Wednesday, April 8, 2009

नैहर

नैहर (कहानी)
पिछले एक महीने से अलग,अलग नलियो मे जकड़ी पडी तथा कोमा मे गयी अपनी माँ को वो देख रही थी । कभी उस के सर पे हाथ फेरती , कभी उसका हाथ पकड़ती। हर बार उसे पुकारती,"माँ!देखो ना!मैं आ गयी हूँ!"
उसके मन मे आशा एक नन्हा-सा दिया टिमटिमाता रहता। शायद आख़री सांस लेनेसे पहेले किसी तरह उसकी माको पता चले कि उसकी लाडली बेटी मृत्युशया के पास थी। मन ही मन वल हज़ारों बार इश्वर से बिनती करती रहती,हे भगवान्!सिर्फ एक बार इसकी आँखें खुलवा दो,मुझे देख लेने दो,मेरे नजदीक होने का एहसास दिलवा दो।
लेकिन ऐसा हुआ नही। एक बार पूरी रात उसकी आंख नही लगी,पर तड़के झपकी लग गयी। जब डाक्टर माँ को देखने कमरे मे आये तो वो hadbada के जग पडी। डाक्टर ने हमेशा की तरह उस की माँ को तपासने की शुरुआत की और तुरंत उस की ओर मुड़ के बोले,"I ऍम सॉरी शी इस नो मोर"।

डाक्टर उसके परिवार के पुराने परिचित थे। उनका अक्सर उसके पीहर मे आना जाना हुआ करता था। उन्हों ने धीरे से उसके कन्धों पे थपथपाया। नर्स ने माँ को लगी हुई नलिया निकालने की शुरुआत कर दीं। उसकी आंखों से आँसू ओंकी धारा बहने लगी थी। उसके पास होने का कोई भी एहसास उसकी माँ को नही हुआ था। उसने आने मे बोहोत देर कर दीं थी। "माँ!तुमने मुझे कितनी बड़ी सज़ा दीं",उसका मन दर्द से कराह उठा।
उसके बाद धीरे,धीरे जोभी विधियां होनी थी होती रही। लोगों को फोन किये गए। उनके फार्म हौस पे लोग इक्ट्ठे हो गए। उसका भाई रीती रिवाज निभाता रहा। वो गुमसुम-सी देखती रही।

जब घर पे काम करने वाली औरतों ने ज़ोर से रोना धोना शुरू किया तब वो बेसाख्ता उन पे चींख उठी ,"खामोश!रोना है तो बाहर निकल जाओ!"
इन सब औरतों के साथ उसके पिता के कभी ना कभी अनैतिक संबंध रह चुके थे। उसे बेहद घुस्सा आया। उन औरतों के जिस्म पे सोना था,उन के पक्के घर बन चुके थे। माँ को उसके पिता ने कभी सोने की चेन तक नही दीं थी। माँ ने खुद ये सब झेल कर भी कभी किसी को बताया नही था। उसीने एकबार अपनी आंखों से देख लिया था। अपने आपे से बाहर हो गयी थी वो तब। इतनी सुन्दर, शालीन,गुणवती पत्नी होने के बावजूद उसके पिता ने ऐसा क्यों किया?अपने पितापे आये क्रोध के कारण उसने अपने पीहर जाना काफी कम कर दिया था।
वो काफी प्रतिथ यश वकील थी। माँ पर होने वाले अन्याय होने वाले एहसास होने के बाद उसने उस किस्म की परिस्थितयों से गुजरने वाली महिलाओं से फ़ीस लेनी बंद कर दीं थी। लेकिन माँ उसे बार, बार बुलाती रहती । उसे कहती, ''मेरी खातिर आओ। हमेशा दो दिन रहके लॉट जाती हो। तुम से कितनी सारी बांतें करने का मन होता है। कभी तो समय निकाल कर आठ-दस रोज़ आओ। मैंने तो कोई गुनाह नही किया। देखो, मैंने सब कुछ हँसते ,हँसते सह लिया। शायद यही मेरी किस्मत थी। मेरे पास और कोई रास्ता नही था। बच्चों को लेके मैं कहॉ जाती?मेरा तो कोई पीहर नही था!!तेरा है। कयी बार मन करता है,तेरा सर अपनी गोद मे रख कर सहलाती रहूँ। "
माँ की बिनती हमेशा चालू रहती। कभी,कभी वो अपनी बेटी को भेज देती। नानी-नवासी की ख़ूब पटती। मानो दोनो बड़ी गहरी सहेलियां हो!उसकी बेटी शादी के बाद जब ऑस्ट्रेलिया चली गयी तब माँ कितना रोई थी!!
माँ की एक फुफेरी बहन Hyderabad मे रहती थी। दोनोका आपस मे बड़ा लगाव था। कभी कभार माँ उसे और उसके छोटे भाई को लेके हैदेराबाद जाती। मौसी उनके ख़ूब लाड करतीं। मौसी के पांच बच्चे थे। उसकी माली हालत भी कुछ खास अच्छी नही थी। माँ भी बिना आरक्षण थर्ड क्लास मेही सफ़र किया करती। लॉट ते समय मौसी सभी को कपडे खरीद देंती । लेकिन माँ ने मौसी को कभी कुछ दिया हो,उसे याद नही। उसके पिता उसकी माँ को कभी अपनी मर्जी से खर्च करने के लिए कुछ पैसे देतेही नही थे।

इतने मे भाई ने हलके से उसके कन्धों पे हाथ रखा। "वासांसि जीर्नानि यथा विहाय,नवानि गृन्हाती नारोपरानी। तथा शरीरानी विहाय, जीर्न्यानी अन्यानी संयाति नवानि देही। "यह सब मंत्रोच्चार हो चुके थे। और भी जो कुछ होना था हो चुका था। माँ की अन्तिम यात्रा शुरू होने वाली थी। उसे उठाया गया। बाहर लाया गया। घर गेट से दूर था। वो गेट तक गयी और देर तक देखती रही। उसकी जननी कभी ना लौटने के लिए जा रही थी......

कुछ देर बाद bhai लौटा.....कितना समय लगा उसे पता नही चला। स्नानादि हो गए। कुछ लोग रुके, कुछ लोग चले गए । अचानक उसके ख़्याल मे आया,माँ की चिता की साथ,साथ उसका नैहर भी जल गया था। अब वो किसीकी गोद मे अपना सर नही रख पायेगी......

दस बारह दिनों बाद वो वापस लॉट गयी। उसकी बेटी ऐसे समय मे ऑस्ट्रेलिया से आयेगी ऎसी उसे भोली-सी उम्मीद थी। लेकिन वो नही आ पायी। "सिर्फ हफ्ता भर आओ,"कहके उसने बड़ा आग्रह किया,लेकिन वो नही आयी। अब उसे महसूस हुआ कि,जब उसे उसकी माँ बुलाती रहती और वो नही जाती तो उसकी माँ पे क्या गुज़रती होगी।

दिन बीतते गए। उसका भाई उसे कभी कभार बुलाता लेकिन माँ बिना सूने घर मे जाने से वो कतराती तथा एक अपराध बोध भी सताता। फिर एक दिन उसके भाई का फ़ोन आया। उसने वो पुश्तैनी घर तथा आसपास की ज़मीन बेचने का फैसला किया था।
उसने कहा,"माँ एक बैग आपके लिए रखा था, वो मेरी नज़रों से परे हो गया और मैं आप को बताना ही भूल गया। अबके आप ज़रूर आईये और अपने घर को आखरी बार देख भी जाईये ',कहते हुए भाई का गला भी भर आया। अब उसने जाने का निश्चय कर ही लिया और वो गयी भी।

वो पोहोंची तबतक काफी सामान पैक हो चुका था। माँ को बगीचे मे काम करने का बेहद शौक़ था।शायद अपने मन की गहराई मे छुपे दर्द से ध्यान हटाने का उसका वो एक तरीका था। रॉक गार्डन ,अलग,अलग रितुओं मे होने वाले फूल,किस्म,किस्म,की बेलें,मोतियां तथा गुलाब की क्यारियां,ख़ूब सारे crotans , तथा और कयी सारे पौधों से बगिया सजी रहती थी। कयी बार आसपास के लोग खास उस बगीचे को देखने आते....

उसने उस बगीचे मे एक नज़र फैलायी और उसे उस बगीचे के भग्नावशेष भी नही दिखाई दिए.... कुछ अधमरे पौधे तथा कुछ क्यारियां जिनमे उग रही घांस के अलावा वहाँ कुछ भी नही था...
सुबह उठके वो बाहर आयी। वहाँ वो पुराना,दादाजी के हाथ का लगा नीम का पेड खङा था। कितनी मीठी,मीठी स्मृतियां जुडी थी उस पेड के साथ!!हाँ, उस पे एक ज़माने मे बंधा झूला अब नही था। उस झूले पे दादाजी उसे झुलाया करते थे....
सामने हारसिंगार का पेड था। उसपर बचपन मे खेले खेल याद aate रहे। नीचे बिखरे फूल याद आये,सफ़ेद,छोटे ,छोटे,लाल,लाल टहनी वाले....
वो बकुल का पेड जिसकी टहनियों पे बैठ कर वो श्लोक कवितायेँ आदि याद करती थी वहीं था, गुज़रे वक्त का गवाह बनके । "शैले,शैले ना मानिक्यम"..उसकी अपनी ही आवाज़ उसके कानों मे गूँज गयी...
ज़मीन पर डालियाँ टिका के खडे आम के पेड, वो छोटी,छोटी पग डंडियाँ ,आगे,आगे दौड़ने वाली वो और पीछे,पीछे दौड़ते दादाजी,नैहर की मिट्टी से मटमैले पैर, बरामदे मे झूलती कुर्सी पे बैठी ,कभी स्वेटर तो कभी लेस बुनती दादीमा,इन सब यादों को संजोये हुए ये उसका बचपन और जवानी का आशियाना.... उस से सदा के लिए जुदा होने जा रहा था....

सादी- सी लेकिन स्टार्च की हुई साडी पहने....जूडा बनाए हुए....हँसमुख माँ....कभी बगीचे मे रमने वाली तो कभी रसोयी मे....अपना दुःख कभी ना जताने वाली वो माता....उसके अस्तित्व से भरा हर कोना बिकने वाला था.... मानो, उसका बचपन बिक रहा हो....

खडे,खडे उसे उस बैग की याद आयी। भाईने वो लाकर देदी। क्या रखा होगा इसमे माने??देखा तो ऊपर ही एक पीला-सा हुआ ख़त पडा था..... ख़त खोलके वो पढने लगी....
माँ ने लिखा था,"मेरी बिटिया,इसमे मैंने तेरा और तेरी बिटिया का बचपन संजोके थाम के रखने की कोशिश की है... मेरे पास देने जैसा और तो कुछ भी नही... ये तुझे भी संजोना हो तो संजोना। मन मे एक तूफान-सा उठ रहा है...
chand लम्हें भर की नन्ही-सी जान को बाहों मे लिया था,कैसा प्यार उमड़ आया था! मातृत्व ऐसा होता है? पलभर मे दुनिया ही बदल देता है??कितनी दुआएं निकली थीं दिल से तेरे लिए,कैसी बहारों की तमन्ना की थी तेरे लिए,तेरे हिस्से के सारे गम,राहों के सारे कांटें मैंने माँग लिए थे.....

"धीरे,धीरे दिन गुजरते गए। मेरी आवाज़ सुनके तूने गर्दन घुमाना शुरू किया... तू मुस्काराने लगी,करवट लेने लगी... सब कुछ मनपे अंकित होता रहा...
सहारा लेके तेरा बैठना....मेरे हाथसे पहला कौर....उंगली पकड़ के लिया पहला क़द.....,मुहसे पहली बार निकला "माँ'!कितना संगीतमय था वो! घरके कोने,कोने से निकलती तेरी तेरी किलकारियाँ....स्कूल का पहला दिन... सहमा-सा तेरा चेहरा और नम होती मेरी ऑंखें,इसके अलावा भी और कितना कुछ!
"तू ब्याह के बाद ससुराल गयी तो हर कोनेसे "माँ"की गूँज सुनाई देती थी,लगता था,अभी किसी कोनेसे आके मेरे गलेमे बाँहें डालेगी, फ़ोन बजता तो दौड़ पड़ती, हरवक्त लगता,तेराही होगा!!
"आहिस्ता,आहिस्ता आदत पड़ गयी... फिर तेरी बिटियाके जनम ने एक नयी ख़ुशी,नया उल्लास जीवन मे भर दिया.... उसके लिए नयी,नयी चीज़े बनाने मे बड़ा aanand आता। जब तू उस नन्ही-सी जान को लेके मेरे पास आती....वो मुझ से लिपटती, तो एक अजीब-सा सुकून मिलता.... ब्याह के बाद वोभी ऑस्ट्रेलिया चली गयी तो जीवन का एक अध्याय मानो ख़त्म हो गया....
"अंत मे इतनाही कहूँगी कि ज़िंदगी मे जब कभी अँधेरा छा जाये,मन की ऑंखें खोल देना,उजाला अपने आप हो जाएगा....कोई राह हाथ पकड़ लेगी....कभी किसी दोराहे मे फंस के किसी मोड़ पे रूक मत जाना.... हमेशा धीरज रखना।अन्तिम सत्य के दर्शन ज़रूर होंगे....
हाँ!दुनिया मे नित्य कुछ भी नही....जीवन अनित्य से नित्य की ओर का एक सफ़र है। अगर भोर तुम्हारी मंज़िल है तो भोर से पहले उठ के सफ़र पे चल देना,तुम्हे मंज़िल ज़रूर मिल जायेगी। खैर !तुझे देखने के लिए आँखें हमेशा तरसती रहती हैं। मेरी लाडली,मेरा आर्शीवाद सदा तुम्हारे साथ रहेगा,सुखी रहना,खुश रहना।
तुम्हे बोहोत,बोहोत प्यार करने वाली तुम्हारी
माँ"

रिमझिम झरने वाले नयनों से,कांपते हाथों से,उसने बैग मे टटोल ना शुरू किया.... एक फाईल मे ,बचपन मे की हुई उसकी चित्रकला के पन्ने थे.... पीले पडे हुए...
एक नोटबुक थी जिसमे वो एक सुभाषित लिखा करती थी..... दूसरी नोटबुक मे उसने उसकी पसंद की तसवीरें ,ग्रीटिंग कार्ड्स आदि पर से काट के चिपकायी हुई थी.....
एक थैली मे उसकी स्कूल की प्रगती पुस्तकें थी.... स्कूल कालेज की पत्रिकाएँ, जिसमे उसके फोटो थे,लेख थे...
कुछ कपडे की potliyaa थीं,जिसमे छोटे ,छोटे, दुपट्टे थे....जिन्हे पहले तो वो स्वयम और बाद मे उसकी छुटकी बेटी गले मे डाल के घूमा करती थी....
छोटे,छोटे फ्रोक्स थे। कुछ उसके, कुछ उसकी बिटिया के थे.... जो माँने ही सिये थे... खतों का एक गट्ठा था... कुछ वो थे जो उसने समय,समय पर अपनी माँ को लिखे थे...... तो कुछ उसकी बिटियाने अपने नन्हें,नन्हे हाथों से अपनी नानी को लिखे थे....
एक लकड़ी का डिब्बा था.... उसमे अलग,अलग मेलोंसे कांच तथा पीतल के हार,छोटी,छोटी कांच की चूडिया,छल्ले और झुमके थे। कुछ कपडे की गुडियां थी, जो माँ ने पहले उसके लिए फिर उसकी बिटिया के लिए बनायी थी...
कुछ छोटे,छोटे खिलौनों के बरतन थे...
एक अल्बम थी... जिसमे उसके पलने मे की तस्वीरो के अलावा उसकी बिटिया के बचपन के फोटो भी थे... बोहोत देर तक वो वहाँ बैठी रही। फिर कब उठ खडी हुई उसे खुद पता नही चला।

छ: शयन कक्शोंवाला ,छ: स्नान गृह तथा तीन बैठकों वाला, बरामदों से घिरा हुआ वो घर था। वो उस मे घूमने लगी। यहाँ ,इस खिड्कीमे एक पुराना ग्रामोफोन हुआ करता था,तथा साथ,साथ रेकॉर्ड्स एक गट्ठा...
"घूंघट के पट खोल रे ,तोहे पिया मिलेंगे",ये सुर उसके कानोंमे गूँज ने लगे.... बचपन मे इन शब्दोंके मायने उसे पता नही चले थे। बाद मे समझ आयी,"घूंघट के पट "मतलब मानसपटल पे चढी अज्ञान की परतें.... उन्हें खोला जाय तो अन्तिम सत्य का दर्शन होगा.....
"कहो ना आस निरास भई",माँ हमेशा गुनगुनाया करती थी... फिर ना जाने कितने ही गाने कानों मे गूँज ने लगे,"ईचक दाना,बीचक दाना,दाना ऊपर दाना","नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी मे क्या है...."
इसी बीच किसी वक़्त उसने खाना खाया। शाम को फिर वो सारा परिसर आंखों मे ,मन मे बसाने निकल पडी। र्हिदय मे कुछ तार टूट से रहे थे....

दिलमे एक असीम दर्द लेके वो रातमे सोई। बड़ी देरसे नींद लगी। सुबह ट्रक आने लगे। उनकी आवाजों से वो जग गयी। सामान भरना शुरू हो गया था। देखते ही देखते घर खाली होने लगा। खाली घरमे आवाजें गूंजने लगी। उसकी ट्रेन का समय होने लगा था...
Bhaine कार निकाली.... उसने अपने नैहर पे एक आख़री नज़र डाली...
यहाँ एक दिन बुलडोज़र फिरेगा,जिन pedonkee टहनियों पे वो कभी खेली कूदी थी वो सब धराशायी हो जायेंगे... वहाँ सिमेंटके ब्लोक्स खडे हो जायेंगे....जो वास्तु उसके लिए इतने मायने रखती थी ,वही कितनी क्षणभंगुर बन रही थी.... कुछ भी तो चिरंतन नही इस धर्तीपर.... सच ही तो लिखा था माँ ने अपनी चिट्ठी मे... उसकी आंखें baar, बार छल छला रही थी...

वो कार मे बैठी...साथ माँ का दिया हुआ वो बैग भी था... कार स्टार्ट हुई। घर नज़र से ओझल होनेतक पीछे मुड़ कर वो देखती रही...
सच! सभी अनित्य है.... यही तो अन्तिम सच है। "घूंघट के पट खोल रे"बार बार ये धुन उसके मनमे बजती रही। स्टेशन आ गया। कुछ देरमे ट्रेन भी आ गयी.... आंसू भरे नयनों से उसने अपने भाई से विदा ली और ट्रेन मे चढ़ गयी....
जब ट्रेन चली तो उसके मन मे आया, अब दोबारा वो यहाँ कभी नही आ paayegee.... kisee वक़्त, कहीं और सफ़र करते समय, जब दो मिनट के लिए इस स्टेशन पे गाडी रुकेगी, तो वो खिड़की से jhaankegee...., मन मे ख़्याल aayegaa.... कभी यहाँ अपना नैहर हुआ करता था.... अनायास दूर जाते स्टेशन की ओर उसने हाथ हिलाया..... उस गाँव की बिटिया ने अपने नैहर से आखरी बिदा ली....
समाप्त.
प्रस्तुतकर्ता shama पर 10:18 AM
4 टिप्पणियाँ:

उन्मुक्त said...

