काल्पनिक थीं...ऐसा कुछ नही होना था...! माँ-बाबूजी, निशा दीदी, अन्य मित्र गण, रिश्तेदार, जहाँ, जहाँ उसके रिश्ते की बात चलाते, या तो उसकी बढ़ती उम्र आड़े आती, या फिर एक ज़माने मे उसका और विनय का जो रिश्ता था, वो आड़े आ जाता..ये बात ना जाने कैसे, हर जगह पहुँच ही जाती...अंत में तंग आके, उसने सभी से कह दिया,इक, अब उसे ब्याह नही करना..वो अपनी नौकरी, अपने काम में खुश है...उसे अब और कोई चाहत ,कोई तमन्ना नही...

क्रमश:

Monday, June 22, 2009

याद आती रही...४

(पूर्व भाग: विनय लन्दन चला गया...वकालत की आगे की पढाई के लिए॥) अब आगे पढ़ें...

विनीता को अब उसके खतों का ही एक सहारा था...वही इंतज़ार उसके जीवन का मक़सद-सा बन गया। कभी कबार फोन आते, तो मानो, उसमे नव जीवन का संचार हो जाता...लगता, विनय उसके साथ ही तो है...आ जायेगा..लेकिन, बस चंद पल...सिर्फ़ चंद पल...उसके बाद फिर एक बिरह की गहरी वेदना उसे कचोट देती...

अपनी पढाई ख़त्म होते ही, उसने कई जगह नौकरी के लिए आवेदन पत्र दे रखे थे...उनमेसे कई आवेदन पत्र इश्तेहार एजंसीस के लिए थे। आवेदन पत्र देने के बाद वो सब भूल भाल गयी...ना उसे जवाब का इंतज़ार रहता , न अपनी किसी बात का ख़याल....

एक दिन अचानक से उसे एक एजंसी से साक्षात्कार के लिए बुलावा आया। वो अचरज में पड़ पड़ गयी...! इतनी नामवर एजंसी से बुलावा आयेगा, ये उसने कभी सोचा ही नही था...! लेकिन, बुलावा मतलब नौकरी तो नही..! अपना सारा पोर्ट फोलियो, कागज़ात आदि लेके वो साक्षात्कार के लिए चली गयी। बड़ी अनमनी-सी अवस्था में उसने साक्षात्कार दिया।

घर लौटी तो माँ ने पूछा," कैसा रहा?"
"ठीक रहा माँ,"उसने कहा।
"तुझे क्या लगता है...मिल जाएगा ये काम?",माँ ने फिर पूछा।
"माँ, नौकर मिलना इतना आसान थोड़े ही है? और भी कितने सारे लोग थे वहाँ...", विनीता ने कुछ चिढ के माँ को जवाब दिया। वैसे भी आज कल वो गुमसुम -सी रहती थी। माँ चुप हो गयी। अपनी बेटी की मनोदशा खूब समझ सकती थीं...

ऐसे ही कुछ दिन और गुज़र गए...और फिर उसी एजंसी से उसे काम के लिए बुलावा आया...! उसके हाथ जब वो ख़त लगा तो उसका अपनी आँखों पे विश्वास नही हो पाया...! उसे सच में नौकरी मिल गयी थी? वोभी इतनी नामवर एजंसी में?

उसी दिन उसकी बड़ी बहन, निशा ने एक ख़बर सुनाई... निशा दीदी और कबीर ने विवाह कर लेने का फ़ैसला कर लिया था...! कोई बाधा नही थी..कबीर ने पहले ही अपने घरवालों से बात कर ली थी...बाद में निशा को पूछा था...कबीर, वैसे भी बड़ा ही दृढ़ निश्चयी व्यक्ती था। अब उसने जबलपूर लौट जाने का इरादा भी कर लिया था। मुम्बई का अनुभव उसके लिए हमेशा अच्छा साबित रहेगा, ये उसे खूब पता था।

विनीता को याद आया, उस दिन उसकी और उसकी माँ की, आँखें कैसी भर आयीं थीं...! खुशी भी और दर्द भी... एक साथ....! विनीता को लगा था, जिस एक सहेली-सी बहन के साथ वो अपना सारा सुख-दुःख बाँट सकती थी, वो दूर हो जायेगी...माँ को लगा, अपनी बिटिया अब पराई हो जायेगी...खुश भी थी, कि , इतना अच्छा वर और घर, दोनों निशा को मिल रहा था...! कबीर बड़ा ही संजीदा और सुलझा हुआ व्यक्ती था....

