Saturday, February 28, 2009

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.!.१

Sunday, October 21, 2007

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.....1

शीघ्र सवेरे कुछ साढ़े चार बजे,आशाकी आँखे इस तरह खुल जाती मानो किसीने अलार्म लगाके उसे जगाया हो। झट-से आँखों पे पानी छिड़क वो छत पे दौड़ती और सूर्योदय होनेका इंतज़ार करते हुए प्राणायाम भी करती। फिर नीचे अपनी छोटी-सी बगियामे आती। कोनेमेकी हिना ,बाज़ू मे जास्वंदी,चांदनी,मोतियाकी क्यारी, गेट के कमानपे चढी जूहीकी बेलें,उन्हीमे लिपटी हुई मधुमालती। हरीभरी बगिया। लोग पूछते, क्या डालती हो इन पौधों मे ? हमारे तो इतने अच्छे नही होते? प्यार! वो मुस्कुराके कहती।

हौले,हौले चिडियांचूँ,चूँ करने लगती।पेडों परके पत्तों की शबनम कोमल किरनोमे चमकने लगती! पँछी इस टहनी परसे उस टहनी पर फुदकने लगते। बगियाकी बाड्मे एक बुलबुलने छोटा -सा घोंसला बनाके अंडे दिए थे। वो रोज़ दूरहीसे झाँक कर उसमे देखती। खुदही क्यारियोंमेकी घाँस फूँस निकालती। फिर झट अन्दर भागती। अपनेको और कितने काम निपटाने हैं,इसका उसे होश आता

नहा धोकर बच्चों तथा पतीके लिए चाय नाश्ता बनाती। पती बैंक मे नौकरी करता था। वो स्वयम शिक्षिका। बच्चे डॉक्टरी की पढाई मे लगे हुए। कैसे दिन निकल शादी होकर आयी थी तब वो केवल बारहवी पास थी बाप शराबी था। माँ ने कैसे मेहनत कर के उसे पाला पोसा था। तब पती गराज मे नौकरी करता था।

शादी के बाद झोपड़ पट्टी मे रहने आयी। पड़ोस की भाभी ने एक हिन्दी माध्यम के स्कूलमे झाडू आदि करने वाली बाई की नौकरी दिलवा थी । बादमे उसी स्कूलकी मुख्याध्यापिकाके घर वो कपडे तथा बर्तन का काम भी कर ने लगी। पढ़ने का उसे शौक था। उसे उन्हों ने बाहर से बी ए करने की सलाह दी। वो अपने पतीके भी पीछे लग गयी। खाली समयमे पढ़ लो,पदवीधर बन जाओ,बाद मे बैंक की परीक्षाएँ देना,फायदेमे रहोगे।
धीरे,धीरे बात उसकी भी समझ मे आयी। कितनी मेहनत की थी दोनो ने! पढाई होकर,ठीक-से नौकरी लगनेतक बच्चों को जन्म न देनेका निर्णय लिया था दोनोने। पती को बैंक मे नौकरी लगी तब वो कितनी खुश हुई थी !

दयाकी दृष्टी सदाही रखना ! २

Sunday, October 21, 2007

दयाकी दृष्टी सदाही रखना...! २

और एक दिन बाप गुज़र जानेकी खबर आयी। उन दिनों वो गर्भवती भी थी। मायके जाकर अपनी माँ को अपने एक कमरे के घर मे ले आयी। पती को बैंक की ओरसे घर बनवानेके अथवा खरीदनेके लिए क़र्ज़ मिलने वाला था। दोनोने मिलकर घर ढूढ़ ना शुरू किया। शहर के ज़रा सस्ते इलाकेमे मे दो कमरे और छोटी-सी रसोई वाला,बैठा घर उन्हें मिल गया। आगे पीछे थोडी-सी जगह थी। दोनो बेहद खुश हुए। कमसे कम अब अपना बच्चा पत्रे के छत वाले, मिट्टी की दीवारोंवालें , घुटन भरे कमरेमे जन्म नही लेगा!
वो और उसकी माँ , दोनोही बेहद समझदारीसे घरखर्च चलाती । कर्जा चुकाना था। माँ नेभी अडोस पड़ोस के कपडे रफू कर देना,उधडा हुआ सी देना, बटन टांक देना, मसाले बना देना तो कभी मिठाई बना देना, इस तरह छोटे मोटे काम शुरू कर दिए। वो बेटीपर कतई बोझ नही बनना चाहती थी और उनका समयभी कट जाता था।
एक दिन आशाने कुतुहल वश उनसे पूछा,"माँ, मैं तेरी कोख से सिर्फ एकही ऑलाद कैसे हूँ? जबकी आसपास तुझ जैसों को ढेरों बच्चे देखती हूँ?"
माँ धीरेसे बोली,"सच बताऊ? मैंने चुपचाप जाके ओपरेशन करवा लिया था। किसीको कानोकान खबर नही होने दी थी। तेरा बाप और तेरी दादी"बेटा चाहिए "का शोर मचाके मेरी खूब पिटाई लगाते थे। मेहनत मैं करुँ,शराब तेरा बाप पिए, ज़्यादा बच्चों का पेट कौन भरता?बोहोत पिटाई खाई मैंने,लेकिन तुझे देख के जी गयी। तेरी दादी कहती,तेरे बाप की दूसरी शादी करा देंगी , लेकिन उस शराबी को फिर किसीने अपनी बेटी नही दी। "

दयाकी दृष्टी सदाही रखना..! 3

Sunday, October 21, 2007

दयाकी दृष्टी सदाही रखना..! 3

ये सुनकर उसका अपनी अशिक्षित माँ के प्रती आदर एकदम से बढ़ गया। कितने धीरज से ज़िंदगी का सामना किया था उस अनपढ़ औरत ने!
आशाके दिन पूरे हो गए। सरकारी अस्पताल मी उसका प्रसव हुआ। सबकुछ ठीक ठाक हो गया। नामकरण के समय पतीने कहा,"नाम मे कहीं तो 'राजा' होना चाहिए। यथानाम तथा गुण। मन से धन से वो राजा बनेगा। अंत मे "राजीव"नाम रखा और उसका राजू बन गया। सबकुछ कैसा मनमुताबिक चल रहा था। भगवान्! मेरे नसीब को कहीँ नज़र न लग जाये, कभी,कभी आशाके मनमे विचार आता।

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.! ४

Sunday, October 21, 2007

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.! ४

राजू दो सालका हुआ न था कि आशाके पैर फिर भारी हुए। उसे फिर लड़काही हुआ। वो थोडी-सी मायूस हुई। लडकी होती तो शायद आगे चलके सहेली बन गयी होती...... इस लड़केका नाम इन लोगोंने संजीव रखा। राजू-संजूकी जोड़ी!
उसने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलमे डाला। बच्चे आज्ञाकारी थे। माँ-बाप तथा दादीका हमेशा आदर करते। समय पर पढाई खेल कभी कभार हठ्भी, जो कभी पूरा किया जाता कभी नही। दिन पखेरू बनके सरकते रहे......

इस बीच उसने बी.एड.भी कर लिया। पतीने बैंकिंग की औरभी परीक्षाएँ दी तथा तरक़्क़ी पाई। राजू दसवी तथा बारहवी कक्षा तक बहुत बोहोत बढिया नमबरोंसे पास होता गया और उसे सहजही मेडिकल कॉलेज मे प्रवेश मिल गया।
जब संजू बारवी मे था तब आशा की माँ गुज़र गयी। सिर्फ सर्दी-खाँसी तथा तेज़ बुखार का निमित्त हुआ और क्या हो रहा है ये ध्यान मे आनेसे पहलेही उसके प्राण उड़ गए। न्युमोनिया का निदान तो बादमे हुआ।

बोहोत दिनोतक माँ की यादों मे उसकी पलके नम हो जाती। आशा स्कूलसे आती तो माँ चाय तैयार रखती। खाना तैयार रखती। सासकी इस चुस्ती पर उसका पतीभी खुश रहता। धीरे,धीरे खाली घरका ताला खोल के अन्दर जानेकी उसे आदत हो गयी।
संजूको भी बारहवी मे बोहोत अछे गुण मिले राजू के बाद वोभी मेडिकल कोलेजमे दाखिल हो गया। देखतेही देखते राजू एम्.बी.बी.एस.हो गया।
internship पूरी करके सर्जन भी बन गया। उसकी प्रगल्भ बुद्धीमत्ता की शोहरत शहरभर मे फ़ैल गयी और एक मशहूर प्राइवेट अस्पताल मे उसे नौकरी भी मिल गयी। इस दरमियाँ पतीके पीछे लगके उसने छतपे दो सुन्दरसे कमरे भी बनवा लिए थे। राजू संजूके ब्याह्के बाद तो ये आवश्यक ही होगा।
अपूर्ण