इस कहानी का अगला भाग इसी पर मत लिखियेगा पर नयी चिट्ठी पर पोस्ट कीजिये। हिन्दी के फीड एग्रेगेटर की सूची यहां है। कईयों में आपको अपना चिट्टा रजिस्टर करवाना पड़ता है। देवनागरी चिट्ठे मेरा एग्रेगेटर है। यहां पर रजिस्टर करवाने की जरूरत नहीं। यदि अन्य में आपका चिट्ठा रजिस्टर नहीं है तो रजिस्टर करवायें। और लोगों के चिट्ठे पर भी टिप्पणी करें ताकी उन्हें भी आपके चिट्ठे के बारे में पता चल सके और वे आपकी कहानियों का आनन्द ले सकें। मेरा ईमेल यह है। यदि कुछ मुशकिल हो तो समपर्क करें।

Friday, April 3, 2009

नीले ,पीले फूल. ( कहानी)

नीले पीले फूल ( कहानी)

भई, अबके गर्मियों की छुट्टियों मे हिंदुस्तान मेही कहीं चलेंगे। परदेस चलने का कुछ मूड नहीं बन रहा!"सुबह
बाथरूम मे खड़ा विपुल शेव करते करते अपनी पत्नी नीरा से बतियाने लगा। कुछ देर उसकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर फिर आगे बोल पडा ,"सोंचता हूँ,पहले तो शिमला चल पड़ें ,फिर आगे की देखी जायेगी। वैसे तो घिसी पिटी जगह है, गर्मियों मे भीड़ भी रहेगी ,लेकिन बच्चे भी तो बेरौनक जगह जाना नही चाहते ना अब!"

विपुल बिना नीरा की ओर देखे बोला चला जा रहा था। अगर देख लेता तो शायद बड़ा चकित हो जाता। हिमाचल की उस राजधानी का नाम सुनते ही नीरा ऎसी कंपित हो उठी , जैसे किसी हिमशिखा से चला सर्द हवा का झोंका उसे छू गया हो! उस के मन का एक मूर्छित सोया कोना हज़ारों झंकारों के साथ जाग उठा। पिछली शाम dryclean हो आयी साडीयां अलमारी मे लटकाती नीरा एकदम रूक सी गयी, मानो उस की किसीभी हलचल से विपुल अपना विचार बदल ना दे। नीरा के इस बर्ताव के पीछे एक रहस्य था,जो दबा पडा एक किताब के पन्नोमे,और वो किताब पडी हुई थी उसी अलमारी मे,पिछले कयी वर्षों से।

"भई!कुछ बोलो भी!!क्या सरकार को हमारा ख़्याल पसंद नही आया?अगर नही तो तुम जहाँ कहोगी वहीं चलेंगे, परदेस ही कही चलना है तो ....."

"नही,नही,ऎसी बात नही!!मैं तो बस किसी सोंच में उलझ गयी थी......अबकी बार वाकई शिमला ही चलेंगे,"नीराने अपने आप पे काबू पाते हुए कहा। लेकिन फिरभी उस का अन्तिम वाक्य गौर से सुन ने वाले को लगता जैसे अर्धस्पप्नावस्था मे कहा गया हो। विपुल का घ्यान नही था। शेव ख़त्म होतेही ही उसने नहाने के लिए बाथरूम का दरवाजा बंद कर लिया।

बच्चे तो सुबह ही स्कूल चले गए थे। नाश्ता करके विपुल भी जब ऑफिस चला गया तो नीरा ने अपनी अलमारी खोली। उसमे से वो किताब निकाली और खोला वो पन्ना जहाँ चंद सूख नीले,पीले फूल चिपके हुए थे उसने उन्हें धीरेसे छुआ और अनायास बोल पडी ,"उसका पता मैं लगा पाऊँगी?"

खडी ,खडी ही नीरा अतीत मे खो गयी। बीस साल पहले अपने माँ-बाबूजी के साथ वो शिमला गयी थी। केवल चौदह वर्षीया लडकी थी तब नीरा।
"होटल हिमाचल"मे रुके थे वे लोग। साफ सुथरा,बड़ी ही सुन्दर जगह स्थित होटल था वो। वहाँ एक अठारह,उन्नीस साल का वेटर काम करता था। ख़ूब हंसमुख,लेकिन उतनाही सभ्य और बेहद फूर्तीला। बाबूजी तो उसपर एकदम लट्टू हो गए थे। सुबह और रात मे तो वो नज़र आता था dining हाल मे लेकिन दिनके समय नही। एक दिन बाबूजीने पूछ ही लिया,"भई तुम दिन मे नही नज़र आते?सिर्फ सुबह और रातमेही काम करते हो क्या?"

"जीं,दिन मे मैं कालेज जाता हूँ। "
"अच्छा? क्या पढ़ते हो?" बाबूजी ने पूछा।
मैं m.b.b.s के फर्स्ट year मे हूँ। "वो बोला।
"वाह,भई वाह!!बडे होनहार हो!! लेकिन बुरा ना मानो तो एक बात पूछूं बेटा?" बाबूजी ने बडे प्यारसे कहा।
"जीं,बिलकुल पूछिए,"उसने नम्रता से जवाब दिया।
"बेटा तुम्हारे घरमे और कोई कमाने वाला नही है क्या?मेरा मतलब है,वैसे तो खुद कमाना और पढना अच्छी बात है। आत्मसम्मान बना रहता है,लेकिन मेडिसिन की पढाई कुछ अधिक होती है ना इसलिये पूछ रहा हूँ," बाबूजी बोले।
"बाबूजी, दरअसल मेरे पिताका कुछ साल पहले बीमारी से देहांत हो गया । हम लोग रहनेवाले देहरादून के थे। पिताजी का वहाँ छोटा सा कारोबार था। माँ तो मेरे बचपन मे ही चल बसीं थीं। मैं अकेली ही संतान था। मेरे पिताजी का अपने छोटे भाई पर बड़ा विश्वास था। मरने से पहले अपना सारा कारोबार पितीजी ने उन्हें सौप दिया। सोंचा,चाचाजी कारोबार के पैसों से मुझे पढा देंगे और बादमे यथासमय कारोबार मेरे हवाले कर देंगे। लेकिन चाचाजी ने सब हड़प लिया। घर मे मुझे बड़ा तंग करने लगे। मैं अपनी पढाई हरगिज़ नही छोड़ना चाहता था। घर छोड़ काम की तलाश मे यहाँ चला आया। इस होटल मे काम करते हुए पढने लगा।
"दरअसल, इस होटल के जो मालिक है ना, बडेही भले आदमी है। उन्हों नेही पहले तो स्कूल मे, फिर मेडिकल कालेज मे दाखिला कराया। उनकी ऑलाद नही है। अकेले ही रहते है। कहते है, पढाई का पूरा खर्चा वोही देंगे। मुझे तो काम करे से भी रोकते हैं,पर मेरा मन नही मानता। सुबह एक डेढ़ घंटा तथा रात मे एक डेढ़ घंटा काम कर लेता हूँ। "
कुतूहल और प्रशंसा से नीरा भी सब कुछ सुन रही थी। वाकई कितना नेक और सरल,सच्चा इन्सान है ये! होटल के मालिक के प्रती भी उस का मन श्रद्घा से भर आया।
"शाबाश बेटे,शाबाश! बोहोत ख़ूब!!अच्छा बताओ तुम्हारा नाम क्या है?"बाबूजी ने पूछा।
"नाम तो मेरा निरंजन है,वैसे सब मुझे राजू ही कहते है।" निरंजन ने बताया।
जब निरंजन वहाँ से हट गया तो माँ ने भी कह दिया,"बड़ाही होनहार लड़का है! भगवान् इसे सफलता दे और होटल के मालिक को लम्बी उम्र!!"

