Sunday, March 29, 2009

आकाशनीम.१३


स्टीव को देख के माजी मुस्कुराई और बडे स्नेह्से बैठनेके लिए संकेत किया... फिर मेरी ओर मुखातिब होकर बोली,"बेटी! इसका अच्छी तरह ध्यान रखना..... जहाँ घूमना,फिरना चाहे घुमा देना... इसके पिता की और नरेंद्र की पिता की घनिष्ट मित्रता थी, "माजी अन्ग्रेज़ीमे बोल रही थी ताकी स्टीव समझ पाए।


हम तीनोही आपस मे बतियाते रहे। जब मैंने देखा मजी थक रही है तो हम दोनो उठ खडे हुए। माजी ने मेरा हाथ अपने हाथ मे लिया और अपने गाल्पे दबाया, तभी उनकी आँखों से दो आँसू लुढ़क गए। मैं कह नही सकती,उस स्नेहमयी,विशाल र्हिदयी औरतने अपनी अनुभवी आखोंसे क्या जाना ,क्या पहचाना! क्या वो मेरी दोलायमान मनास्थिती को इतनी तेज़ीसे भाँप गयी ?क्या कोई मोह मेरी बाँह खींच रहा है और कर्तव्य मेरा पैर रोक रहा है, वे समझ गयीं ?मैं उस समय जान नही पायी।


रातके दस बज रहे थे। हम ने नरेंद्र के स्टूडियो मे झाँका तो वे मग्नतासे अपना कुंचाला चला रहे थे। मैंने धीरे से दरवाज़ा बंद कर दिया.....स्टीव और मै,टहलते हुए पिछ्लेवाले बरामदे की ओर चल दिए।
आकाशनीम की गंध सारे वातावरण को मदहोश बनाए हुई थी। हम कुर्सियोंपे बैठके ना जाने कितनी देर बतियाते रहे। स्टीव अपने बारेमे बताता रहा। बात पे बात छिडी तो मैंने पूछा,"स्टीव,तुमने अभी तक विवाह क्यों नही किया, ये सवाल अगर मैं पूछूँ तो क्या बोहोत निजी होगा?"


"नही,मीना, बिलकुल नही होगा। किसी ना किसी कारण वश , किसीभी संबध की परिणति विवाहमे नही हुई और मुझे इसका कभी अफ़सोस नही हुआ। मेरा दिल आजतक नही टूटा। मैभी अपनी कलाके चक्करमे विश्व भरमे घूमता रहता हूँ.... एक जगह टिका नही और फिर ना जाने क्यों मुझे विवाह की ज़रूरत महसूस हुई नही। मेरे विचारसे कुछ घटनाओं का निशित समय तय होता है, उस समय पे वो घटना घट्ही जाती है ,चाहे अच्छी हो या बुरी। हालात ऐसे बनते चले जाते हैं, घटनाक्रम इसतरह चलता है जो हमे उस एक विशिष्ट घटनासे जोड़ देता है। तुम्हारा क्या विचार है?"उसने मुझसे पूछा।


मेरे दिमाग मे उसकी बातें घूम रही थीं। सच ही तो था! वाकई घटनाओं के इस क्रमने तो मुझे इस मोड्पे लाके खड़ा कर दिया था जहाँ स्टीव से मेरा परिचय हुआ था। इस परिचय के पीछे, हमारी बढती घनिष्टताके पीछे प्रक्रुतीका क्या रहस्य होगा?

मैं कुछ देर रूक कर बोली,"हाँ स्टीव,तुम ठीक कहते हो। पता नही कौनसा रास्ता किस मंज़िलकी ओर ले जाये? कौनसी राह ना जाने किस मोड्पर किसी दूसरी राह्से मिलके ,दोनो राहें एकही बन जाएँ? हम तरफ से कितनाही सोंच विचार करके रास्तेका चयन क्यों ना करें,वो राह किन,मोडोसे गुजरेगी, किन,किन दोराहोपे हमे खड़ा करेगी, कौन जान पाया है??" ये कहकर मैंने स्टीव की ओर देखा तो वो बडीही एकाग्रतासे मुझे निहार रहा था।

"क्या देख रहे हो?",मैंने थोडी सकुचाहट से पूछा।

"तुम्हें देख रहा हूँ मीना, तुम कितनी अलग हो उन सबसे जो...",ये कहते,कहते वो रूक गया। फिर बोला,"भावावेशमे मैं कुछ गलत बात कह दूँ तो मुझे माफ़ कर देना।"

ऎसी कई अंतरंग शामे हमने इकट्ठी बिताई। जगह,जगह घूमने गए। बोहोत बार पूर्णिमा भी साथ चलती। इसी दरमियान नरेंद्र की चित्र प्रदर्शनी भी हो गयी। स्टीव उनके साथ मुम्बई भी हो आया। प्रसार माध्यमों ने नरेंद्र को बेहद सराहा।
प्रदर्शनी के बाद नरेंद्र दोबारा उतनीही लगन से अपनी चित्रकला मे फिरसे जुट गए। हम दोनोकी दिनचर्या साथ,साथ चलते हुएभी बिलकूल अलग थलग हो चुकी थी। कभी,कभी अपराधबोध के मारे वे पूर्णिमाके लिए ज़रूर थोड़ासा समय निकल लेते, लेकिन कलाके प्रती वे पूर्णतया समर्पित हो चुके थे। हाँ, कुछ समय अस्पताल के संचालन के लिए भी जाते, वो भी थोडा,थोडा मैं देखने लगी थी।

स्टीव इसी बीछ हफ्ते भर के लिए राजस्थान चला गया जब वो गया तो मैंने जाना कि, उसके बिना जीवन अब मेरे लिए किस कदर सूना होगा,और तभीसे मेरा लेखन आरम्भ हो गया रोज़ाना कुछ समय मैं लेखन के लिए निकाल लेती , बल्कि वो लेखन अब मेरे जीवन का अवश्यक अंग बनने लगा उस सारे लेखन को प्रकाशित करनेका निर्णय तो बाद में लिया गया......उस वक्त तो, मेरी डायरी, मेरी अभिन्न सहेली बन गयी....
क्रमशः ।

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