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.! ५

Sunday, October 21, 2007

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.! ५

अब राजूकी शादीके सपने वो देखने लगी। अपनेपर,इस घरपर,राजूको दिल दे सकनेवाली,प्यार करनेवाली लडकी वो तलाशने लगी। अव्वल तो उसने राजूको पूछ लिया कि उसने पहलेही किसीको पसंद तो नही कर रखा है। लेकिन वैसा कुछ नही था। एक दिन किसी समरोह्मे देखी लडकी उसे बड़ी पसंद आयी। उसने वहीं के वहीं थोडी बोहोत जानकारी हासिल की। लडकी दूसरे शेहेरसे आयी थी। उसके माँ-पिताभी उस समारोह मी थे। उसने खुद्ही लडकी की माँ को अपने मनकी बात बताई। लड़कीकी माँ को प्रस्ताव अच्छा लगा। दोनोने मिलकर लड़का-लडकी के बेमालूम मुलाक़ात का प्लान बनाया। रविवारके रोज़ लडकी तथा उसके माता पिता आशा के घर आये। राजू घरपरही ही था। सब एक-दूसरेके साथ मिलजुल कर हँसे-बोले। लडकी सुन्दर थी,घरंदाज़ दिख रही थी,और बयोलोजी लेकर एम्.एससी.किया था।
जब वे लोग चले गए तो आशा ने धीरे से बात छेड़ी। राजू चकित होकर बोला,"माँ!!तुमभी क्या चीज़ हो! क्या बेमालूम अभिनय किया! पहले लड़कीको तो पूछो। और इसके अलावा हमे कुछ बार मिलना पड़ेगा तभी कुछ निर्णय होगा!"
"एकदम मंज़ूर! मैं लड़कीकी माँ को वैसी खबर देती हूँ। हमने पहलेसेही वैसा तय किया था॥ लड़कीको पूछ्के,मतलब माया को पूछ के वो मुझे बताएंगी। फिर तुम्हे जैसा समय हो,जब ठीक लगे,जहाँ ठीक लगे, मिल लेना, बातें कर लेना,"आशा खुश होकर बोली। उसे लड़कीका बोहोत प्यारा लगा,'माया'।
राजू और माया एक -दूसरेसे आनेवाले दिनोमे मिले। कभी होटल मे तो कभी तालाब के किनारे। राजीवने अपने कामका स्वरूप मायाको समझाया। उसकी व्यस्तता समझाई। रात-बेरात आपातकालीन कॉल आते हैं,आदि,आदि सब कुछ। अंत मे दोनोने विवाह का निर्णय लिया। आशा हवामे उड़ने लगी। बिलकुल मर्जीके मुताबिक बहू जो आ रही थी।
झटपट मंगनी हुई और फिर ब्याह्भी। कुछ दिन छुट्टी लेकर राजीव और माया हनीमून पेभी हो आये। बाद मे माया ने भी घरवालोंकी सलाह्से नौकरीकी तलाश शुरू की और उसे एक कॉलेज से कॉल आया,वहीँ पर उसने फुल टाइम के बदले पार्ट टाइम नौकरी स्वीकार की,अन्यथा घरमे सास पर कामका पूरा ही बोझ पड़ता।
अपूर्ण

दयाकी दृष्टी सदाही रखना ! ६

दयाकी दृष्टी सदाही रखना ! ६

साल भरमे उनके द्वारपर एक और खुशीने दस्तक दी। मायके पैर भरी हो गए। आशा फिर सपनोके दुनियामे खो गयी। मैं ऐसा करूंगी,मैं वैसा करूंगी,मायाकी सहेलियोंको बुलाऊंगी ,मायाकी खूब खबर रखूंगी। इश्वर मेरे आंचल मेभी समां न सके इतना भर भरके दान तू मुझे दे रहा है। बच्चे अलग रहने चले जाते है,बूढे माँ-बाप निराधार हो जाते है,पोते,पोतियोंका लाड प्यार करनेकी किस्मत कितनोको मिलती है?वो बार इश्वर के चरणों मे नतमस्तक हो जाती।
माया को यथासमय लडकी हुई। आशाको लड़कीका बेहद शौक था। लड़कियोंको सजाने-सवारनेका कुछ औरही मज़ा होता है। चलने लगेगी तो रुनझुन पाजेब बजेंगे। क्या करू और क्या न ,ऐसी उसकी हालत हो गयी। नामों की सूची बनती गयी। 'अस्मिता'नाम सबको अच्छा लगा।
नामकरण की तैय्यारी,फ़ोन,दिन महीने सरकते गए। अस्मिता बैठने लगी, चलने लगी, पाज़ेब बजने लगे,तोतले बोल और किलकारियाँ घरमे गूँजने लगीं.....

अबतक आशा तथा उसका पती सेवानिवृत्त हो चुके थे। फिर अस्मिताकी नर्सरी ,उसका खान पान,उसे पार्क मे घुमाना, लोरी गा कर सुलाना,सारा,सारा सुख वो भोग रही थी.......

इस सबके चलते एक दिन संजीव अपनी माँ को बताया कि उसे एक लडकी पसंद आयी है। उसीके कॉलेज मे पढ़ ने वाली लेकिन उसकी जूनियर । संजू बालविभागमे पोस्ट ग्राजुएशन कर रहा था। आशाने किसी भी किस्म की आपत्ती नही दिखाई,बल्कि खुद लड़किवालोंको आमंत्रित किया। लडकी के माँ-बाप दोनोही डाक्टर थे। लडकी स्मार्ट थी। उसकी एम्.बी.बी.एस के बादकी internship रह गयी थी। internship के बाद ब्याह तय हुआ।
अपूर्ण

दयाकी दृष्टी सदाही रखना ! ७

Sunday, October 21, 2007

दयाकी दृष्टी सदाही रखना ! ७

आशाने एक पार्ट time और एक फुल time ऐसी दो औरते कामके लिया रखही ली थी। अस्मिता दादीका आँचल नही छोड़ती थी।

कुछ ही दिनोंमे मायाको बेटा हुआ। लड़केके नामोंकी लिस्ट बनी। 'कुशल' नाम सभीको अच्छा लगा। नामकरण हो गया। अस्मिता के सामने अगर आशा कुशलके लाड करती तो वो तूफान मचा देती। आशा और उसका पती दोनो तृप्त थे। ज़िंदगी उन्हें इतना कुछ देगी ऐसा कभी सोचाही नही था।
यथासमय संजूकाभी ब्याह हो गया। बादमे शुभदाभी बालरोग विशेषज्ञ हो गयी और उसकाभी एक विशिष्ट दैनिक क्रम शुरू हो गया। संजू-शुभदा उसी अस्पतालमे काम करने लगे जहाँ राजू करता था। बच्चे,बहुएँ आपसमे हिलमिलकर रहते, आशाने सबको एक डोरमे बाँध रखा था। सबने मिलकर घरको अन्दर बाहरसे सुन्दर बना रखा था। और फिर शुभदानेभी खुश खबरी सुनाई। उसे जुडवाँ बच्चे हुए। दोनो लड़के। इस कारण अस्मिता सभीकी औरभी लाडली हो गयी।
आशा हमेशा "दयाकी दृष्टी सदाही रखना..."गाना गुनगुनाया करती। कई बार राजू-संजू जब वो रसोयीमे होती और ये गाना गुनगुना रही होती तो उसके गलेमे बाहें डालकर कहते,"माँ,ऊपरवालेकी दया तो हैही लेकिन तेरी मेहनत कई गुना ज्यादा। उसके बिना ये दिन हमे देखने कोही नही मिलते।"
अब भी उसके कान्धोंको कोई स्पर्श कर रहा था। "राजू?संजू?" वो बुदबुदा रही थी।
"माजी!मैं लीलाबाई!चलिए,मैं आपको बाथरूम ले चलती हूँ। कुल्ला कीजिए,फिर चाय लीजिये,"व्रुधाश्रम मे खास आशाके लिए तैनात की गयी लीलाबाईने कहा।
"लीलाबाई? तू कौन??राजू,संजू कहाँ हैं??अभी तो मुझे पीछेसे आकर गले लगाया। कहाँ गए?,"आशाने कुछ न समझते हुए कहा।
"माँ जी,पहले उठिए तो। राजू, संजूको बादमे बुलाएँगे,"लीलाबाईने कहा।
नियतीकी कैसी विडम्बना थी! आशा वास्तव और कल्पना इसमेका फासला पूरी तरह भूल गयी थी। पिछले दो सालोंसे इस आश्रम मे पडी हुई थी। उसे तो आगे पढ़नेको भी नही मिला था। गराजमे काम करने वाले पतीने इजाज़त दीही नही थी। पती को पढ़नेका बिलकुल शौक नही था। उनको दो लड़के हुए थे ये वस्तुथिति थी। दोनो डाक्टर बने थे येभी वस्तुस्थिति । लेकिन किसतरह?ये अलग कहानी थी.......

आशा जिस स्कूलमे सफाई का काम करती थी, वहाँ की मुख्याध्यापिकाने उसके बच्चो की स्मार्टनेस देख ली और उसे एक अपत्यहीन ,बोहोत दौलतमंद,लेकिन उतनीही नेकदिल पारसी औरतके पास ले गयी।
"मैं बच्चों का सब खर्च करुँगी उन्हें बोहोत अच्छे बोर्डिंग स्कूलमे भरती करवा दूँगी बच्चे बोहोत होशियार है। उनका भविष्य उज्वल हो जाएगा। तुम्हे पछताना नही पड़ेगा,"उस दयालु पारसी औरत,मिसेज़ सेठना ने आशासे कहा।

आशाको क्या कहा जाय कुछ सूझ नही रहा था। क्या अपने पतीको पसंद आएगा ये सब? उनको छोडो, उसका मन लगेगा इन कलेजोंके टुकडों के बिना? वो स्तब्ध खडी हो गयी। बच्चे उसका आँचल थामे खडे थे। उस पारसी औरतका बड़ा-सा बंगला फटी-फटी आँखों से देख रहे थे।
अपूर्ण

1 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari said...

बढ़िया है, जारी रखें.

एक सुझाव देना चाहता था कि पोस्ट करने के पहले थोड़ा अगर एडिट कर लें तो जो दो शब्द आपस में जुड़ गये हैं-उन्हें ठीक किया जा सकता है. पठनीयता सरल हो जायेगी.

सुझाव मात्र है, कृप्या अन्यथा न लें.

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! ८

Sunday, October 28, 2007

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! ८

मुख्याध्यापिकाने कहा,"आशा, बच्चों का इसीमे कल्याण है। ऐसा सुनहरा अवसर इन्हें फिरसे नही मिलेगा। तुम दोनो मिलकर इनको कितना पढा लोगे?और मिसेज़ सेठना अगर इसी शहर मे किसी बडे स्कूल मी प्रवेश दिला दें, सारा खर्चा कर दें, फिरभी अगर तुम्हारे बच्चों के मित्रों को असली स्थिती का पता चलेगा तब इनमे बेहद हीनभाव भर जाएगा। ज्यादा सोंचो मत। "हाँ" कर दो। "

आशा ने "हाँ" तो भर दी लेकिन घर आकर वो खूब रोई । बच्चे उससे चिपक कर बैठे रहे। कुछ देर बाद आँसूं की धाराएँ रूक गयी। वो अपलक टपरी के बाहर उड़नेवाले कचरे को देखती रही। उसमे का काफी कचरा पास ही मे बहनेवाली खुली नाली मे उड़कर गिर रहा था........