इन सब घटनाओं के चलते, एक और बड़ी अच्छी घटना उस परिवार के साथ घट गयी...जिस ने जाली हस्ताक्षर करा के बाबू जी को ठग लिया था, वो व्यक्ती कानून के हत्थे लग गया...उसने काफी सारे, अन्य गुनाह भी उगल दिए... लम्बी चौड़ी कानूनी कारवाई के बाद, बाबूजी को काफी सारी रक़म वापस मिल गयी...!

विनीता ये सारा ब्योरा बाकायदा से विनय को बताती रहती। साथ ही लिखती,

"विनय,तुम्हें बता नही सकती, कि, कितना याद आते हो तुम...हर पल, हर जगह, तुम्हें ही देखती हूँ...जहाँ देखती हूँ, तुम्हें तलाशती हूँ...
बचपन से तुम्हें देखा, लेकिन बाद में कौनसी जादू की छडी घुमा दी, कि, पल भर भी तुम्हें भुला नही पाती...!
ज़िंदगी का हरेक लम्हाँ तुम्हारे नाम लिख चुकी हूँ...जाने कब अपने दिल का दरवाज़ा खोल दिया, और बिना आहट किए, तुम चले आए...!शरीर यहाँ रहता है , मन तुम्हारे पास....!
हर कोई मुझे छेड़ता है...कि मै खोयी-खोयी रहती हूँ...
विनय, तुम्हारी छुट्टियों का बेक़रारी से इंतज़ार है...कब आओगे ? बताओ ना ...! हर बार ताल जाते हो...!क्यों ? आँखें तुम्हें देखने के लिए तरस गयीं हैं....तुम्हारी एक मुस्कान देखने के लिए कितनी तरस गयीं हैं, कैसे बताऊँ?"
सिर्फ़ तुम्हारी
विनीता। "

विनय के भी लंबे चौडे ख़त आते....वो भी लिखा करता,
"मेरी विनीता,
इस अनजान मुल्क में आके हम दोनों ने एक साथ गुजारे दिन बेहद याद आते हैं....कोई भी सुंदर जगह देखता हूँ, तो
सोचता हूँ, तुम साथ होती तो कितना अच्छा होता...हम दोनों घंटों बातें करते, या मीलों घूमने निकल पड़ते...और ख़ामोश रहके भी कितना कुछ बोल जाते.....!
मेरे ज़हन में कई बार लाल या काली साडी ओढे, तुम चली आती हो.....कभी तुम्हें थामने की कोशिश करता हूँ, तो दौड़ के दूर चली जाती हो...!
कई, कई, रूपों में तुम्हें देखता हूँ...हमेशा तुम पे गर्व महसूस करता हूँ....तुम सब से अलग, सबसे जुदा हो....अभिमानी हो...ऐसी ही रहना...!
सदा तुम्हारा
विनय। "

क्रमश:

Wednesday, June 17, 2009

याद आती रही...३

(पूर्व भाग :विनीता अपनी यादों में खोयी हुई थी...)

विनय कई बार उसे खोयी-खोयी-सी पाता....उसे हँसाने की नयी, नयी तरकीबें सोचता रेहता। एक ओर विनीता पढाई के साथ साथ इधर उधर काम तलाशती रहती। उसकी चित्रकला बचपन से ही अच्छी थी। उसने विभिन्न पत्रिकाओं में अर्जियाँ भेज रखी थीं.....धीरे, धीरे उसे कथा/आलेख आदि सम्बंधित रेखा चित्र बनानेका काम मिलने लगा।

इसी दरमियान उन्हें एक पेइंग गेस्ट भी मिल गया। उसका परिवार चाह रहा था,कि, कोई लडकी मिले, लेकिन अंतमे कबीर नामक,एक वनस्पति शास्त्र का अध्यापक मिला। लड़के का परिवार जबलपूर में स्थित था। वो शादीशुदा नही था। उसकी तक़रीबन सारी पढाई मुम्बई में ही हुई थी।

एक दिन विनीता को विनय उसके कॉलेज से घर ले जा रहा था। अचानक किसी साडी के बड़े-से शो रूम के सामने उसने गाडी पार्क कर दी। विनीता ने हैरत से पूछा," यहाँ क्यों रोक ली कार? कुछ काम है क्या?"
" हाँ, है...! चलो मेरे साथ....,"उसने विनीता से आग्रह किया।
विनीता उतरी और उसके पीछे उस दुकान में चली गयी। विनय ने शो केस में लटकी हुई, दो, बड़ी ही कीमती साडियाँ, सेल्समन को कह उतरवा लीं...एक लाल, दूसरी काली। वहीँ खड़े,खड़े, सभी के सामने , उसने लाल साडी को खोला.....विनीता के सर परसे उसे डालते हुए बोल पडा,"ये साडी जब तुम पहनोगी, तो, तुम पे कितनी जंचेगी.......!"
तुंरत ही काली साडी उठाके बोला," तय नही कर पा रहा,कि, ये अधिक सुंदर लगेगी या लाल!"

