रातमे खानेके बाद मैंने पूर्णिमा को लम्बी सी कहानी सुना के सुलाया। नरेन्द्र स्टूडियो मे चले गए। मैं और स्टीव बगीचे मे आकाशनीम के तले कुर्सियाँ डालकर बैठ गए। कुछ देर की छुप्पी के बाद स्टीव ने कहा,"मीना, तुम वाकई पूर्णिमा की माँ बन गयी हो। ऐसा त्याग हमारी पश्चिम की संस्कृती मे देखने को नही मिलता। "
"स्टीव हमारे देश मे ऐसा कई बार होता है। पहली पत्नी के मृत्यु के बाद अगर अगर उसकी कोई औलाद हो और पत्नी की ग़ैर शादीशुदा बेहेन हो, तो औलाद के खातिर उसकी बेहेन से शादी कर दी जाती है। कई विवाह सफल भी होते होंगे, कई मुखौटे भी...... वैसे सफल विवाह का कोई भरोसा तो नही....... दो स्वतंत्र जीवोंका कब आपस मे टकराव हो जाय, क्या कहा जा सकता है!!
हिंदुस्तान मे ऐसे टकराओं को घरकी देहलीज़ के भीतर ही रखा जाता है। वैसे नरेन्द्र और मुझमे कोई टकराव, कोई अनबन नही, लेकिन...."
मैं इसी लेकिन पे आके खामोश हो जाती।
"तुम नरेंद्र की माँ कीभी बोहोत सेवा करती हो.... इसतरह एक बहू, बूढ़ी, बीमार सास की सेवा करे , हमारी तरफ देखनेको कमही मिलता है। हर कोई अपनी,अपनी ज़िंदगी मे व्यस्त रेहता है। दूसरों के लिए कुछ करने की फुर्सत नही होती,"स्टीव ने कहा।
"स्टीव,वहाँ समाज का ढाँचा ऐसा बन गया है...... हर किसीको कमाने के लिया बाहर निकलना पड़ता है। देखो,मुझपे ऎसी कोई बंदिश नही और मेरी सासभी निहायत अच्छी औरत है। बेमिसाल अच्छी स्त्री!! उन्होने कभी भी दीदी की या मेरी ज़िंदगी मे दखल अंदाज़ी नही की। चलो, माजी जाग रही होंगी, कुछ देर हम उनके पास बैठ जाते हैं!"
कहके मैं खडी हो गयी और हमलोग माजी के कमरे मे गए।
krama
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