हाँ!! उसका बंगला,उसका सपनोंका बंगला,उसका अपना बंगला, कभी अस्तित्व मे थाही नही। वो हिना, वो जूही का मंडुआ ,बाम्बू का जमघट, उससे लिपटी मधुमालती, वो बगिया जिसमे पँछी शबनम चुगते थे,जिस बंगले की छतसे वो सूर्योदय निहारती ,कुछ,कुछ्भी तो नही था!

बच्चे गए। उससे पहले मिसेस सेठना ने उनके लिए अंग्रेजीकी ट्यूशन लगवाकर बोहोत अच्छी तैय्यारी करवा ली। उनके लिए बढिया कपडे सिलवाये! सब तेहज़ीब सिखलाई। एक हिल स्टेशन पे खुद्की जिम्मेदारी पे प्रवेश दिलवा दिया। वहाँ के मुख्याध्यापक तथा trustees उनके अच्छे परिचित थे। सब ने सहयोग किया।

बच्चों पर शुरू मे खास ध्यान दिया गया। मिसेस सेठना ने पत्रव्यवहार के लिए अपना पता दिया। अपने माँ-बाप देश के दुसरे कोने मे रहते हैं, तथा उनकी तबादले की नौकरी है, इसलिए हम सेठना आंटी के घर जाएँगे तथा हमारे ममी-पापा हमे वहीं मिलने आएँगे, यही सब क्लास के बच्चों को कहने की हिदायत दी गयी। शुरुमे बच्चे भौंचक्के से हो गए, लेकिन धीरे,धीरे उन्हें आदत हो गयी।
अपूर्ण

1 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari said...

सही है, जारी रखो. कोशिश हो एक पूरा सारगर्भित अंश एक कणिका में रहे और अगला सस्पेंश अगली कणिका का इन्तजार करवाये. सुझाव मात्र है, अन्यथा न लें.

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! ९

Sunday, October 28, 2007

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! ९

स्कूलमे साफ-सुथरे स्नानगृह,समयपे खाना (माँ के हाथों का स्वाद न सही),टेबल कुर्सियाँ , सोनेके लिए पलंग, पढ़ईके लिए हरेक को स्वतंत्र डेस्क बिजलीकी सुविधा,अलग,अलग,खेल,पहाडोंका सौंदर्य,ये सब धीरे,धीरे बच्चों को आकर्षित करने लगा।


पहली बार बार छुट्टीयों मे बच्चे मिसेस सेठना के पास आये और फिर वहाँसे माँ के पास मिलने गए तो ,क्या क्या कहे क्या न कहें,ऐसी उनकी हालत हो गयी थी। लेकिन रातमे सेठना आंटी के घर रहनेका हठ करने लगे। वहाँ बाथरूम कितने साफ-सुथरे हैं,कमरेसे लगे हैं, गरम पानी जब चाहो नलकेमे आ जाता है। फिर अंटी सोनेके लिए कमराभी अलग देंगी,नरम,नरम गद्दे होंगे, टी.वी.होगा,कार्टून देखने को मिलेंगे, हम कल फिर आएंगे ना,आदी कारण बता कर बच्चे रात मे लॉट गए। आशा का दिल छलनी हो गया। उनका विश्व बदल जाएगा,इस बातकी उसको एक झलक मिल गयी।


छुट्टियाँ समाप्त होने आयीं तब उसने बच्चों के लिए लड़दो,चकली,चिवडा आदी चीज़ें बनाईं। पाकेट बनाकर मिसेस सेठना के घर ले गयी। बच्चों ने खोलके देखा तो कहने लगे,माँ,आंटी ने हमे बोहोत कुछ दिया है। ये देखो,केक,बिस्किट और ना जाने क्या,क्या!!"


इतनेमे मिसेस सेठना वहाँ पोहोंच गयी और आशा का उदास -सा चेहरा और उसके हाथ की पुडियाँ देखकर जान गयी। तुंरत अन्दर जाके कुछ डिब्बे ले आयीं और बोलीं," ये चीज़ें तुम्हारे लिए तुम्हारी मान ने अपने हाथोंसे बनाई हैं। ये बोहोत अच्छी होंगी । रख लो इन्हें। "

क्रमशः

दयाकी दृष्टी: सदाही रखना ! १०

Monday, October 29, 2007

दयाकी दृष्टी: सदाही रखना ! १०

(कुछ जगाहोपे एडिटिंग नही हो पाई है....क्षमा चाहती हूँ)

ऐसी कितनीही छुट्टियाँ आयी और गयी। आशा बच्चों का साथ पाने के लिए तरसती रही और बच्चे उसे तरसाते रहे। माँ का त्याग उनके समझ मे आयाही नही,बल्कि माँ-बापने अपनी जिम्मेदारी झटक के सेठना आंटी पे डाल दी,यही बात कही उनके मनमे घर कर गयी। बारहवी के बाद राजीव मेडिकल कॉलेज मी दाखिल हो गया। मिसेस सेठना सारा खर्च उठाती रही। बादमे संजूभी मेडिकल कॉलेज मी दाखिल हो गया।
पोस्ट ग्राजुएशन के लिए पहले राजू और फिर संजू इस तरह दोनो ही अमेरिका चले गए। मिसेस सेठ्नाने फिर उनपे बोहोत खर्च किया।

राजू एअरपोर्ट चलने से पहले दोनो पती-पत्नी राजूको विदा करने मिसेस सेठना के घर गए। आशाकी आँखों से पानी रोके नही रूक रहा था। राजूको गुस्सा आया,बोला,"माँ लोगों के बच्चे परदेस जाते हैं तो वे मिठाई बाँटते हैं, और यहाँ तुम हो कि रोये चली जा रही हो!!अरे मैं हमेशाके लिए थोडेही जा रहा हूँ??लॉट कर आऊँगा। एक बार कमाने लगूँगा तो अच्छा घर बना सकेंगे, और कितनी सारी चीजे कर सकेंगे। ज़रा धीरज रखो।"
"बेटा,अब तुम्हारीही राह तकती रहूँगी अपने बच्चों से बिछड़ कर एक माँ के कलेजेपे क्या गुज़रती है,तुम नही समझोगे ,"आशा आँचल से आँसू पोंछते हुए बोली।
अपूर्ण

दयाकी दृष्टी ! ११

बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूल मे भेजकर , अमरीका जानेकी इजाज़त देकर कोई गलती तो नही की,बार,बार उसके मनमे आने लगा। अब बोहोत देर हो चुकी थी। उसने हताश निगाहोंसे मिसेस सेठना को देखा। बच्चों को उच् शिक्षण उपलब्ध कर देनेमे उनकी कोईभी खुदगर्ज़ी नही थी । आशा ये अच्छी तरह जानती थी। मिसेस सेठना आगे आयी,उसके हाथ थामे,कंधे थपथपाए ,धीरज दिया। राजू चला गया। सात समंदर पार। अपनी माकी पोहोंच से बोहोत दूर।

आशा और उसका पती फिर एकबार अपनी झोपडीमे एकाकी जीवन जीने लगे। दिनमे स्कूलका काम, मुख्याधापिकाके घरके बर्तन-कपडे,फिर खुद्के घरका काम। उसके पतीको उसके मनकी दशा दिखती थी । गराजसे घर आते समय कभी कभार वो उसके लिए गजरा लाता,कभी बडे, तो कभी ब्लाऊज़ पीस।

दो साल बाद संजूभी अमरीका चला गया । आशा और उसके पतीकी दिनचर्या वैसीही चलती रही। कभी कभी कोई ग्राहक खुश होके उसे टिप देता तो वो आशाके लिए साडी ले आता। भगवान् की दयासे उसे कोई व्यसन नही था। एक बोहोत दिनों तक वो कुछ नही लाया। दीवाली पास थी। थोडी बोहोत मिठाई,नमकीन बनाते समय आशाको छोटे,छोटे राजू-संजू याद आ रहे थे। लड्डू, चकली,चेवडा,गुजिया बनाते समय कैसी ललचाई निगाहोंसे इन सब चीजों को देखते रहते, उससे चिपक कर बैठे रहते।

आँचल से आँसू पोंछते ,पोंछते वो यादों मे खो गयी थी । पती कब पीछे आके खड़ा हो गया, उसे पताभी नही चला। उसने हल्केसे आशाके हाथोंमे एक गुलाबी कागज़ की पुडिया दी तथा एक थैली पकडाई। पुडियामे सोनेका मंगलसूत्र था, थैलीमे ज़री की साडी.......!
आशा बेहद खुश हो उठी! मुद्दतों बाद उसके चेहरेपे हँसी छलकी!! वोभी उठी..... उसने एक बक्सा खोला.... उसमेसे एक थैली निकली, जिसमे अपनी तन्ख्वाह्से बचाके अपने पतीके लिए खरीदे हुए कपडे थे.... टीचर्स ने समय,समय पे दी हुई टिप्स्मेसे खरीदी हुई सोनेकी चेन थी.....
पतीकोभी बेहद ख़ुशी हुई। एक अरसे बाद दोनो आपसमे बैठके बतियाते रहे, वो अपने ग्राह्कोके बारेमे बताता रहा, वो अपने स्कूलके बारेमे बताती रही।

समय बीतता गया। बच्चे शुरुमे मिसेस सेठनाके पतेपे ख़त भेजते रहते थे। आहिस्ता,आहिस्ता खतोंकी संख्या कम होती गयी और फिर तकरीबन बंद-सी हो गयी। फ़ोन आते, माँ-बापके बारेमे पूछताछ होती। एक बार मिसेस सेठ्नाने आशाको घर बुलवाया और उसके हाथमे एक लिफाफा पकडा के कहा," आशा ये पैसे है,तेरे बच्चों ने मेरे बैंक मे तेरे लिए ट्रान्सफर किये थे। रख ले। तेरे बच्चे एहसान फरामोश नही निकलेंगे। तुझे नही भूलेंगे।"
अपूर्ण"

1 टिप्पणियाँ:

"अर्श" said...

bahot hi saralata se likha hai magar ye utne hi taralata se dil ki gaharai tak jata raha padhatewakt ... bahot khub likha hai aapne..

दयाकी दृष्टी...! १२

Thursday, December 20, 2007

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! १२

आशा पैसे लेके घर आयी। उसने वो लिफाफा वैसाही रख दिया। बहुओंके लिए कुछ लेगी कभी सोंचके। इसी तरह कुछ समय और बीत गया। एक दिन सहजही मिसेस सेठना का हालचाल पूछने वो उनके घर पोहोंच गयी। मिसेस सेठना हमेशा बडेही अपनेपन से उससे मिलती। तभी उनका फ़ोन बजा, उनकी बातों परसे आशा समझ गयी कि फ़ोन राजूका है।
कुछ समय बाद मिसेस सेठना गंभीर हो गयी और सिर्फ"हूँ,हूँ" ऐसा कुछ बोलती रही। फिर उन्होंने आशा को फ़ोन पकडाया और खुद सोफेपे बैठ गयीं......
मुद्दतों बाद आशा राजूकी आवाज़ सुननेवाली थी। "हेलो " कहते,कह्तेही उसकी आँखें और गला दोनोही भर आये.....और फिर वो खबर उसके कानोपे टकराई ........
राजूने शादी कर ली थी, वहीँ की एक हिन्दुस्तानी लड़कीसे........ वहीँ बसनेका निर्णय ले लिया था। वो अपनी माको नियमसे पैसे भेजता रहेगा..... । कुछ देर बाद आशाको सुनाई देना बंद हो गया.......
उसने फ़ोन रख दिया। सुन्न-सी होके वो खडी रह गयी। मिसेस सेठना ने उसे अपने पास बिठा लिया। उनकी आँखों मेभी आँसू थे।
"आशा ,मैं तेरी बोहोत बड़ी गुनाहगार हूँ । मैं खुदको कभी माफ़ नही कर पाऊँगी । बच्चे ऐसा बर्ताव करेंगे इसकी मुझे ज़राभी कल्पना होती तो मैं उन्हें परदेस नही भेजती,"बोलते,बोलते वो उठ खडी हुई।
" राजूने सिर्फ शादीही नही की बल्की अपनी पत्नी तथा उसके घरवालोंको बताया कि उसके माँ-बाप बचपन मेही मर चुके हैं! मुझे....मुझे कह रहा था कि मैं.....मैं इस बातमे साझेदार बनूँ!!शेम ऑन हिम!!भगवान् मुझे कभी क्षमा नही करेंगे....!ये मेरे हाथोंसे क्या हो गया?"

वो अब ज़ोर ज़ोर से रो रही थीं। चीखती जा रही थीं।आशाका सारा शरीर बधीर हो गया था। वो क्या सुन रही थी? उसके बेटेने उसे जीते जी मार दिया था??उसे अपने गरीब माँ-बापकी शर्म आती थी??और उसने सारी उम्र उसके इन्तेज़ारमे बिता दी थी? ममताका गला घोंट,घोंटके एकेक दिन काटा था!

अंतमे जब वो घर लौटनेके लिए खडी हुई तो उसकी दशा देख कर मिसेस सेठ्नाने अपनी कारसे उसे बस्तीमे छुड़वा दिया। झोंपडीमे आके वो कहीँ दूर शून्यमे ताकती रही। बाहर बस्तीमेके बच्चे खेल रहे थे। उसका आँगन बरसोंसे सूना था। वैसाही रहनेवाला था........
बस्तीके कितनेही लोग उससे जलते थे, लेकिन वो अपने सीनेकी आग किसे बताती??ज़िंदगी ने कैसे,कैसे मोड़ लेके उसे ऐसा अकेला कर डाला था! उसके कान मे कभी उसके छुटकोके स्वर गूँजते तो कभी आँखोंसे रिमझिम सपने झरते। उसका पती जब घर आया तो उसने मनका सारा गुबार निकला, खूब रोई। पती एकदम खामोश हो गया। फिर कुछ देर बाद बोला,"सच अगर तेरी बात सुनी होती,हम पढ़ लिख गए होते तो अपनेही बलबूतेपे बच्चे पढे होते। जोभी पढे होते, ये समय आताही नही।" आशाने कुछ जवाब दिया नही। उस रात दोनोही खाली पेट ही सो गए। सो गए केवल कहनेके लिए, आशाकी आँखोंसे नींद कोसों दूर थी।
अपूर्ण

1 टिप्पणियाँ:

उन्मुक्त said...

लेखन में भावनाओं का उफान रहता है।
क्या किसी फिल्म या टीवी जगत के लोगों ने कहानियों को पढ़ा है। कभी उन्हें भी पढ़वा कर देखिये। शायद कोई सीरियल या फिल्म के लिये ले लें।

दयाकी दृष्टी,,,,१३

Wednesday, January 23, 2008

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! १३

फिर दिन महीने साल खिसकने लगे। इस प्रसंग के बाद आशा एकदम बुढ़िया-सी गयी। बेचारा उसका पती फिरभी उसके लिए गजरे, बडे, कपडे लाता गया। एक दी वो उससे बोला,"मैं आज जल्दी आऊँगा। हम पिक्चर देखने चलेंगे। तू तैयार रहना। "
उसकी कतई इच्छा नही थी। फिरभी वो तैयार होके बैठ गयी। इतनेमे उसने देखा,बस्तीके लोग, बच्चे, मेन रोड की और भागे चले जा रहे थे। पता नही क्या है, उसके मनमे आया, फिर वो भी उस तरफ चल डी। उसे आते देख भीड़ थोडी हटने लगी। अपघात???किसका??तभी उसे कुछ अंतरपर पडा गजरा दिखा, बिखरे हुए आलू बडे दिखे, टूटी हुई साइकल दिखी और वो बेहोश हो गयी।
जब होशमे आयी ,तो अपनी टपरी मे थी। टपरी के बाहर सफ़ेद कपडेमे लिपटा उसका सुहाग पडा था। साथ मिसेस सेठना और मुख्याध्यापिका भी थी। अन्तिम सफर की तैय्यारियाँ हो रहीं थीं। पंडित कुछ कर रहा था, कुछ-कुछ बोल रहा था। फिर सब ख़त्म हो गया। उसका जीवनसाथी भी उस छोड़ किसी अनजान सफरपे निकल पडा था। वो फूट फूट के रो पडी।
इसके बाद वो पगला-सी गयी। कभी कामपे जाती थी तो कभी नही। दिन,महीनोंकी गिनती उसे रही नही। अडोस-पड़ोस का कोई उसे खिला देता,नलकेपे ले जाके उसे नेहला देता, तथा कभी कभार कंघी कर देता। एक दिन ऐसीही अवस्थामे वो अपने झोंपडेसे बाहर निकली। अँधेरा था। किसी चीज़ से ठोकर खाके गिर पडी और गिरते समय जब चीखी तो अडोस-पड़ोस के लोग दौडे। उसे अस्पताल ले जाया गया। मिसेस सेठना और मुख्याध्यापिका को खबर दी गयी। दोनोही तुरंत भागी चली आयी। मिसेस सेठनाने खर्च की सारी ज़िम्मेदारी उठा ली।

सुबह जब उसे आधा-अधूरा होश आया तब वो कुछ बुदबुदा रही थी, किसीको बुला रही थी। डाक्टर के अनुसार वो बेहद कमज़ोर तो होही गयी थी,उसके मस्तिष्क पेभी भारी सदमा पोह्चा था। उसके लिए अकेले झोंपड़े मे रहना खतरेसे खाली नही था......

सरपर का ज़ख्म ठीक होनेके बाद मिसेस सेठना ने उसे वृद्धाश्रम मे रखनेका निर्णय लिया। उन्होने आश्रम को डोनेशन भी दिया, लीलाबाई नामकी एक आया आशाकी खिदमत मे रखवा दी। एक पहचानवाले डाक्टर को रोज़ शाम क्लिनिक जानेसे पहले एक बार आशाको चेक करनेकी विनती की। बेचारी मिसेस सेठना, आशापे पडी आपत्तीके लिए खुदको ही ज़िम्मेदार ठहराती रही।

आशा कुछ रोज़ बाद घूमने फिरने लगी,लेकिन वो कहाँ है ये उसे समझमे आना बंद हो गया। स्पप्न और सत्यके बीछ्का अंतर मिटता चला गया। रोज़ सवेरे वो लीलाबाई से कहती,"मुझे बगियामे ले चल",और रोजही वहाँ आके कहती,"मेरी जूही की बेल कहाँ है??मोतियाभी दिख नही रहा!!मेरे बगीचेका किसने सत्यानास किया???"शामको राजू-संजू आएँगे तो मैं उनसे कहूँगी मेरी बगिया फिरसे ठीक कर दो।"
क्रमशः

दयाकी दृष्टी सदाही रखना ! १४

Wednesday, January 23, 2008

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! १४

रोज़ शामको आशा लीलाबाई से पूछती,"अभीतक राजू-संजू,माया- शुभदा, कोयीभी नही आया???बच्चों की आवाजें नही आ रही???"फिर ,"अस्मिता,अस्मिता,आजा तो...देख मैं लड्डू दूँगी तुझे,"इसतरह पुकारती रहती....

माया-शुभदा,अस्मिता....ये सब उसकी ज़िन्दगीमे कभी आयीही नही,इसका होश कब था उसे???कभी वो अपनेआपसेही बुदबुदाती,हाथ जोड़कर प्रणाम करती,तथा लीलाबाई से कहती,"ईश्वरकी कितनी कृपा है मुझपे! माँगा हुआ सब मिला,जो नही माँगा वोभी उस दयावान ने दे दिया। ऐसे जान न्योछावर करने वाले बच्चे, ऐसी हिलमिलके रहनेवाली बहुए, इतने प्यारे पोते-पोती,बता ऐसा सौभाग्य कितने लोगोको मिलता है??"

कई बार लीलाबाई अपने पल्लूसे आँखे पोंछती। उसके तो बच्चे ही नही थे। उसके मनमे आता, इस दुखियारी के जीवनसे तो मेरा जीवन कहीं बेहतर!बच्चे होकर इसने क्या पाया??और वोभी उन्हें इतना पढा लिखाकर??
और एक दिन मिसेस सेठना के घर संजू अचानक आ धमका...!!उनके पैरोपे पड़ गया। सिसक सिसक कर रोने लगा। मिसेस सेठना अब काफी बूढी हो गयी थी। उन्हें संजूको पहचानने मे समय लगा।
क्रमशः

दयाकी दृष्टी सदाही रखना ! १५ ( अन्तिम)

Friday, January 25, 2008

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! १५

"आंटी, मुझसे बोहोत बड़ी भूल हो गयी। माफीके काबिल नही हूँ,फिरभी माफी माँगता हूँ। मैं भारत लॉट आया हूँ। अब माँ बापके साथ ही रहूँगा उन्हें सुखी रखूँगा,कमसे कम कोशिश करूँगा,"संजू रो-रोके बोल रहा था।
मिसेस सेठना ने उसे बीच मे घटी सारे घटनाओका ब्योरा सुनाया,फिर पूछा,"तुम्हारी भूल तुम्हारे ध्यान मे कैसे आयी?"
"आंटी, वहाँ पर एक वृद्धाश्रम मे मुझे विज़िट पे बुलाया था। वहाँ ऐसे कई जोड़े रहते है। दोनो साथ,साथ होते है तबतक खुशभी होते है। उस दिन एक भारतीय स्त्री मुझे मिली। माँ के उम्र की होगी। पगला-सी गयी थी। मेरा हाथ छोड़ने को तैयार नही थी।
"मेरे बच्चो को मरे पास ले लाओ। ये देखो, ये पता है। यहाँ के लोग उन्हें बुलाते ही नही। कोई मेरी बात ही नही सुनता है,बेचारी रो-रोके बोल रही थी।
मैंने आश्रम मे तलाश की तो पता चला कि उसके बच्चे आनाही नही चाहते। पैसे भेज देते है। वीक एंड पे घूमने चले जाते है। मेरी आखोंके सामने मेरी माँ आ गयी। मुझ पर मानो बिजली-सी बरस पडी। मैंने उसी पल भारत लॉट नेका निर्णय ले लिया। ब्याह तो कियाही नही था, इसलिए किसीके सलाह मश्वरेकी ज़रूरत नही थी। आंटी मुझे अभी,इसीवक्त माके पास ले चलिए। "
दोनो निकल ही रहे कि आश्रमसे फ़ोन आया,आशाकी तबियत बोहोत खराब है। वो लोग पोहोचे तबतक मुख्याध्यापिका भी पोहोच गयी थी। डाक्टर भी वही थे। संजूको किसीने पहचाना नही। मिसेस सेठना ने परिचय करवाया। लीलाबाई आँखे पोंछते हुए बोली,"आज सुबह्से कुछ नही खाया पिया। बस,राजू-संजू आएँगे तभी लूँगी, यही कहती रहती है।"
मिसेस सेठना अपने साथ मोसंबी लाईं थीं ..... लीलाबाई को झट से रस निकालने को कहा। ड्रिप लगी हुई थी। मिसेस सेठना ने डाक्टर से धीमी आवाज़ मे कुछ कहा ......उन्होने गर्दन हिलाई...... संजूकी आँखों से आँसू बह रहे थे। उसने माका एक हाथ पकडा, दूसरा डाक्टर ने।
"माँ! देख हम आ गए है। अब ये रस लेले, वो बोला। आशाने संजूके हाथों रस ले लिया। उसके होंठ कुछ बुदबुदाने लगे। सबने एक दूसरेकी और प्रश्नार्थक दृष्टी से देखा। लीलाबाई बोली ,"वो कह रही है,'दयाकी दृष्टी सदाही रखना,'जो हमेशा गाती रहती है।" आसपास खडे लोगोकी आँखे भर आयीं........ संजू तो लौट ही आया था, डाक्टर के रूपमे राजूभी मिल गया।

समाप्त ।


धन्यवाद!!

Wednesday, February 18, 2009

कब होगा अंत ?.(अन्तिम)

अग्निशामक दल, अम्ब्युलंस, नेताओं की गाडियाँ....इन सभीके बजते हुए सायरन....भीड़ को काबू मे लानेका यत्न करते पुलिस कर्मचारी....जख्मियों को ले जाती पुलिस, उनमे ख़ुद ज़ख्मी हुए पुलिसकर्मी भी थे, जो अपने बहते खूनकी परवाह किए बिना जुटे हुए थे...... एक सुरक्षा कर्मी , किसी ज़ख्मी व्यक्तिको उठाते हुए स्वयं बेहोश हो गिर गया......चंद पलोंबाद एक अन्य साथीने उसे मृत पाया और खींचके एक ओर कर दिया , शायद उस मृत साथीसे उसके मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहे होंगे, क्योंकि ,कुछ समय वो दौड़ भाग करते हुएभी रोता रहा ..... इनके अलावा अग्निशामक दलके कर्मचारी....अम्ब्युलंस से उतरे कर्मचारी....एक सीमाके परे, उन्हें सहायता करनेमे लगे कुछ स्वयमसेवक...और कुछ सिर्फ़ दर्शक....काफ़ी सारी प्रेस की गाडियाँ...अन्य इलाकोंसे आती खबरें.....शोर, धुँआ, बंदूकों से छूट रही गोलियों की आवाजें.....मोबाइल्पे चिपके लोग, या प्रेस के नुमाइंदे...टीवी कैमरे .....

एक ज़ख्मी व्यक्ती, जिसका हाथ शायद गोलियों से या बम फटने से तकरीबन छलनी हो गया था....और खूनसे जिस्म सराबोर, खुदको बचानेके लिए दौड़ रहा था....उसे अपने कैमरा मे क़ैद करनेके लिए, शायद किसी अखबारका नुमाइंदा उसके पीछे दौड़ रहा था....
बिखरी हुई लाशें...जो ज़्यादातर पुलिसवालों की थीं...क्योंकि वो लोग आतंकवादियों के निशानेपे थे...कोई आड़ नही थी...पर्याप्त हथियार नही थे......लेकिन जांबाज़ी थी....नजर आ रही थी....उस गोलाबारीमे निहत्थे घुस जाना आत्महत्या के बराबर था.....उसी महानगरमे अन्यत्र वही मंज़र थे....

उस इलाकेकी चौड़ी सड़क से परे हटके नजमा दत्ता की गाडी खडी थी। नजमा जी कुछ ५० सालकी उम्रकी होंगी। विलक्षण प्रतिभाशाली वकील....अपने सम्पूर्ण व्यावसायिक जीवनमे उन्हों ने कभी किसी गुनेह्गारका केस हाथ मे लिया नही था....ऐसा गुनेहगार जिसने केवल अपने स्वार्थ और ढेरों रुपयों के लिए ह्त्या की हो... ना कभी किसी बलात्कारीका केस लिया था...करोडोंको ठोकर मारती चली आ रहीं थीं। सम्बंधित व्यक्ती के चेहरेपे डाली एक तीक्ष्ण नज़र और पलभर मे केस लड़नेके लिए उनका इनकार....

अपने स्वतंत्र व्यवसाय के अलावा, वे एक भारतके प्रसिद्द अखबार और मासिक, साप्ताहिक, पाक्षिक समूह्से जुडी हुई थीं....आजभी हैं, उक्त समूह की कानूनी सलाहगार.... उसी अखबार समूहके लिए वे एक सदरभी लिखती तथा दो मासिकों मे आम लोगों द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब भी देती। अपने व्यक्तिगत या व्यावसायिक तत्वों को लेके उन्हों ने कभी समझौता नही किया...हर हालमे उनपे अडिग रहीं ...निर्भयतासे....हर राजनेता जानता था कि उन्हें गर कोई छूभी लेगा ,तो उसकी खैर नही.... जनता किसीको बक्षेगी नही.....जो आदर आर. के. लक्ष्मण के लिए लोगोंके दिलोंमे था, वही उनके लिए। जिस निर्भयता से श्री लक्ष्मण ने अपने व्यंग चित्र बनाए और व्यंग कसे....उसकी मिसाल नहीं.....उसी निर्भयतासे नजमा जीने अपना व्यवसाय किया और कॉलम लिखे...लिखती चली आ रहीं हैं...
उन्हें जैसेही इस आतंकी हमलेकी ख़बर मिली, वे अपनी खुदकी गाडीकी ओर दौड़ पड़ीं....अख़बारने मुहैय्या कराई गयी गाडी अखबार के ड्रायवर को सौंप दी.....खुदका चालक लेके वे इस मॉल के तरफ़ निकल पड़ीं... अन्य ८ इलाके छोड़ वो यहीँ क्यों आयीं, ये सवाल उनसे जुड़े कईयों के दिमाग़ मे आया....जो उनके बेहद करीबी थे, उन्हें उसका उत्तरभी मालूम था....जैसेकि उनके पती....श्री सुजोय दत्ता। अपने पतीको भी फोन कर उन्हों ने उनकी दोनों कारों सहित मौक़ाये वारदात पे तुंरत बुलाया.....इत्तेफ़ाक था कि श्री दत्ता उस दिन उसी महानगर मे थे....उनके दफ्तर से इस स्थलपे पोहोंचने के लिए, उन्हें पाँच अन्य मौकाये वारदातों के इलाकेसे गुज़रना पडा.....हर वाहन की कड़ी जाँच हो रही थी...नजमाजीने उन्हें दो पास शीघ्र भिजवा दिए थे....खबरके बाद एक क्षण भी उन्हों ने बरबाद नही किया।
दूरबीन और कैमरा तो उनके पास थाही, साथ एक नर्स कोभी बिठा लिया....प्रथमोपचार का जितना साहित्य उनके दफ्तर मे पडा था ,सब दो पलमे अपनी सीटपे दाल दिया....अपने पतीको निर्देश दिए कि इन हालातों मे जिन, जिन चीज़ों की ज़रूरत पड़ सकती है, और जोभी प्राप्त हो सकता है, लेते आयें.....हर दुकानने अपने शटर डाउन कर दिए थे।
दो विभिन्न मनोवृत्तियाँ साफ़ नज़र आ रहीं थीं....कुछ लोग इन वारदातों का फायदा उठाते हुए जीवनावश्यक दवाएँ और खाद्य पदार्थ, मूल कीमत से कई गुना अधिक मुनाफेपे बेचना चाह रहे थे। और कुछ ऐसेभी सज्जन थे, जो अपने घरोंसे खाद्यपदार्थ, दवाएँ, दूधके डिब्बे, पानी, और ना जाने क्या, क्या उठा लाये थे।देखने मे आया ,कुछ टैक्सी वालों ने लोगों की लाचारीका फायदा उठाते हुए, उनसे अधिक से अधिक पैसे कमाने की कोशिश की , पर अधिकतर ऐसे थे, जिन्होंने कमाने के बारेमे सोचाही नही....पेट्रोल ख़त्म हो गया तो , टक्सी रोक दी....
अस्पतालोंने आपातकालीन स्थिती ज़ाहिर करते हुए, खूनकी माँग कर दी थी....लोग वहाँ भी क़तारोंमे खड़े हो गए थे। फ़ख्र्की बात थी कि, स्कूलों के बच्चे कतारों मे सबसे आगे थे....कोलेज के विद्यार्थी भी, न केवल रक्तदान कर रहे थे, ज़ख्मीयों को स्ट्रेचर पे डाल, पुलिस ,अम्ब्युलंस आदि आपातकालीन सेवायों मे पूरी लगन के साथ मसरूफ थे...
कई लोग ज़ख्मी व्यकी, जिसके पास अपना कोई न हो, उन लोगों के साथ अस्पताल दौड़ रहे थे....किसीका धाडस बंधाते तो किसी माँ के बच्चे को खोजनेका वादा करते...उसके आँसू पोंछते.......इन्हीं परिथितियों मे मनुष्य का चरित्र साफ़ नज़र आता है॥!
कुछ लोग कफ़न बेच पैसा कामना चाहते हैं तो कुछ कफ़न, चिता, स्मशान, आदिकी जुगाड़ करते....क़बरिस्तानका पता लगते.....वैसे तो बिना शिनाख्त के आगेकी कुछभी कार्यवाई मुमकिन नही थी...पर जिसकी जो समझमे आ रहा, कर रहा था....
महानगर मे शीतलहर चली थी..... लोग अपने पासके ऊनी वस्त्र, ब्लांकेट्स, शालें, चद्दरें...जो उनके पास उपलब्ध था, लेके दौडे चले आ रहे थे....शुरू का दीवानगी भरा माहौल कुछ कम हुआ था.....वारदातकी घम्भीरता ज़हन मे पैवस्त हो रही थी....
अबतक ख़बर मिल चुकी थी कि ATS के बेहतरीन IPS के अफसर मारे गए थे....ऐसे अफसर, जिन्हों ने माँग के ये खतरनाक पोस्टिंग चुनी थी। इन जांबाजों को निर्भयता से झूझते हुए, उनके माँ, बाप, बीबी बच्चे ,भाई बेहेन , मित्रगन अभिमानसे , फिरभी बेबसी से विविध समाचार वाहिनियों पे देख रहे थे। उनके वो जांबाज़ अज़ीज़ ,पथराई आँखों के सामने भून दिए जा रहे थे...इन शहीदों पे पूरे देशको नाज़ था।
मीडिया अपने प्रश्नों से अफसरों को परेशान किए जा रही थी....प्रश्न भी कैसे," क्या आप लोगोंको पता है अन्दर कितने अतिरेकी छुपे हो सकते हैं?"
या फिर," आपको क्या लगता है कबतक ये कारवाई चल सकती है?"
"इनता सारा बारूद और हथियार आए और पुलिस को कुछ ख़बर नही?आपका महेकमा क्या सो रहा था?"
नजमाजी खामोशीसे सब गौर करती जा रही थीं....उनके मनमे आया, कि एकबार वे आगे बढ़के, उन जाबाजों के परिवारवालों का धाडस बंधाएँ...उन्हें महसूस कराएँ कि सारा देश आपलोगों के साथ है...हम दुआ कर रहे हैं....! किसतरह से उनकी आवाज़ उनतक पोहोचे??
अपनी दोनों गाडियाँ उन्हों ने जख्मी लोगों को अस्पताल ले जानेके लिए दे दीं....अपने पतीको भी, मौक़ाये वारदात पे पोहोंचेते ही उसी काम मे लगा दिया.....वे एक पेड़ से सटके खडी हो गयीं..अपना कैमरा और दूरबीन, एक विशिष्ट इमारत तथा उसकी खिड़की की ओर जम गयी थी॥

कुछ ही वर्ष पूर्व अपना राजस्थान के राज्यपालका कार्यकाल ख़त्म करके श्री प्रताप सिंह, जयपूरमे सपत्नीक रहने लगे थे। अपने जीवनके कार्य का आरम्भ उन्हों ने एक पुलिस कोंस्टेबल कि हैसियतसे शुरू किया था। मीलों फैले रेगिस्तान मे उन्हों ने बरसों गश्त की थी। उस सेवामे तैनात उन्हों ने कई बार तस्कर पकड़े थे, लेकिन २५० साल पुराने, कालबाह्य हुए कानूनों के आगे हमेशा उन्हें मात खानी पड़ी थी। उन्होंने अपने सेवाकाल मे रहते, रहते,अपने बड़े बेटेको IPS का अफसर बनाया। उसके बाद उन्होंने अपना त्यागपत्र दे दिया।
पुत्र को UTI का काडर मिला। वैसे तो उसका चयन, IFSमे हुआ, जो अपनेआपमे एक विलक्षण उपलब्धी थी। लेकिन उसने अपने पिताकी तरह पुलिस मे आना तय कर लिया। चाहता तो वो राजस्थान काडर ही था , पर वो किसी वजहसे नही दिया गया।
पिताने अपना त्याग पात्र देनेके कुछ ही माह पहले बारूद की तस्करी करनेवाले बोहोत बड़े गिरोह का सुराग लगाया .....बेहद जद्दोजहद की......मीडिया ने भी इस समाचार को बेहद संजीदगी से लिया। जनताका काफ़ी दबाव भी पड़ रहा था, पर वही २५० वर्ष पुराना ,घिसा पिटा कानून आड़े आ गया!

इंडियन एविडेंस एक्ट (IEA)मे दफा २५ तथा २७ के तहत , मुद्देमालका पंचनामा मौक़ाये वारदात पे होना ज़रूरी था । मीलों फैले रेगिस्तान मे , सुबह ऊँट पे सवार, एक पुलिस कर्मी , जो अपने साथ थोडा पानी , कुछ खाना, एक लाठी , कागज़ पेन्सिल जैसा लिखनेका ले,गश्तीके लिए निकल पड़ता ...अक्सर कई पुलिस स्टेशन्स की सीमायें १०० मीलसे अधिक लम्बी होती हैं ...ऐसे रेगिस्तान मे, जहाँ किसी इंसान का ना, पानीकी एक बून्द्का अता पता न होता , पञ्च कहांसे लाता ?
राजस्थानसे सटी भारत-पाक सीमा हर तरह की तस्करीके लिए आसान जगह रही है। गश्तीपे निकले , प्रताप सिंह को , पंचनामेके लिए काफ़ी हदतक बारूद तो बरामद हुआ, लेकिन कानून के हत्थेसे तस्कर छूट गया ।
कानूनन , अव्वल तो एक constable, हेड constable, या सब-इंसपेक्टर इसतरह की तस्करी की छान बीन नही कर सकता है। इन पदार्थों की आड्मे बारूद और हथियार लाना कठिन नही था !! ऊँट
pe सवार प्रताप सिंह उस तस्करको किसी तरह १५ मील दूर एक गाँव मे तो ले आए पर जिसके दफा २५ के तहत चश्मदीद गवाह ( कमसेकम दो तथाकथित 'इज्ज़तदार' व्यक्ती ) पंचों के तौरपे मिल जाना ????
उन्हें काफ़ी गिडगिडाना पडा , तब जाके दो लोगों ने पंचनामेपे हस्ताक्षर किए। अब ज़ाहिर था , कि पंचनामा मौक़ाये वारदातपे तो नही हुआ ! ऐसे मे चश्मदीद गवाह कहाँसे मिलते ??जो कुछ प्रताप सिंह ने लिखा, उसीपे हस्ताक्षर हुए!! तस्करको पुलिस कस्टडी से छुड़वा लेना, उसके 'काबिल' वकील के लिए, बाएँ हाथ का खेल था ! ना पंचनामा मौक़ाये वारदात पे हुआ था ,ना हस्ताक्षर करनेवाले पञ्च चश्मदीद गवाह थे ! तस्कर फिर तस्करीके लिए आजाद ! और पुलिस को हर हालमे अपनी सारी तफ़तीश पूरी कर, ३ माहके भीतर न्यायालय मे रिपोर्ट पेश करना ज़रूरी ! वो पेश कियाभी गया !
पर विडम्बना देखिये, न्यायालय पे समय की कोई पाबंदी नही !! केस न्यायालय की सुविधानुसार शुरू होना था और पता नही कितने बरसों बाद ख़त्म होना था !
किसीभी साधारण व्याक्तीको आंखों देखी भी घटना कितने अरसेतक याद रह सकती है ? २ दिन, दो हफ्ते दो माह , या दो साल ? तो १० सालकी क्या बात करें? गर गवाह चश्मदीद होते तो भी, वो घटनाके कितने तपसील , इतने सालों बाद तक ,याद रख पाते ? कितने गवाह अपना समय बरबाद करने न्यायलय आते और घंटों प्रतीक्क्षा करनेके बाद," अगली तारीख" की सूचना पाके लौट जानेपे मजबूर हो जाते??क्या न्यायालय का गवाहों के प्रती कोई उत्तरदायित्व तय नही ?
कई बार तो न्यायालयीन ,लम्बी चौड़ी, पेचीदा प्रक्रिया से परेशान हो , साफ़ कह देते, हमसे ज़बरदस्ती हस्ताक्षर करवाए !ऐसी सलाह तो आरोपी के वकील ही उन्हें दे दे दिया करतें हैं!! पुलिसवाला, चाहे वो कितनाही नेक और आला अफसर क्यों न हो, मौजूदा कानून की निगाहोंमे गवाह नही हो सकता !!...नही किसी पुलिस्वालेके सामने दिया गया इकबालिया बयान न्यायालाय्मे दर्ज किया जा सकता ...वो न्यायालय को ग्राह्य नही.....ज़ाहिर है, पुलिसवाला गवाह नही, क्योंकी कानून कहता है, उसके शब्द्पे विश्वास नही करना चाहिए ! और ये कानून , १५० साल पूर्व , अंग्रेजों ने अपनी सुरक्षा के लिए बनाए थे ....इन कानूनों से आज हमारे देशद्रोहीयों को सुरक्षा मिल रही है ...!

प्रताप सिंह जैसा अत्यन्त सदसद विवेक बुद्धी वाला व्यक्ती करता भी तो क्या करता ? न्यायालय से फटकार सुन लेनेकी आदत तो पुलिस को होही जाती है। बेईज्ज़तभी सरेआम कराये जाते हैं...सिर्फ़ कोर्ट मे नही....उसमे मीडिया भी शामिल और जनताभी ...उपरसे डिपार्टमेंटल तफ्तीश ....कई बार उसका सस्पेंशन आर्डर ...

अबतक उनका बेटा अफसर बन चुका था। उन्होंने अपना त्यागपत्र दे दिया। तस्करसे हुई हाथापायीमे उनकी रीढ़ की हड्डीमे काफ़ी चोट आयी थी। लेकिन तहकीकात के दौरान उस तस्करसे इसबार काफ़ी कुछ मालूमात हाथ लग गयी थी। तस्करी करनेवालों के गिरोह ने उन्हें खुलेआम धमकी भी दी थी।
त्यागपत्र के बाद प्रतापसिंह ने कानून के कई पहलुओं का गहरायीसे अभ्यास किया। इतना कि वो वकील बन गए !कोई कुछ करनेका ठान ले तो क्या नही हो सकता ??उन्हों ने अख़बारों मे लिखना शुरू कर दिया। अपने पुलिस मेहेकमे मे कार्यरत रहते आए हुए अनुभवों की भव्य और नायाब पूँजी थी उनके पास। राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों मे जनजागृती होने लगी। लोगों ने ख़ुद होकेभी पुलिस कर्मियों को मदद करनी शुरू कर दी।
जब राजस्थान मे राज्यपाल की नियुक्तीका समय आया तो लोगों ने उनके गाँव के घर ताँता लगा दिया। उन सब बातों की गहराईमे जानेसे अब कुछ हासिल नही, लेकिन प्रताप सिंह राजस्थानके राज्यपाल बन गए। उसी साल उनकी पत्नीकी बडेही अजीबो गरीब हालातमे मौत हो गयी। तहकीकात के सूत्र ,उस तस्करों के गिरोह तक पोहोंच गए ! तस्कर तो सीमा पार गुनाह करके पनाह लेही लेते।
पर इसबार एक गद्दार राजस्थानमे ही था। ऐसे भेसमे कि किसीको कतई शक ना हो !! प्रताप सिंह जीके पाठशाला का वर्गमित्र !!
उनके राज्यपाल पदके ५ साल पूरे होने आए थे। बेहद हरदिल अज़ीज़ राज्यपाल रह चुके थे। उनके निरोप समारोह चल रहे थे। राजस्थान मे भिन्न भिन्न जगाहोसे न्योते थे।
तत्पश्च्यात, जोधपुर मे बने उनके पुश्तैनी मकान मे जाके वे अपनी उर्वरित ज़िंदगी बिताना चाहते थे। वहाँ उनके अन्य तीन छोटे भाई भी अपने अपने परिवारों के साथ रहते थे। भरा पूरा घर था। इनकी ज़रूरतें तो नाके बराबर थीं।
सोच रखा था, कि बच्चों को कुछ पढायेंगे, उनमे मन लगा रहेगा।
इनका अपना बेटा पुलिस की नौकरीमे लगे दस सालसेभी अधिक हो गए थे। उसके दो बच्चे थे। सब अपनेआपमे मस्त थे। रोज़मर्रा की तरह, उशक:कालके समय वे घूमने निकले। और जब बड़ी देरतक घर नही लौटे तो, खोजबीन शुरू हो गयी....कहीँ नामोनिशान नही...बेटेको तो ख़बर दिलवाही दे गयी थी।
तह्कीकातके चक्र घूमने लगे और फिर उसी गिरोह के पास पोहोंचे..... तकरीबन १५/१७ साल पहले उन्हों ने जो गिरोह पकडा था, उसके बारेमे सबसे अधिक जानकारी इन्हें ही थी। सालोंसे केस चल रहा था। सीमा पार ले जाके उनकी हत्या कर दी गयी थी।लेकिन इस बार असली गद्दार तो ख़ुद जोधपूर मेही था....एक ऐसे भेसमे , कि किसीको क़तई शक ना हो....उनका अपना पाठ्शालाका वर्गमित्र...!उनका लंगोटी मित्र....विक्रम सिंह....जिसके नाम परसे उन्हों ने अपने बेटेका नाम रखा....!!!उनकी अर्थी मे शामिल हो उसने उन्हें कान्धा दिया....जिसके कान्धेपे सर रख उनका बेटा, पिता के मृत्यु पश्च्यात रोया.....तहलका मच गया...कैसा भयंकर विश्वासघात !!उसने अपने आपको शायद ज़्यादाही अक़लमंद समझा......और चूक गया.....!
अनजानेमे उनकी पत्नीही कुछ ऐसा बोल गयी कि वो शक के घेरेमे आ गए.....वजह केवल चंद रुपये नही थी...असली वजह थी अपने वर्गमित्र से विलक्षण असूया....उनकी लोकप्रियता....उस कारण इतनी ईर्षा के वो आतंक वादियों से मिल गया...देशद्रोहीयों से मिल गया और अपने देशका जिसने इतना भला किया था...उस बचपनके दोस्तका हत्यारा बन गया.....
सिर्फ़ जोधपूरमे नही, पूरे राजस्थान मे शोक की लहर फ़ैल गयी। पुलिस मेहेकमे मे भी उन्हें बड़ी इज्ज़त से याद किया जाता था । आतंकवादियों के ख़िलाफ़ उन्हों ने जो जंग शुरू की , उसीमे शहीद हो गए। उनके परिवार मे आतंक का ये दूसरा बली चढ़ा...पहली बली चढी थी उनकी पत्नी ....

नजमाजी को ये पूरी पारिवारिक पार्श्व भूमी पता थी। प्रताप सिंह का बेटा, विक्रमसिंह उनकी सगी बेहेन का दामाद था । पिछले साल उनकी उस एकलौती बेहेन और जीजाकी, एक भयंकर रेल दुर्घटना मे मृत्यु हो गयी थी। जिस बिल्डिंग काम्प्लेक्स मे आग लगी हुई थी , उसीमे उनके बेहेन बेहनोयीका फ्लैट था । उनकी बेटी इकलौती ऑलाद थी। एक प्रतिभाशाली भरत नाट्यम की साधक और अत्यन्त स्नेहिल मिज़ाजकी धनी ।

बेहेन बहनोई के मृत्यु पश्च्यात वो घर बेटी मासूमा के नाम हो गया । विक्रम सिंह और मासूमा की वाक़्फ़ियत और फिर प्रगाढ़ , दोनोंके कॉलेज के दिनोंमे हुई थी। विक्रम ने राज्यशास्त्र लेके B.A.किया था , आगेकी पढाई के लिए उसने दिल्ली विद्यापीठ्मे प्रवेश लिया । स्वर्णपदक प्राप्त करते हुए उसने राज्यशास्त्र मे M.अ.किया । वो शतरंज का उत्तम खिलाड़ी था ।एनी मैदानी खेलों मे भी उसने नेत्र दीपक उपलब्धियाँ पायीं थी।

मासूमा ने संगीत- नृत्य लेके पदव्युत्तर पढ़ाई की थी। उसके एक नृत्य -संगीत कार्यक्रम की पेशकश के दौरान, विक्रम का उससे परिचय हुआ । मासूमा मुस्लिम परिवारमे पली बढ़ी थी पर दोनों परिवारों मे किसीकोभी, किसी क़िस्म का ऐतराज़ नही था ।

जिस वक्त ये आतंकी हमला हुआ , विक्रम देहली मे कार्यरत था । शानिवारका दिन था वो। वैसे तो विक्रम को शायदही कभी छुट्टी नसीब होती लेकिन शुक्रवार के दिन उसके पैरमे एक ज़ोरदार चोट लग गयी और पैर ऐसा सूज गया कि , चलना मुश्किल हो गया । डॉक्टर ने उसे कुछ रोज़ पैर बिल्कुल्भी ना हिलानेकी हिदायत दी। असलमे वो बेहतरीन घुड़सवार था। शुक्रवारकी शाम एक मित्र के stud फार्म पे गया और उसके आग्रह करनेपे उसने एक ज़रा बदमाश घोडेकी सवारी करनी मंज़ूर की । फार्म के दो चक्कर तो घोडेने बड़ी खूबीसे लगाये और आखरी , यानी तीसरा खतम्ही होनेवाला था कि बिदक गया । विक्रमने बेहद शिकस्तसे अपनेआपको सिरके बल गिरनेसे बच्चा लिया .... लेकिन पैरमे ligament tear हो गया । । दर्द तो होनाही था।इलास्टो प्लास्ट लगाके चंद रोज़ घरपे रहनेके अलावा और चारा न था ।
उसी दिन सवेरे उनका बड़ा बेटा अपने एक मित्र के साथ ट्रेकिंग के लिए गया था । बम्ब्लास्टके वक्त विक्रम, मासूमा और छोटा बेटा, सूरज , घरपेही थे।
पत्नी के कहे मुताबिक उसने सरकारी मकान मुहैय्या होनेतक, उसी बिल्डिंगमे रहनेका फैसला कर लिया था । केवल चार माह पूर्व वो चंदिगढ़से तबाद्लेपे देहली आ गया था ।
नाजमाजीसे पुलिस कंट्रोल रूम संपर्क रखे हुए था । नजमाजी और उनके पती अपनी , अपनी ओरसे ज़ख्मियों की मदद भी कर रहे थे। श्री दत्ताने अपनी दोनों कारें पुलिस को दे दीं थीं । अस्पतालोंके चक्कर वो गाडियाँ काटे जा रहीं थीं । लेकिन नजमाजी अपनी कार लिए अडिग खडी रहीं।
आतंकवादियों ने मॉल , वो बिल्डिंग काम्प्लेक्स और पासका एक मल्टीप्लेक्स अपने कब्ज़मे कर लिया था ।

दूसरा दिन निकल आया । मरनेवालोंकी संख्यामे इज़ाफा होता जा रहा था..... और फिर वो ख़बर मिलही गयी.... विक्रम, मासूमा और छोटा पुत्र सूरज ..... तीनो आगके भक्ष्य बन गए थे।
बड़ा बेटा अपनी माँ की मासी के पास आ गया था ........जिसे वो नानीमासी कहके बुलाता था....... ज़बरदस्त सदमेमे था....... बधीरसा हो गया था । उस बिल्डिंग के पास से हटना नही चाह रहा था । उसके माता पिता और छोटे भाईके मृत देह किस अवस्थामे होंगे ये तो उसके दिमाग़ के परे था। वो मृत हो गए हैं, येभी उसका मन मान नही रहा था । शायद ये कोई दुस्वप्न होगा ...उसमेसे वो जाग जायेगा और फिर वही हँसता खेलता परिवार होगा ...
नजमाजी से चिपकते हुए उसने पूछा ," ये आग कब बुझेगी ? ये क्यों लगाई गयी? क्यों बम फेंके गए? "
नजमाजी के गालोंपे आसूँओ की झडी लगी हुई थी....क्या जवाब था उनके पास ? कब ख़त्म होगा ये आतंक...? कब हमारे, हमारी सुरक्षा यंत्रणा को अपाहिज करनेवाले कानून बदलेंगे ? बदलेंगेभी या नही??
उतनेमे फिर उस बच्चे ने उनसे पूछा ," मुझे बड़ा होनेमे और कितना समय है?"
"क्यों बेटा, ऐसा क्यों पूछ रहा है तू ? "नजमाजीने भर्राई हुई आवाजमे पूछा ...
" क्यों कि नानीमासी , मै बड़ा होके मेरे बाबाकी तरह पुलिसका अफसर बनूँगा ....इन गंदे लोगोंसे लडूँगा ...पूछूँगा ...आपका किसने क्या बिगाडा था , जो मेरे अम्मी बाबाको, मेरे भाईको, जला दिया ? क्या मै ऐसा कर सकूंगा ? क्या मै इन गंदे लोगोंको पकड़ सकूँगा ? नानीमासी , अगर ये लोग नही पकड़े गए तो क्या ये फिर बम फेंकेंगे ??नानी , इन्हों ने ऐसा क्यों किया ?? बोलिए ना नानी ...? नानी , मुझे मेरे अम्मी बाबा को देखना है..छोटू कोभी देखना है..... पर वो मुझे तो नही देख सकेंगे, हैना ? तो उन्हें कैसे पता चलेगा कि मै रो रहा हूँ ??और नानी अब मुझे कौन बड़ा करेगा ?? बच्चों को तो उनके अम्मी बाबा बड़े करते हैं??अब मेरा क्या होगा??"

उसके हरेक सवालके साथ एक ओर नजमाजीका कलेजा फटता जा रहा था , तो दूसरी ओर मनमे एक ठाम निश्चय जन्म ले रहा था.....अब आज़ादीकी दूसरी जँग छेड़नेका समय आ गया है......अग्रेजोंके बनाये उन १५० साल पुराने कानूनों से मुक्त होनेका वक्त आ गया है.....मै करूँगी इसकी शुरुआत......मै Dr. धरमवीर ने सुझाये पुलिस reforms को लागू करनेकी अपील ज़रूर करूँगी .....एकही परिवारकी ३ पीढियाँ ,Indian Evidence Actके दफा २५ और २७ ने निगल लिया । आतंकी दहशत मचाके फरार होते गए....
बस अब और नही...किसीने तो क़दम उठानाही होगा ...वरना ....औरभी एक पीढी , वोभी इसी परिवारकी , बली चढेगी ...?? और ऐसे कितनेही कानून हैं, जिन्हें भारतकी जनता जानतीही नही ? कौन उत्तरदायित्व लेगा ? हमारी न्यायव्यव्स्थामे कौन सुधार लायेगा ??जो आतंकके ख़िलाफ़ लड़ते हैं, वो ख़तावार ठहराए जाते हैं, और कानून आतंक फैलानेवालों को बचानेमे कोई कमी नही रखता...?
उन्हों ने बच्चे को कसके अपने सीनेसे लगाया...आसपास उस परिवारको जाननेवालों की भीड़ बढ़ती जा रही थी......विक्रमके अन्य साथी...उनके परिवार ....वो सब अब नजमाजीकेही घरपे जमेंगे .....मासूमा और विक्रमका तो घरही नही बचा .....और फिर उन्हें इस बच्चे को बचाना है......नही, इन घिसेपिटे कानूनों के तहेत ये बच्चा मौतके घाट नही उतरेगा ....

नजमा जीके घर लोग इकट्ठे होते गए...दिनों तक ये सिलसिला जारी रहा....और नजमा जी अपना प्रण पूरा करनेकी ओर धीरे, धीरे क़दम बढाती रहीँ....बढाती जा रही हैं....आजभी उनकी जंग जारी है.....
अभी तो शुरुआत है....कारवाँ और बढेगा......मंज़िल दूर है, पर निगाहों मे है.....इरादे बुलंद हैं.....मन साफ़ है.....सही इरादा...सही राह.....एक निश्चयके साथ आगे बढ़ते क़दम......कोई रोक नही सकता.....कोई भी नही.....गर मैदाने जँग मे वो गिर गयीं तो क्या..... कोई और इस जँग को आगे बढायेगा....लेकिन अब सिलसिला थमेगा नही.....अब इस जँग मे शामिल सिपाहियों की क़तारें बढ़ती ही रहेँगी....नए कारवाँ बनते रहेँगे....नए क़ाफ़िले सजते रहेँगे.....सिपहसालार चाहे बदल जाएँ....

समाप्त


Transliteration के लिए फिर ekbaar kshamaa praarthee hun....
सूचना: कहानीके सब किरदारों के नाम, पोस्ट तथा इलाके बदले गए हैं।

Tuesday, February 17, 2009

कब होगा अंत ?

भारत के विश्वप्रसिद्ध महानगर इलाक़ा......एकही हड़कंप मचा हुआ.....पूरे इलाकेको पुलिस कर्मियों ने cordon ऑफ़ ( घेर के प्रवेश निषिद्ध) कर रखा हुआ था। उस इलाकेका एक विशाल और प्रसिद्द मॉल जल रहा था....उसमे ना जाने कितने लोग फँसे हुए थे......मॉल को लगके एक बिल्डिंग काम्प्लेक्स था। उसमे तकरीबन ५० बहुमंज़िली इमारते थीं....आग वहाँ भी धदक रही थी.....उस काम्प्लेक्स मे मध्यम वर्ग, उच् मध्यम वर्ग और खूब पैसेवाले....इन सभीके फ्लाट्स थे....

जी हाँ ! एक भयंकर आतंकवादी हमलेके चपेट मे वो इलाक़ा आ गया था....बम धमाके जारी थे.....और सिर्फ़ उसी इलाकेमे नही....सिरिअल ब्लास्ट जारी थे....लोग अपने घरों या दफ्तरों मे टीवी पे खबरें देख रहे थे.....अपने यार दोस्तों की , रिश्तेदारों का हालचाल जान लेनेके लिए बेताब थे...
हवाई अड्डों पे मुसाफिरों को रोक लिया गए था... मोबाईल फोन काम नही कर रहे थे....रेल यात्री, उस महानगर से कुछ किलोमीटर दूर, एक स्टेशन पे अटक गए थे...रेलगाडियाँ वहाँ से आगे नही जा पा रही थी...सुरक्षाके तहेत कुछेक को रेलयार्ड मे डाल दिया था...कुछेक औरभी पहलेके स्टेशन पे रोकी गयीं थीं....कुछेक को अलग रूट्स आगे निकालने की कोशिश की जा रही थी...उस महानगरकी ओर आती सड़कें बंद कर दी गएँ थीं.....वाहनों की कतार लग गयी थी...लोग अपनी चारों मे रेडियो सुननेकी कोशिश मे थे...कईयों को कुछ सुनाई पड़ रहा था, कईयों को सिग्नल नही मिल रहा था....कुछ लोग कारें घुसेड़ने का यत्न कर रहे थे...कुछ उतरके देखना चाह रहे थे, कि आगे कोई अपघात हुआ है...जिस कारण यातायात रोकी गयी है....

उपर्युक्त घटना स्थल पे ,अम्ब्युलंस अग्निशामक दल, पत्रकारों की गाडियाँ, पुलिस कर्मी और उनकी कुछ गाडियाँ.....उसीमे नेताओं को घुसना था... पुलिस कर्मियों को नेता गण की सुरक्षा मेभी लग जाना था....क्षुब्द्ध जनता, पुलिसवालों को गाली गलौच कर रही थी," इन्हें नेताओं की चमचा गिरी से फुर्सत नही.....ये आतंक वादियों को छोड़ नेताओं के आगे पीछे क्यों घुमते हैं ?? "
कोई चिल्ला, चिल्ला के कह रहा था," अरे देखो, मूर्ख साले....हाथमे लाठी लिए चले आ रहे हैं....!! बंदूकों को क्या चूहे खा गए...? इन्हें इतनी कम अक्ल है ?? लाठी के बदले चूड़ियाँ ही पेहेन लेते ??"

पुलिस लगातार विनती किए जा रही थी," लोगों से दरख्वास्त है...घटना स्थलसे दूर रहें...! पुलिस कर्मियों तथा अग्निशामक दलके कामों मे बाधा ना डालें.....अम्ब्युलंस का रास्ता छोडें....! मीडिया से नम्र दरख्वास्त है....हमें पहले अपना काम करने दे...! "

फिर पुलिस का कोई अफसर टीवी तथा अखबारों के नुमाइंदों से नीचे झुक जानेको कहता," आपलोग नीचे लेट जाएँ.....अभी बमबारी जारी है....ज़ख्मियों को बचाना अत्यन्त ज़रूरी है....इन कामों मे कृपया बाधा ना डालें..."

अपूर्ण
लिखना जारी है.