विनीता को पूरी दूकान घूर रही थी...!और वो लाज के मारे चूर, चूर हुई जा रही थी...!उसने सेल्समन से कहा,"हम दोबारा आएँगे...", और दौड़ ते हुए दुकान के बाहर निकल पडी...विनय भी उसके पीछे दौडा। विनीता शर्म के मारे विनय से आँख मिला नही पा रही थी...

जब दोनों कार में बैठे,तो विनय उससे बोला," विनीता, मेरी तरफ़ देखो तो सही! कितनी सुंदर लग रही हो ! जब मेरी दुल्हन बनोगी तो कैसी लगोगी....! मै भी कितना बेवक़ूफ़ हूँ...! तुमसे ना तो कहा, कि, तुमसे प्यार करता हूँ, न तो पूछा, कि, मुझसे शादी करोगी? अगर अभी पूछूँ तो?"

"हाँ, विनय," कहते हुए विनीता ने दोनों हाथों से अपना चेहरा छुपा लिया...इस वक़्त उसके ज़ेहेन से सारे चित्र, सारे रेखांकन हट गए...एक सुनहरा भविष्य सामने आ खडा हुआ....जहाँ वो थी, विनय था, और उनकी छोटी-सी दुनियाँ...!ये कब हुआ,उसे पताभी न चला...!

फिर दोनों ने अपने अपने घर वालों को अपना इरादा बताया। किसी को वैसे कोई आपत्ती नही थी। कुछ ही महीनों में दोनों की पढाई पूरी हो गयी।
विनय के पिता ने, विनीता के पिता को अलग से बुला के कहा," अभी विनय की उम्र शादी के लिहाज़ से कम है....मै चाहता हूँ, कि, ये लन्दन जाके बारिस्टर बने। वैसे चाहता तो विनय भी यही है...और केवल एल.एल.बी.में रखाही क्या है?मेरी भी तो वहीँ पे पढाई हुई थी...."

जब विनीता के कानों तक ये बात पोहोंची, तो वो बेहद उदास हो गयी...साथ ही में उसे गुस्सा भी आया...यही बात विनय भी तो उसे बता सकता था ! विनय के पिता को, उसके पिता से कहने वाली कौनसी बात थी ...?

जब वो दोनों मिले,तो विनीता ने अपने मनकी बात साफ़-साफ़ विनय से कह दी....विनय बोला," हाँ! तुम ठीक कहती हो...इससे पहले,कि, मै ठीक से निर्णय ले पाऊँ, मेरे पापा ने ने तुम्हारे पापा से बात कर ली..."

"विनय, क्या आगे की पढाई के लिए लन्दन ही जाना ज़रूरी है? तुम हिन्दुस्तान में रह के भी तो आगे की पढाई कर सकते हो....! अन्य लोग भी तो करते ही हैं...!"विनीता रुआं-सी होके बोली...

विनय ने उसका हाथ थामते हुए कहा," विनी, समय पँख लगा के उड़ जायेगा...! जो मायने वहाँ की डिग्री रखती है, वो यहाँ की नहीँ...!हमारा प्यार पत्थर की लकीर है...मेरे परिवार ने तुम्हें अपनी अपनी बहू मान ही लिया है ! ऐसी सुंदर बहू से किसे इनकार हो सकता है?" विनय ने थोड़ी-सी शरारत करते हुए, विनीता के होटों पे मुस्कान लाने का असफल प्रयास किया ।

विनय को लन्दन में दाखिला मिल गया। उसकी जाने की तैय्यारियाँ शुरू हो गयीं....इधर विनीता का दिल डूबता रहा...और फिर वो दिन भी आ गया जब, विनय के प्लेन ने उड़ान भर ली...
विनय का पूरा परिवार हवाई अड्डे पे जानेवाला था...इसलिए विनीता नही गयी, लेकिन उसे किसी ने इसरार भी तो नही किया...उसके संवेदनशील मन को ये बात बेहद खटकी...विनय ने तो कहा था, उसके परिवार ने विनीता को अपनी बहू के रूप में स्वीकार कर लिया है, फिर भी उसे साथ चलने के लिए किसे ने नही कहा? विनय तक ने आग्रह नही किया?

