Saturday, August 15, 2009

याद आती रही...१० ( अन्तिम)

( पूर्व भाग: विनीता ने e-mail लिखनी शुरू कर दी..)

'मै, विनीता वर्मा, उम्र ३७, कहना चाहती हूँ: विनय श्रीवास्तव तथा उनका परिवार, बरसों हमारे परिवार के पड़ोसी रहे।
ये तब की बात है,जब मै अपने परिवार के साथ बांद्रा , पाली हिल, पे रहते थी । विनय ने मुझ से शादी का वादा किया था। हम दोनों एकसाथ घूमते फिरते रहे।

बाद में वह आगे की पढाई के लिए लन्दन चले गए। कुछ मुद्दत तक उनके पत्र आते रहे, फिर बंद हो गए। बाद में मेरी अन्य जगहों पे शादी की चर्चा चली। लेकिन जहाँ भी बात चलती, पता नही, मेरे तथा विनय के संबंधों के बारे में बात पता चल जाती।

अंत में, मैंने तंग आके शादी के लिए मना कर दिया। मै अपनी नौकरी में रमने लगी। उस दरमियान पहले तो मेरी माँ की मृत्यु हो गयी और बाद में पिताजी की। पिताजी के मौत के पूर्व हमने अपना घर बदल लिया। हम बांद्रा छोड़, इस मौजूदा फ्लैट में रहने चले आए।

कल शाम अचानक, विनय मुझे एक बस स्टाप पे मिल गया। मुझे काफी हाउस ले गया, तथा आज मेरे घर आने का वादा किया। हम कुछ देर बाहर घूमने जानेवाले थे।

औरत, शायद, कुछ ज़्यादाही भावुक होती है। मैंने उसकी बातों पे विश्वास कर लिया। वो शाम चार बजे आनेवाले था। मैंने तैयार होके उनका इंतज़ार किया चार बजेसे लेके रात ११ बजे तक.....

मै सिर्फ़ कारण जानना चाहती थी,कि, विनय ने मेरे साथ ये व्यवहार क्यों किया..क्यों लन्दन जाने के बाद, मुझे अपने जीवन से हटा दिया...फिरभी मैंने सोचा, छोड़ो, बीती बातों को क्यों दोहराना...

लेकिन,मेरी क़िस्मत में ये एक मुलाक़ात भी नही लिखी थी...इस धोके बाज़ इंसान पे मुझे इतना विश्वास भी नही करना चाहिए था...इसने मेरी हत्या तो नही की,पर ,मेरी जीने की सारे तमन्ना ख़त्म कर दी। मेरे प्यार भरे दिलको समझाही नही...

विनय के ख़त मेरे ड्रेसिंग टेबल की सबसे ऊपर वाली दराज़ में पड़ें हैं...जिनमे शादी का बार बार ज़िक्र है। हमारी साथ,साथ ली हुई तस्वीरें भी हैं...जब तक ये ख़बर छपेगी या लोगों/बहन बहनोई तक पहुँचेगी, मै दुनियामे नही रहूँगी।

इसे कोई मेरी कायरता समझना चाहे तो समझे...लेकिन उम्र की उन्नीस साल से लेके सैंतीस साल तक जो वक्त मैंने गुज़ारा है, गर वह कोई गुजारता ,तो, समझता ,कि, बहादुरी और कायरता में क्या फ़र्क़ है...खैर! जिसको जो समझना है, समझे...

निशा दीदी, जीजाजी, तुम अफ़सोस मत करना। मुझे जीजाजी पे बेहद नाज़ है। न कोई कसमे खाईं, ना वादे किए, कितनी सादगी से साथ निभाया.....

बच्चों को मासी की तरफ़ से ढेर सारा प्यार।

विनीता वर्मा।

ये ख़त कम्पोज़ करके उसने, अलग अखबारों ,पुलिस स्टशन पे ,तथा निशा दीदी को फॉरवर्ड कर दिया। फिर रसोई से एक तेज़ छुरी ले आयी और फर्श पे लेटे,लेटे कभी कलाई की, तो कभी कहीँ की, नसें चीरने लगी...खून बहने लगा...सिंगार मिटने लगा...ना जाने कब उसके प्राण उड़ गए...