एक दिन सुबह होटल के लॉन के एक कोनेमे नीरा को कुछ घाँस के फूल दिखाई दिए....... बडेही सुन्दर,कोमल। उसने धूप सेकते बैठे बाबूजी से चिहुक के कहा,"बाबूजी! देखिए तो! कितने सुन्दर फूल है ये!!"
इन्हें तोड़ कर अपनी किसी किताब मे रख लेना। ये एक यादगार बन जायेंगे,"बाबूजी बोले।
"आज नही। जिस दिन चंडीगढ़ के लिए वापस चलेंगे ना, उस दिन मैं इन्हें किताब मे दबा कर रख लूँगी",नीरा ने कहा था।

जिस दिन चलने लगे उस दिन नीरा उन फूलोंके बारेमे भूल ही गयी। माँ टैक्सी मे समान रखवा रहीँ थीं ,बाबूजी होटल का बिल अदा कर रहे थे,नीरा ,कुछ भूला तो नही ,ये देखने के लिए अपने कमरे के ओर बढ़ी तो दरवाज़ेपर वही घाँस के फूल लिए निरंजन खङा था....
"उस दिन आप अपने बाबूजी से कह रही थी ना,ये फूल बडे सुन्दर हैं,"कहते हुए उसने उन घाँस के फूलोंका छोटासा गुच्छा नीरा की ओर बढाया।
चकित ,भरमायी -सी नीराने आँखें उठाके उसे देखा तो पाया, कि वो बेहद उदास निगाहोंसे उसे अपलक देख रहा था। एक अबीब-सी , अजनबी संवेदना उसके अन्दर तक दौड़ गयी, जिसका उस समय उसका अबोध किशोर मन नामकरण नही कर पाया। महसूस हुई कान और गालों पर एक अनोंखी गरमी। उसने निरंजन के हाथोंसे फूल लिए और शरमा कर टैक्सी की ओर चल दी । निरंजन उसके पीछे आया । तब तक बिल अदा करके बाबूजी भी वहाँ पोहोच चुके थे।

नीरा के हाथ मे फूल देखे तो बोले,"अरे फूल इक्ट्ठे कर रही थी हमारी बिटिया!"
जी ,!"इस से आगे नीरा कुछ बोल नही पायी।
माँ बाबूजी ने निरंजन की ओर मुखातिब हो उसे जी भर के शुभ कामनाएँ दीं। निरंजन ने हाथ जोडे और टैक्सी चलने के पहले ही तेज़ कदमों से अन्दर मुड़ गया। नीरा समझ नही पायी कि, क्या उसकी आँखों मे उन वादियों के कोहरे की नमी थी...?

चंडीगढ़ से जब वे लोग शिमला की ओर चले थे पूरा रास्ता नीरा चिड़िया की तरह चिहुकती आयी थी। लॉटते हुए उसे उस अर्ध क्षण की अनुभूती ने कितना अंतर्मुखी बना दिया था!

घर पहुँचते ही नारा ने उन फूलोंको अपनी एक किताब मे दबा दिया। देखते ही देखते वर्ष बीत ते गए। उन गर्मियों के बाद उस परिवार का कभी दोबारा शिमला जाना ही नही हुआ। उन्नीस वर्ष की पूरी होते,होते नीरा की विपुल से शादी भी हो गयी।
विपुल के पास धन दौलत की विपुलता तो थीही , उसने नीरा लो चाहा भी बेहद। वैसे स्वभावत: वो बड़ा हँसमुख और बातूनी था।
एक दिन उसने नीरा को कहा था,"तुम जब भी बाहर निकला करो ना, तब धूप का काला चश्मा आंखों पे लगा लिया करो"।
"क्यों",नीरा ने हैरत से पूछा था।
"पता नही,मेरी तरह कौन,कौन बेचारे इन इनकी गिरफ्त मे आकर घायल होते होंगे?"विपुलने छेड़ा।
"अच्छा??जैसे लोगों को मेरी आँखों मे झांक ने के अलावा दूसरा कोई काम ही नही!"नीरा ने कहा था।
"अजी,हम भी उन्ही निकम्मों मे से एक हैं,क्या भूल गईँ?तुम जब चंडीगढ़ से अपने चाचा के पास आयी थी तो canaught प्लेस मे हमने तुम्हे देख लिया था, और ऐसा पीछा किया, ज़िंदगी भर छूटेगा नही,"विपुल ने शरारत से याद दिलाया था।
लेकिन इतना भरा पूरा घर-संसार होते हुए भी नीरा के मन का एक कोना बिलकुल सूना ,अछूता रह गया था। एक सुनसान,अंधेरी गूफा की तरह।

ना जाने नीरा कितनी देर खयालों मे खोयी रही। जब गर्मियों की छुट्टियों की जब तैयारियां होने लगी तो नीरा मे एक अजीब सी चेतना भर गयी। लड़कपन की अधीरता से वो शिमला जानेका इंतज़ार करने लगी। इतना उल्लसित उसे उसके परिवालों ने शायद ही कभी देखा था।
"अपनी ही कार से चलेंगे!",उसने विपुल से आग्रह किया।
विपुल ने मान भी लिया।

सारा रास्ता नीरा खयालों मे खोयी रही । क्या निरंजन का पता मिलेगा??क्या वो शिमला मे ही होगा?बाबूजी से तो उसने एक दिन यही कहा था डाक्टर बन के वो शिमला मेही काम करेगा। लेकिन ज़िंदगी का क्या भरोसा?किस वक़्त किस मोड़ पर ले जाये?उसने विवाह भी कर लिया होगा!!लेकिन कर भी लिया हो तो क्या??उसके अतीत के वो कुछ पल जो नितांत उसके अपने थे, उसमे तो किसी की साझेदारी नही हो सकती!केवल उसने उन पलोंको जिया है,और किसी ने तो नही!उन पलोंकी स्मुतियों को उजागर करनेकी चाह मन और जीवन की सारी सीमा रेखाओं को पार कर उसे व्याकुल,अधीर बनाती रही।

शिमला पहुँचने के दुसरे ही दिन उसने दिन विपुल तथा बच्चों से कहा,"भयी,आज मैं अकेलेही शिमला मे कुछ देर घूमूँगी, खुद ही ड्राइव भी करूँगी । "
विपुल हैरानी उसे देखता रहा,बोला,"अकेली? क्यों?और खुद ही ड्राइव भी करोगी?तुम देहली मे तो इतना डरती हो कार चलाने से और यहाँ ड्राइव करोगी??इन अनजान पहाड़ी रास्तोंपे??
"बस ऐसे ही मन कर रहा है.बोहोत साल पेहेले माँ-बाबूजी के साथ यहाँ आयी थी। उन्ही यादोंको अकेले उजागर करना चाहती हूँ",नीरा ना चाहते हुए भी कुछ खोयी-सी बोली।
ओहो??ऎसी कौनसी यादें हैं जो हम नही बाँट सकते ?और फिर होटलकी भी कार सर्विस है,उससे जाओ। गाडी मत चलाओ। आख़िर किसलिये रिस्क लेना चाहती हो?" विपुल ने हर तरह से उसे रोकना चाहा, लेकिन नीरा के साथ हर बेहेस बेअसर थी। बच्चे भी माँ के इस बदले हुए रुप को हैरत से देखते रहे, बोले कुछ भी नही। विपुल ने हार के कार की चाभियाँ नीरा को पकडा दीं और हताश हो कमरेमे बैठ गया।
नीरा ने होटल से रोड़ मैप ले लिया और "होटल हिमाचल"की ओर चल दीं। एक अनाम धुन मे सवार,कहीं कोई अपराध बोध नही। केवल एक आत्यंतिक उत्कंठा। क्या निरंजन को वो तलाश पायेगी??

"होटल हिमाचल"पोहोंच के उसने कार पार्क की। होटल का हूलीया काफी बदला हुआ नज़र आ रहा था। पहले कितना साफ सुथरा हुआ करता था ये होटल!
काउंटर पर पोहोच कर उसने मेनेजर से कहा, 'देखिए मैं यहाँ किसी का पता पूछने आयी हूँ, कुछ बीस साल पहले हम यहाँ एक बार आये थे तब...."
"बीस साल पहले?पिछले दस सालोंसे मैं यहाँ मेनेजर हूँ। किसका पता चाहती हैं आप?"मेनेजर ने उसकी बात काट ते हुए उस से प्रतिप्रश्न किया।
"ओह! क्या इस होटल के मालिक से मिल सकती हूँ मैं?"नीरा ने बड़ी आशा से पूछा।
"इस होटल के जो पुराने मलिक थे,देहांत हो गया,कुछ सात साल पहेले। नए मालिक तो...."
हे भगवान्!पुराने मालिक का देहांत हो गया?"नीरा एकदम हताश हो उठी। अब कौन उसे निरंजन का पता बतायेगा??
उसकी निराशा देख,मेनेजर ने उस से कहा,"देखिए,इस होटल के जो पुराने मालिक थे,सुना है उन्होने एक वेटर को बिलकूल अपने बेटे की तरह रखा था, शायद वो आपकी ......"
"कहाँ है वो? क्या करता है?शिमला मे ही है?क्या आप मुझे उसका पता बता पायेंगे?"नीरा का खोया उल्लास लॉट आया और उसने सवालों की बौछार कर दीं।
"वो आजकल शिमला मे ही है, काफी जाना माना डाक्टर है,डाक्टर निरंजन्कुमार। पुराने मालिक ने पढाई के लिए उसे परदेस भी भेजा था,और उन्होनेही अस्पताल भी खुलवा दिया। "

मेनेजर जैसे,जैसे बताता गया,नीरा का चेहरा खुशी से खिलता गया। निरंजन के अस्पताल का पता जान ने के लिए वो बेताब हो उठी।
मनेजर ने एक कागज पे उसे रास्ते समझाते हुए पता लिख दिया.... नीरा ने बे-सब्रीसे उसके हाथ से कागज छीना अपनी कार की ओर तेज़ीसे दौड़ पडी,ख़ुशी और उत्कंठा से उसका शरीर काँप सा रहा था....
ये ऎसी उत्कंठा,ऐसा अछूता,अनूठा कंपन उसके लिए तकरीबन अपरिचित ही था। जिस व्यक्ती को उसने वर्षों पहेले केवल एकही बार देखा था,क्या वो ऎसी विलक्षण संवेदना जगह सकता है??नीरा को अपने आप पे अचरज हो रहा था.....

अस्पताल होटल से ज़्यादा दूर नही था। पता ढूँढने मे नीरा को खास परेशानी नही हुई। गेट के अन्दर घुसते ही उसने देखा कि छोटा-सा लेकिन काफी साफ सुथरा था अस्पताल। मुख्य द्वार से अन्दर जाते ही सामने बैठी receptionist ने उसे एक कार्ड थमाया, जिस पे नीरा ने काँपते हाथों से अपना नाम लिखा और वापस किया...

हॉल मे कुछ और लोग भी बैठे हुए थे। नीरा एक कुर्सी पर जा बैठी। इतना उत्कंठा भरा इंतज़ार तो नवपरिणीता नीरा ने सुहाग रात के दिन अपने पती का भी नही किया था। आज उसे वो व्यक्ती दिखने वाला था,जिसे इतने वर्षों मे वो कभी भी नही भूली थी। नीरा को देखते ही वो अनायास कह उठेगा,"अरे आप!!इतने सालों बाद?"
"पहचाना मुझे?" काँपते होंटों से कुछ अलफ़ाज़ फिसल पड़ेंगे। इस पर निरंजन का क्या जवाब रहेगा?

अचानक उसका नाम पुकारा गया। दरवाजा खोल कर अन्दर जाने तक उसका मुँह सूख गया.... शरीर पसीने से लथपथ..... सामने वही निरंजन था।
नीरा मूर्तिवत खडी उसे देखती रही...
"आयिये , बैठिये !!"किसी व्यावसायिक डाक्टर की सभ्यता से निरंजन ने उस से कहा।
"हे भगवान्!!इसने लगता है,मुझे पहचाना ही नही!,"निरंजन उसे पहचानेगा नही, इस संभावना का तो उसने अनुमान ही नही किया था..... वो जड़वत कुर्सी पे बैठ गयी.....
"कहिये क्या तकलीफ है आप को?"डाक्टर उसे पूछ रहा था।
"जी .....तकलीफ......नही....मुझे....मैं..."
नीरा की समझ मे नही आ रहा था कि उस से कैसे पूछे,कैसे बताये??
"हाँ,हाँ,कहिये!!आप कुछ परेशान-सी लग रही हैं। आपके साथ औरभी कोई है या आप अकेली आयी हैं?"निरंजन उस से पूछ रहा था।
जी नही...मेरा मतलब है,जी हाँ.......होटल मे हैं......मेरे पती और बच्चे.... मैं आपके अस्पताल मे अकेली आयी हूँ। मैं पूछना चाह रही थी कि आप "होटल हिमाचल"जानते हैं?"नीरा ने पूछने की कोशिश की।
"क्या आप वहाँ रुकी हैं? वहाँ पर कोई बीमार है?मतलब आप मुझे visit पे बुलाने आयीं हैं?"
"नही,नही, मैं वहाँ नही रुकी हूँ। विजिट पे भी नही बुलाना चाहती। मैं तो .....क्या उस होटल के पुराने मालिक को...कभी....आप...जानते थे??"
नीरा की खुद समझ नही आ रहा था कि वो क्या बोल रही है......
"क्या आप उनके बारेमे जानना चाहती हैं?अफ़सोस!वो अब इस दुनिया मे नही रहे। कुछ सात साल पहेले उनका निधन हो गया," डॉक्टर निरंजन ने बताया।
"जी ...वो तो मैंने भी सुना। लेकिन...लेकिन...अबसे बीस साल पहेले हम उस होटल मे रुके थे। मतलब मैं और मेरे माँ-बाबूजी। उस समय वहाँ पे एक........."
अब नीरा बेहद व्याकुल हो उठी। उसके कतई समझ मे नही आ रहा था वो उस डाक्टर से कैसे पूछे क्या कि क्या वो वही राजू है?
अंत मे उसने पर्स मेसे वो लिफाफा निकाला, जिसमे वो घाँस के नीले, पीले फूल रख कर साथ लाई थी। धीरे से उन फूलोंको निरंजन के सामने रखते हुए उसने पूछा,"क्या आप इन फूलोंको पहचानते हैं?क्या आपने ये फूल कभी किसीको .. ....",इसके आगे उस से बोला नही गया....

"ये क्या फूल हैं?शायद आप किसीकी तलाश मे यहाँ आयीं है!!कुछ गलत फेहेमी तो नही हुई आपको?"निरंजन ने बडे ही शांत भाव से कहा। नीरा को सारी दुनिया घूमती हुई-सी नज़र आने लगी।
"क्या सच मे आप इन फूलोंको नही जानते??कुछ याद नही आपको?"नीरा बेताब हो उठी।
"नही तो!!देखिए,मैंने कहा ना,आप किसी गलत जगह पोहोंच गयी है!"निरंजन ने हल्की-सी मुस्कान के साथ फिर एकबार कहा।
"ओह!"'नीरा के होटों से एक अस्फुट-सी आह निकली।कुर्सी को थामते हुए डगमगाते क़दमों से खडी हुई,और धीरे, धीरे दरवाज़े की ओर बढ़ी....
दरवाज़े का नोब घुमाते हुए एक बार फिर उसके दिल ने चाहा,जैसे वो घूम जाये,निरंजन से सीधा सवाल करे,"क्या तुम वही निरंजन नही हो? वही निरंजन,जिसने बीस साल पहले एक चौदह वर्षीया लडकी को ये घंस के फूल थमाये थे,उसे ऎसी निगाहोंसे देखा था,जिसे वो लडकी आज तलक भुला नही पायी?निरंजन !मैं वही लडकी हूँ!क्या अब भी मुझे जानोगे नही?"

लेकिन तबतक डाक्टर ने अगले patient के लिए बेल बजा दीं थी। वो बाहर निकली। कुछ ही देर पहले खुशनुमा हवामे लहराती एक चुनर तूफान की जकड मे मानो तार,तार हुई जा रही थी।
थोडी देर काउंटर को पकड़ के नीरा खडी हो गयी। अपने आप पे काबू पाने की भरसक कोशिश करती रही। फिर उसने अपने पर्समे से ,जिस होटल मे वे लोग रुके थे ,उसका फ़ोन number ,रूम नंबर तथा नाम receptionist को थमाते हुए बोली,"please,ज़रा इस नंबर पे मेरी बात करा देंगीं आप?"

फ़ोन मिलाके receptionist ने नीरा को थमाया।
"हलो... ,"धीरेसे नीराने कहा।
"हलो...!नीरा??कहाँ से बोल रही हो??क्या बात है?"उधर से विपुल की चिंतित आवाज़ आयी।
"सुनो,विपुल,मैं रास्ता भटक गयी थी। किसी गलत फ़हमी मे, किसी डाक्टर निरंजन कुमार की अस्पताल मे आ गयी। तुम यहाँ आकर....."
"अरे,तो अपने होटल का नाम बता के रास्ता पूछ लो!इतना मशहूर होटल है.....कोयीभी रास्ता बता देगा....घबराओ मत",विपुल ने उधर से कहा।
"नही विपुल,अब मुझ मे कार चलाने की हिम्मत नही। दरअसल तबीयत कुछ खराब लग रही है। तुम यहाँ आके मुझे ले जाओ please!"नीरा ने इल्तिजा भरे स्वर मे कहा।
"देखा ना मैं पहेले ही कह रहा था,गाडी चलाने की तुम्हें आदत नही है। ठीक है,पहोचता हूँ वहाँ। ज़रा ठीक से नाम बताना तो!"
नीरा ने नाम बताया और विपुल ने फ़ोन रख दिया।

बाहर तो धूप थी,लेकिन नीरा की आखोँ मे बंद, वो एक निरंतर पल, बूँद-सा फिसल कर वक़्त के घने कोहरे मे खो गया। वो ठगी-सी,लुटी-सी देखती रही।
उसने पर्स मे से वो लिफाफा निकाला,जिसमे वो नीले-पीले फूल सहेज के देहली से चली थी,बरसों सँजोए फूल!वेटिंग रूम के कोने मे एक कूडादानी थी। नीरा ने उसमे धीरे से लिफाफा छोड़ दिया।

विपुल तेज़ी से सीढियाँ लाँघता हुआ बढ रहा था..... नीरा ने झट धूप का चश्मा आँखों पर लगा लिया..... कहीँ विपुल उन सजल आँखों मे की धुन्द देख ना ले.....
"तुम भी कमाल करती हो नीरा!!अस्पताल कैसे पोहोंची?जाना कहाँ चाह रही थी??मैं कह भी रहा था होटल की कार लेलो,लेकिन पता नही उस समय तुम्हारे सर पे क्या सवार था??"विपुल बोलता चला जा रहा था।
"कुछ नही,विपुल,जो सवार था,उतर गया। बस ऐसेही अकेले कुछ वक़्त गुज़रना चाहती थी ",नीरा ने अपने आप को ज़ब्त करने की भरसक कोशिश करते हुए कहा। अब शिमला की वो हँसीं वादियाँ उसके लिए रेगिस्तान की वीरानियाँ बन चुकी थीं.....

रात मे काम ख़त्म करके निरंजन्कुमार अपने निवास पे डायरी लिख रहे थे.....
"नीरा!!पहली बार मुझे उसका नाम मालूम हुआ। जब मैंने उसे कमरेमे घुसते देखा,तो मैं स्तब्ध रह गया। इतने वर्षों बाद मेरे सामने वही आँखें ,जिन्हें मैंने किस किस मे नही तलाशा! उन आँखों को मैं भला भूला ही कब था??
अपने आपको कितनी मुश्किल से सम्भाला!अब भी वे आँखें वैसी ही थीं!उतनी ही निश्छल, निरागस !जब मैंने पहचान नेसे इनकार किया तो उफ़!कितनी आहत ......!उनमे की दीप्ती जैसे बुझ-सी गयी....पलभर लगा,बढ कर उसे थाम लूँ,और कह दूँ,"हाँ नीरा,मैं वही निरंजन हूँ,जिसे खोजती हुई तुम यहाँ आयी हो....
"लेकिन बड़ी निर्ममता से मैंने खुदको रोका..... वो शादीशुदा थी..... उसके कार्ड पे लिखा था,मिसेस नीरा सेठ। हमारे रास्ते कबके जुदा हो चुके थे.....
"प्रथमत: मुझे लगा,वो वाकयी patient के तौर पे आयी है। इतने वर्षों तक उसने मुझे याद रखा होगा,ये तो मैं सोंच भी नही सकता था। जब हम पहली बार मिले थे,तब मैं था ही क्या??केवल एक वेटर!!लेकिन जब एहसास हुआ कि वो मेरी ही खोज मे है तो हैरानी के साथ असीम ख़ुशी भी महसूस हुई। फिर भी मैंने निर्दयता से अपरिचय जताया। नियती की विडम्बना ही सही,लेकिन हम दोनो के वजूद का सम्मान अपरिचय बनाए रखने मेही था.......वरना पता नही उस मृगजल के धारा प्रवाह मे पतित हो हम किस ओर बह निकलते!!उबरना कितना मुश्किल होता!वक़्त उसे मरहम लगा ही देगा। वक़्त!!किसी भी डाक्टर से बड़ा डाक्टर!!
लेकिन सोंचता हूँ तो सिहर उठता हूँ!!मेरे प्रती इतनी गहरी आसक्ती रखते हुए,उसने अपने पती के साथ इतने साल कैसे बिताये होंगे!!अतीत को अनागत मे बदल ने के प्रयास मे क्या उसने अपना वर्तमान नही खोया होगा??मैंने तो शादी ही नही की। उन आखोँ की गिरफ्त मे गिरफ्तार, मैं रिहा कब हुआ??लेकिन नीरा??
"अच्छा हुआ इन फूलों का लिफाफा वो मेरे अस्पताल मे फेँक गयी....... भगवान् करे इन फूलों के साथ,साथ वो अपनी सँजोई यादेँ भी फ़ेंक दे..... वो यादें और ये नीरा के स्पर्शित फूल,अब मेरी धरोहर रहेँगे...... शायद मेरे ना पहचाननेसे वो मुझ से नफरत ही करने लगी हो। लेकिन उसके लिए तो इस मोहमयी मृगत्रिष्णा से ये नफरत ही अच्छी। "

डाक्टर निरंजन ने अपनी डायरी मे बडे जतन से वो फूल रखे और धीरे से उसे उठा अपने सीने से लगा लिया। अनायास ही उनकी ऑंखें भर आयी।
सम्पूर्ण।

7 टिप्पणियाँ:

परमजीत बाली said...

शंमा जी ,कहानी अच्छी है। लेकिन कहानी नही हकीकत लगती है।आप अच्छा लिखती हैं। आगे इन्तजार है।

उन्मुक्त said...

पढ़ता था क्या

परमजीत बाली said...

शमा जी,आप की अभी-अभी मैने आपकी टिप्पणी पढी और जैसा कि आप ने बताया कि आप की कहानी पूरी हो गई जान कर खूशी हुई ।
पूरी कहानी पढ चुका हूँ"नीले पीले फूल"आप ने नारी ह्रदय की कोमल भावनाओं को बखूबी व्यक्त किया है।अपनें कहानी के पात्रों को भी एक सम्मान प्रदान किया है ।बहुत अच्छा लगा। आप की लिखी कहानी मुझे बहुत पसंद आई। मै चाहता हूँ कि आप कि इस कहानी को अन्य पाठक भी पढे । यदि आप अनुमति दे तो मै इस कहानी का लिंक अपनी पोस्ट पर दे दूँ। ताकि एक कहानीकार (शमा)को पाठको के सामने लाने का श्रैय मै पा सकूँ। कृपया सूचित करे।

उन्मुक्त said...

क्या आप ने इसी पोस्ट में कहानी पूरी कर दी? इसी पर तो मैंने पहले टिप्पणी की थी।
आप भी भावनाओं में बहती हैं।

ऒशॊदीप said...

अच्छी कहानी है।पसंद आई।

abhivyakti said...

AAPKI KAHANI ME PRAVAH AUR JIGYASU PRAVRITI HAI JO KAHANI KA ATYAVSHYAK GUN HAI.KAHANI BAHUT NAYI SI NAHI HAI KINTU SUNDER PRASTUTI KE KARAN BAHUT ACHCHI AUR PATHNIYA HAI.

Irshad said...

लोगो को एक जीवन मिलता है शमा जीने के लिये लेकिन तुम तो गजब किये देती हो कितने रूपों मे जी रही हो, अपनी कहानीयों में, कविताओं में जीऐ चली जा रही हो। नीरा कोई और नही कही पर किसी कोने में उसके मन से तुम्हारा मन भी तो मिलता है। तुम्हारे भोगे हुए सुख और दुख आज तुम्हारी सबसे बड़ी दौलत बन गये है। तुम अपने अनुभवों को किरदारों के रूप में ढालकर साफ-साफ बचकर निकल जाती हो। कमाल कर जाती हो। इतना सबकुछ देखलेने पर भी, जानलेने पर तुम्हारे पास कितना कुछ नया बचा है। तुम वोही बांट रही हो। कल कोई और किरदार निकलेगा, कोई और बात चलेगी। लेकिन तुम्हारी परछाईयां और रंग उन सब में दिखाई देगे।
तुम कहती हो ( नीरा के मन का एक कोना बिलकुल सूना ,अछूता रह गया था। एक सुनसान,अंधेरी गूफा की तरह।) शमा जानती हो अगर नीरा के मन का यह कोना जिस दिन भर गया उस दिन उसकी मौत हो जायेगी। वो इसी पागलपन, इसी खोज में तो है। अपनी अन्धेरी और सुनसान गुफा से बाहर आने की कोशिश ही दुसरों को उजालों का रास्ता दिखा रही है। तुम बस चलती जाओ जहां तक तुम्हे जाना है। एक बात और बताओ ( इतना उत्कंठा भरा इंतज़ार तो नवपरिनीता नीरा ने सुहाग रात के दिन अपने पती का भी नही किया था।) इस तरह की पंक्तिया आपको सुझ कहां से जाती है।