विनय जिस दिन जानेवाला था, उसकी पूर्व संध्या को दोनों समंदर के किनारे घूमने गए। विनय ने खतों द्वारा, फोन द्वारा सतत संपर्क बनाये रखने का वादा किया, पर विनीता की आँखें बार, बार भर आतीं रहीँ ...उसे ना जाने क्यों महसूस होता रहा,कि, विनय ने उसे अव्वल तो सब्ज़ बाग़ दिखाए और फिर किसी रेगिस्तान में ,अकेले ही अपनी राह ख़ुद खोज ने के लिए छोड़ चला....
क्या प्यार में औरत अधिक भावुक होती है? उसके लिए विनय अब सब कुछ हो गया था, लेकिन विनय के लिए वो सब कुछ नही थी...!

दुकान में ले जाके , उसपे साडी डाल ने वाले विनय का रूप कितना अधिक मोहक था...वहाँ भी उससे बिना बताये उसने कुछ किया था...और यहाँ भी....लेकिन ये रूप कितना दुःख दाई था...! काश ! इस वक़्त विनय ने उसे विश्वास में लेके मानसिक रूप से तैयार किया होता ! इस अचानक बिरह को विनीता का मन स्वीकार ही नही कर पा रहा था....वो बेहद व्याकुल हो उठी थी....उसे लग रहा था, मानो, विनय उसकी मन: स्थिती समझ ही ना रहा हो....! खैर !
विनय चला गया....

क्रमश:

Tuesday, June 2, 2009

याद आती रही....२

( पूर्व भाग, जहाँ, क्रम छोडा था:" विनय और विनीता का परिवार पड़ोसी हुआ करते थे...")

दोनों बचपनमे एक ही स्कूल में पढा करते...लेकिन कथा, कहानियों या, फिल्मों की तरह, इन दोनों का प्यार बचपन में नही पनपा...दोस्ती थी, जैसे किसी भी अन्य वर्ग मित्र या दोस्त से होती है...उसके अलावा कुछ नही...कभी कबार स्कूल इकट्ठे चले जाते, पर साथ में कोई घरका बड़ा चलता...और फिर महाविद्यालय के दिन आए तो, अलगाव होही गया.....विनीता ने फाइन आर्ट्स में प्रवेश लिया और विनय ने बारहवी कक्षा के बाद law कॉलेज में दाखिला ले लिया। उसके पिता ख़ुद एक नामी वकील थे....ये बात तो शायद सभी जानते थे, कि, उन्हें पैसों के आगे और कुछ नज़र नही आता। नैतिकता का गर कोई माप दंड हो तो, उसपे वे कभी खरे उतर नही सकते...!

खैर ! महाविद्यालय बदल जानेके बाद इन दोनों की मुलाकातें बंद ही हो गयीं....दोनों परिवारों के बीच वैसेभी कभी ख़ास मेल मिलाप नही था...

और फिर विनीता को अनायास याद आ गयी वो एक बरसाती संध्या...मुंबई की धुआँ धार बरसात में ,वो किसी तरह, एक छाता सँभाले, सिमटी-सी फुट पाथ परसे चल रही थी... तेज़ हवाओं ने अव्वल तो उसका छाता उलटा कर दिया और फिर उड़ा ही दिया..!वो वहीँ ठिठक, उस उड़ते छाते को देखती जा रही थी...तभी पीछे से एक गाडी, हार्न बजाते हुए, फुट पाथ के क़रीब आके रुकी....मुड के जो देखा, उसमे विनय था..!

खिड़की ज़रा-सी नीचे कर, विनय ने विनीता को कार में बैठ ने का इशारा किया....विनीता कारके पास आयी तो बोला," आओ, बैठो...घरही लौट रही हो ना? मै छोड़ देता हूँ...मैभी घरही जा रहा हूँ....",कहते हुए उसने विनीता के लिए साथ वाली सीट का दरवाजा खोल दिया.....
पल भर विनीता सकुचाई...वो पानी से तर थी...कार की क़ीमती सीट देख, उसे अन्दर बैठ जानेमे हिच किचाहट-सी हुई...विनय ने भाँप लिया..बोला," उफ्फो ! बैठो तो...! किस औपचारिकता मे पडी हो...? चलो, चलो, भीगती खड़ी हो...कार की सीट सूख जायेगी, लेकिन तुम और भीगी तो बीमार ज़रूर पडोगी...! अरे बैठो भी...!"