समाप्त।

Monday, August 10, 2009

याद आती रही ९

(पूर्व भाग : एक बार फिर घंटी बजी...)

जैसेही इस बार घंटी बजी, विनीता को यक़ीन हो गया कि,अबके विनय ही होगा...उसके घर वरना आताही कौन था? गालों पे लालिमा छा गयी..शर्म के मारे,चेहरा तमतमा गया..कितने बरसों बाद...! क्या वो बाहों में भर लेगा...या..?उसने दरवाज़ा खोला...तो सामने खड़ी थी पड़ोस की नौकरानी..रूक्मिणी...एक कटोरी लिए....

"हमारी में साब ने पूछा है,चीनी है क्या? एकदमसे मेहमान आ गए हैं...और बाज़ार से लानेमे समय लगेगा...देर हो जायेगी..करके मै..."

विनीता ने लपक कर उसके हाथ से कटोरी लगभग छीन ली...और चीनी भर के पकडा दी..रूक्मिणी तब तक उसे ऊपरसे नीचेतक, बड़े ही गौरसे निहारती रही...कितनी सुंदर लग रही थी...ये लडकी...इतनी सुंदर दिखी हो,पहले,उसे याद नही आ रहा था...!

चीनी लेके रूक्मिणी रुक्सत हो गयी..घड़ी का काँटा सरकता रहा..साधे चार बजे...फिर पाँच बजे...फिर सात...और न जाने कब रात के ग्यारह.....

बाहर ज़ोरदार बूँदा-बांदी हो रही थी..काश ! काश ! निशा दीदी पास होतीं...! उनके गले लग वो खूब रो लेती...काश...! विनय उसे कल मिला ही नही होता..काश ! कल उसने विनय को अपने घर आने के लिए मना कर दिया होता॥! बेरहम वक़्त ! एक भी गलती माफ़ नही करता...! कभी नही करता...

अब उसे अगले दिन दफ्तर जाना मंज़ूर ना था..अब फिरसे कोई आस, न सहारा न साथ...सिर्फ़ अकेलापन...गहरी तनहाई...कैसे कटे जीवन? किसी के इंतज़ार में निगाहें दूर दूरतक जाके लौट आयेंगी...क्या करे अब वह? विनय को उसकी ज़िंदगी से खिलवाड़ करने की कौनसी सज़ा दिलवाए?

देखते ही देखते एक भयंकर कल्पना ने जन्म लिया...उसने एक ई मेल कम्पोज़ की...

"मै, विनीता शर्मा.....उम्र, ३७, कहना चाहती हूँ...कि......

क्रमश:

Sunday, August 2, 2009

याद आती रही...! ८

( पूर्व भाग: अपने अतीत के खयालों में खोयी विनीता,न जाने कब सो गई...)

जब झिलमिल परदों से छन के धूप उसकी आँखों पे पडी, तो उसके साथ,साथ उसकी ज़िंदगी, फिर एक बार जाग उठी...

अखबार वाले ने अखबार अन्दर खिसका दिया था..दरवाजा खोल उसने दूध की थैली अन्दर कर ली ..पीले गुलाब...! उसे फूलों के लिए फोन करना था...! झट पट फोन घुमाके ,पूरे चौबीस पीले गुलाबों का आर्डर उसने दे दिया...घरका पता समझाया...साथ ही कहा," एकेक फूल चुनके चाहिए...अधखिला...!"

हाँ...और आज वो ब्यूटी पार्लर ज़रूर जायेगी...वहाँ जाके शैंपू करायेगी..बाल निखर जायेंगे...pedicure, manicure,
facial ...सब कुछ करायेगी...उसे खूब निखर जाना है...सुंदर दिखना है...शायद विनय थोड़ी-सी देर क्यों न मिलके चला जाय...फिरभी उसके मनमे अपनी,एक ऐसी छवी बना दूँगी, जिसे वो ताउम्र भूल नही पायेगा...उसने सोचा...आगे पीछे कुछ भी हो जाय, उस शाम वो उसपे ऐसे बरसेगी, मानो किसी नगमे पे बरसता संगीत...!

वह पार्लर गयी...गुदानों में फूल सजे..अब घड़ी के काँटे की तरफ़ उसकी नज़र बार,बार घूम रही थी..विनयने उसे चार बजे का समय दिया था...!
एकबार फिर आदम क़द आईने के सामने खड़ी हुई...और खुदको न जाने कितनी बार निहारा...! सच...उसकी उम्र से मानो किसी ने दस साल चुरा लिए हों,ऐसा प्रतीत हो रहा था...!

जिस पुरूष ने उसे इतना तड़पाया था, इतना रुलाया था, इतनी वेदना पहुँचाई थी, उसी के लिए वह इतनी बेताब हुए चली जा रही थी...?विनीता, तू भी क्या मोम की बनी हुई है? अरे कहाँ तो तूने सोचा था, कि, गर कभी कभी वो सामने दिख गया तो एक चाँटा रसीद देगी...और अब ?
अरे...! बरसों तेरे सपनों में तकरीबन वह रोज़ आता रहा है...किन,किन रूपों में...कभी तेरा दूल्हा बन, तो कभी तेरे साथ समंदर के किनारे घुमते हुए, तो कभी तेरा हाथ अपने हाथमे पकड़, तेरी आँखों में गहराई से झाँकते हुए...इन सपनों से जब भी जागती तो कितनी उदास हो जाती थी तू...!

अब...! अब चंद लम्हों की खुशियाँ होंगी शायद ये....ज़्यादा दामन मत फैलाना....ज़्यादा उम्मीद मत रखना..फिर से पछताएगी...इन पल दो पलों से एक उम्र चुरा लेना...तेरे नसीब में यही एक शाम लिखी हो शायद...!

इतने में दरवाज़े की घंटी बजी...एक आख़री नज़र आईने पे डाल, उसने लपक के दरवाजा खोला...!

दरवाज़े पे विनय नही, दफ्तर की किरण खड़ी थी..! विनीता को देख कर उसने एक हल्कि-सी सीटी बजायी और बोली," हाय, हाय ! वारी जाऊँ...! गर बॉस देख ले तो, कैमरा के पीछे नही,आगे खड़ा कर दे...! क्या लग रही है...! कहाँ की तैय्यारी है...? मै तो तुझे पृथ्वी थिएटर ले जाने आयी थी...बड़ा अच्छा नाटक है...पर यहाँ तो कुछ और ही अंदाज़ नज़र आ रहा है ! ! बोल ना...क्या बात है...? वादा करती हूँ...किसी को नही बताउंगी ...!"

बातूनी किरण, बोले चली जा रही थी..बड़े साफ़ दिल की थी वह...हमेशा विनीता का भला चाहती रही थी...लेकिन इस वक़्त विनीता को उस पे बड़ी खिज आ रही थी...! बेवक़्त जो टपक पडी थी...!

"उफ़ ! किरण....कितनी बकबक करती है तू...! बता दूँगी, गर ऐसा कुछ हुआ तो, जैसा कि, तू सोच रही है...बड़े दिनों से वही घिसी-पिटी साडियाँ...या फिर जींस पहन के तंग आ चुकी थी..सो ये पहन ली.....एक कॉलेज के समय की सहेली आ रही है...उसके साथ कहीँ जा रही हूँ...," विनीता किरण को दफा करने के मूड में बोल पडी...उसने किरण को ना तो बैठने के लिए कहा ना चाय पूछी..! बेचारी किरण दरवाज़े परसे ही लौट गयी...

अब तक चार बज के दस मिनट हो चुके थे...विनीता को अब ख़याल आया,कि, उसने अपना नंबर तो विनय को दे दिया था...उसका नही लिया था...अब वह उसकी देरी की वजह भी जान नही सकेगी...! एकेक मिनट काटना मानो एकेक युग के बराबर लग रहा था...पाँच मिनट और कटे...वह कमरे के चक्कर कटे चली जा रही थी...और फिर एकबार घंटी बजी...

क्रमश: