Wednesday, June 24, 2009

याद आती रही..५ ..

(इसके पूर्व...विनीता और विनय के दरमियान, खतों का सिलसिला चलता रहा....)

धीरे, धीरे विनय के खतों की नियमितता घटने लगी...तथा वो सब कुछ सारांश में लिखने लगा..वजह...समय की कमी...

निशा दीदी की शादी की तारीख तय हो गयी। विनीता के माता-पिता, विनय के परिवार वालों को सादर आमंत्रित करने गए...लेकिन वहाँ उनका बड़ा ही अनमना स्वागत हुआ...जब विनीता के पिता ने कहा,
"आप लोग तो हमारे भावी समाधी हैं..आपको अपने परिवार के सदस्य ही समझता हूँ...आपके आने से हमारे समारोह में चार चाँद लग जायेंगे...! अवश्य पधारियेगा...!"

उत्तर में विनय के पिता ने कहा," अभी कोई रस्म तो हुई नही...इसलिए ये भावी समाधी होने का रिश्ता आप जोड़ रहें हैं, सो ना ही जोडें तो बेहतर गोगा..हाँ...गर पड़ोसी होने के नाते आमंत्रण है,तो, देखेंगे...बन पाया तो आ जायेंगे..
वैसे, क्या आप लोग घर जमाई ला रहे हैं?"

"जी नही ! कबीर पेइंग गेस्ट की हैसियत से रह रहा था...और अब जबलपूर लौट जायेगा, जहाँ उसका परिवार है..निशा ब्याह के बाद वहीँ जायेगी...," विनीता के पिता ने ना चाहते हुए भी किंचित सख्त स्वर में कहा और नमस्कार कर के वहाँ से वो पती- पत्नी निकल आए.....

इस मुलाक़ात के पश्च्यात, वे दोनों बड़े ही विचलित हो गए..विनीता ने अपने पिता को अस्वस्थ पाया तो उससे रहा नही गया...वह बार, बार उन्हें कुरेद ने लगी और अंत में उन्हों ने सब कुछ उगल ही दिया..सुन के वो दंग रह गयी..!

वैसेभी शुरू से ही उसे यह आभास हो रहा था कि, विनय के परिवार वालों ने उसे अपनाया नही है....विनय ने उसे बार, बार विश्वास दिलाया था, लेकिन उसका मन नही माना था...इतने सालों में उन लोगों ने किसी भी तीज त्यौहार में उसे शामिल नही किया था...! हाँ ! सालों में...क्योंकि, विनय को गए अब दो साल से अधिक हो गए थे...और इस दौरान विनय एक बार भी हिन्दुस्तान नही आया था...हर बार कुछ ना कुछ बहाना बनाके वो टाल ही जाता रहा था...

निशा दीदी की शादी हो गयी...विनीता और भी अकेली पड़ गयी...ये तो राहत थी,कि, उसके पास काम था, नौकरी थी...जिसे वो खूब अच्छी तरह से निभा रही थी...
अब तो वो add फिल्में भी बनने लगी थी, जोकि, काफी सराही जा रहीँ थीं...उसे पुरस्कृत भी किया जा चुका था...

कुछ और दिन इसी तरह गुज़रे..विनय की ओरसे खतो किताबत पूरी तरह बंद हो गयी...विनीता ने किसी से सुना,कि, विनय को लन्दन में ही कहीँ बड़ी बढिया नौकरी भी मिल गयी है...फिर सुना, उसने अपना अलग से व्यवसाय शुरू कर दिया है..उसने अपनी ज़िंदगी से विनीता को क्यों हटा दिया, ये बात, विनीता कभी समझ नही पायी...

अब उसे हर कोई शादी कर लेने की सलाह देने लगा..उसने इनकार भी नही किया...राज़ी हो गयी...हालाँकि जानती थी, शादी उसकी ज़िंदगी का अन्तिम ध्येय नही है...एक ओर अगर, विनय को कोई बंदी बना के उसके सामने खडा कर देता, तो वो उसे चींख चींख के चाँटे मारती...पूछती, क्यों, क्यों इतना तड़पाया उसने, गर अंत में छोड़ ही जाना था तो...!
दूसरी ओर, गर, बाहें फैलायें, विनय ख़ुद उसके सामने खड़ा हो जाता और उससे केवल एक बार क्षमा माँग लेता तो, वो सब कुछ भुला के, उसकी बाहों में समा जाती...

लेकिन ये दोनों स्थितियाँ केवल काल्पनिक थीं...ऐसा कुछ नही होना था...! माँ-बाबूजी, निशा दीदी, अन्य मित्र गण, रिश्तेदार, जहाँ, जहाँ उसके रिश्ते की बात चलाते, या तो उसकी बढ़ती उम्र आड़े आती, या फिर एक ज़माने मे उसका और विनय का जो रिश्ता था, वो आड़े आ जाता..ये बात ना जाने कैसे, हर जगह पहुँच ही जाती...अंत में तंग आके, उसने सभी से कह दिया,इक, अब उसे ब्याह नही करना..वो अपनी नौकरी, अपने काम में खुश है...उसे अब और कोई चाहत ,कोई तमन्ना नही...

क्रमश:

2 comments:

स्वप्न मञ्जूषा said...

बहुत सुन्दर. अच्छा लगा पढ़ना...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

मार्मिक कथा,
अगली कड़ी का इन्तजार है।