विनीता सिमटी सिमटी-सी कार में बैठ गयी...विनय ने गाडी को आगे बढाते हुए कहा," कैसी पागल हो? टैक्सी क्यों नही कर ली? ऐसी बरसात में पैदल चलनेका क्या मतलब हुआ?", पूरा हक़ जताते हुए, विनय उसके साथ बतियाने लगा....मानो बीच के, तक़रीबन २ से अधिक गुज़रें सालों का फ़ासला पलमे ख़त्म हो गया हो...!जिन दो सालों में वो दोनों एक बार भी नही मिले थे.....!

न जाने क्यों, विनीता को उसका इस तरह से हक़ जताना अच्छा लगा...कुछ खामोशी के बाद वो बोली," विनय...हम काफ़ी अरसेके बाद मिल रहें हैं....तुम्हें मेरे घरके हालात का शायद कुछ भी अंदाज़ा नही...मेरे पिताजी के जाली हस्ताक्षर बना के, उन्हें लाखों का नुकसान पोंह्चाया गया ...उनके बिज़नेस पार्टनर ने भी उसी समय उनका साथ छोड़ दिया...पता नही, मेरी और निशा दीदी की पढाई का खर्च कैसे चल रहा है...माँ से तो पूछते हुए भी डर लगता है...माँ ने कहीँ अलग से कुछ बचत कर रखी हो तभी ये मुमकिन हो सकता है..."

बात करते, करते विनीता रुक गयी...उसे ये सब बताते हुए, फिर एकबार, बड़ा संकोच महसूस हुआ...अजीब-सी कश्म कश...के घरके हालात किसी अन्य को बताना ठीक है या नही....? उनकी चर्चा करना अपने माता-पिता की कहीँ तौहीन तो नही? वो दोनों ही बेहद खुद्दार हैं...

" कितनी हैरानी की बात है.....हम लोग इतने क़रीब रहते हैं, लेकिन कुछ ख़बर नही....ना ही तुमने कभी बताने की कोशिश की....कैसे बचपन के दोस्त निकले हम? कैसे पड़ोसी?" विनय के सूर मे एक उद्वेग छलक रहा था...

"विनय, ऐसी कोई बात नही...बारह वी कक्षा के बाद अपना मेलजोल तो ख़त्म ही हो गया था...कभी सड़क चलते भी मुलाक़ात नही हुई...आज अचानक, किसी दुमतारे की तरह उभरकर तुम सामने आ गए....पूछा तो बता रही हूँ...वरना अलगसे सिर्फ़ यही दुखडा रोने मै क्या मिलती तुमसे? अव्वल तो ये बात कभी मेरे दिमाग मे भी नही आयी....और चाहे कितना भी कड़वा सच हो, इन हालातों से हमें ही झूजना होगा....
"फिलहाल, जो हमारा तीसरा बेडरूम है, उसे हम पेइंग गेस्ट की हैसियत से देने की सोच रहे हैं..चंद परिचितों को कहके रखा है....गर कोई किरायेदार मिल जाता है तो कुछ सहारा तो होही जायेगा...", विनीता रुक रुक के विनय को बताये जा रही थी...

इन बातों के चलते, चलते उनकी सोसायटी भी आ गयी...कार के रुकते ही विनीता दौड़ के अन्दर भाग पडी...लेकिन उस रोज़ के बाद उन दोनों की मुलाकातें बढ़ने लगीं....और अब उन मुलाकातों मे बचपना नही था....ज़रा-सा कुछ और था...जो दोनों भी समझ रहे थे....विनीता को उसके अपने हालातों ने बेहद परिपक्व बना दिया था...वैसेभी संजीदगी तो उन दोनों बहनों मे हमेशासे थी....अपनी पढाई ख़त्म होतेही वो किसी न किसी काम पे लग जाना चाह रही थी....

क्रमश:

Monday, June 1, 2009

याद आती रही...१ .

विनीता को दफ्तर से लौटते समय न जाने कितने बरसों बाद विनय मिला। वो बस स्टैंड पे खड़ी थी.....हलकी-सी बूँदा बाँदी हो रही थी....इतनेमे एक लाल रंग की, लम्बी-सी गाडी बस स्टैंड के कुछ आगे निकल अचानक से रुक गयी...विनीता ने शुरूमे तो ख़ास ध्यान नही दिया, लेकिन जब वो उसके सामने आ खडा हुआ तो वो चौंक-सी गयी...!

"अरे ! विनय! तुम ! मुम्बई में !"विनीता अचंभे से बोली।

" हाँ ! पिछले पाँच सालों से यहीँ हूँ...लंदनसे लौट कर पेहेले तो देहली गया...कुछ अरसा वहीँ गुज़ारा...फिर मुम्बई आया...हिन्दुस्तान आए दस साल हो गए..! चलो, यहाँ खड़े , खड़े बात करनेसे तो कहीँ चलते हैं...किसी रेस्तराँ में , या घर में कोई इंतज़ार कर रहा होगा?"विनय ने पूछा।

" नही...घरमे कोई नही है.....लेकिन साधे सात बज रहे हैं....मै एक अपार्टमेन्ट में रहती हूँ...देरसे पोहोंच ने की आदत नही रही है,"विनीता ने कुछ हिचकिचाते हुए कहा।

"आधे घंटे के लिए चलो....कॉफी लेते हैं, साथ, साथ..कल छुट्टी का दिन है..अगर कल हम एक लम्बी शाम बिताएँ, तो तुम्हें कोई ऐतराज़ तो नही होगा? बोहोत कुछ कहना है...बोहोत कुछ सुनना है.... इन दस सालों में मेरे साथ क्या हुआ, क्या गुज़री, तुमने क्या किया, तुम्हारी ज़िंदगी कैसे कटी....सभी कुछ तो जानना है...", विनय ने बात करते हुए, अपनी कार की और इशारा किया।

दोनों करीब के ही एक कॉफी हॉउस पोहोंच , कॉफी पीते बतियाते रहे...विनीता का ब्याह नही हुआ था। विनय ने वहीँ बैठे, बैठे ख़ूब माफ़ी माँगी.....इन सभी हालात का वही ज़िम्मेदार था, उसने क़ुबूल किया। न जाने पैसा कमाने की कैसी धुन सवार हो गयी थी उस पर तब...लेकिन उसे, उसकी विनीता समझेगी, ऐसा हमेशा लगता रहा...अब भी उसने अपनी निजी ज़िंदगी के बारेमे कुछ नही बताया...

"अपने परिवार के बारे में कुछ बताओ न!" विनीता उससे पूछना चाह रही थी...उसने ब्याह किया या नही...उसके मनमे बार, बार यही सवाल उठ रहा था...वो कल उससे मिलना चाह रहा है,तो क्या ये बात जायज़ है? पर चाह के भी वो कुछ पूछ नही पायी...

कुछ देर बाद विनय ने उसे, उसकी बिल्डिंग के बाहर छोड़ दिया। अरसा हो गया था, उसे अपने घर की सफाई किए हुए...या घर को सजाये हुए...खुदपे भी तो कहाँ उसने कुछ ध्यान दिया था?

घर में घुसते ही उसने उसकी सफाई शुरू कर दी। सुबह, सुबह, पीले गुलाबों का ऑर्डर देने की सोच ली....रातमे ही बैठक के सारे परदे धोके सुखा दिए....लपेट के रखा क़ालीन बिछा दिया...अपने कमरे की और भी मोर्चा घुमाया.....
गर वो यहाँ भी विनय आया तो....एक अजीब-सी संवेदना उसके मनमे दौड़ गयी...क्या ऐसा होगा....? वो मनही मन ज़रा-सी लजाई...ऐसे लजाना तो वो भूलही गयी थी...!क्या विनय उसे छुएगा.....?

कमरा सजा-सँवारा तो लगनाही चाहिए...आए या ना आए...! कौनसे फूल? सुगन्धित? और रंग? सफ़ेद और लाल दोनों रंगों के...गुलाबों के साथ रजनीगन्धा....नाज़ुक सफ़ेद परदों के साथ...लाल और सफ़ेद बुनत की चद्दर...! कितने दिन हो गए, वो चद्दर बिछाए...और वो परदे लगाये हुए! इनके बारेमे तो वो भूलही गयी थी!

जब देर रात वो लेटी, तो नींद कोसों दूर थी...क्या, क्या याद आ रहा था....विनय और उसका परिवार पड़ोसी हुआ करते थे.....

क्रमश: