Monday, June 22, 2009

याद आती रही...४

(पूर्व भाग: विनय लन्दन चला गया...वकालत की आगे की पढाई के लिए॥) अब आगे पढ़ें...

विनीता को अब उसके खतों का ही एक सहारा था...वही इंतज़ार उसके जीवन का मक़सद-सा बन गया। कभी कबार फोन आते, तो मानो, उसमे नव जीवन का संचार हो जाता...लगता, विनय उसके साथ ही तो है...आ जायेगा..लेकिन, बस चंद पल...सिर्फ़ चंद पल...उसके बाद फिर एक बिरह की गहरी वेदना उसे कचोट देती...

अपनी पढाई ख़त्म होते ही, उसने कई जगह नौकरी के लिए आवेदन पत्र दे रखे थे...उनमेसे कई आवेदन पत्र इश्तेहार एजंसीस के लिए थे। आवेदन पत्र देने के बाद वो सब भूल भाल गयी...ना उसे जवाब का इंतज़ार रहता , न अपनी किसी बात का ख़याल....

एक दिन अचानक से उसे एक एजंसी से साक्षात्कार के लिए बुलावा आया। वो अचरज में पड़ पड़ गयी...! इतनी नामवर एजंसी से बुलावा आयेगा, ये उसने कभी सोचा ही नही था...! लेकिन, बुलावा मतलब नौकरी तो नही..! अपना सारा पोर्ट फोलियो, कागज़ात आदि लेके वो साक्षात्कार के लिए चली गयी। बड़ी अनमनी-सी अवस्था में उसने साक्षात्कार दिया।

घर लौटी तो माँ ने पूछा," कैसा रहा?"
"ठीक रहा माँ,"उसने कहा।
"तुझे क्या लगता है...मिल जाएगा ये काम?",माँ ने फिर पूछा।
"माँ, नौकर मिलना इतना आसान थोड़े ही है? और भी कितने सारे लोग थे वहाँ...", विनीता ने कुछ चिढ के माँ को जवाब दिया। वैसे भी आज कल वो गुमसुम -सी रहती थी। माँ चुप हो गयी। अपनी बेटी की मनोदशा खूब समझ सकती थीं...

ऐसे ही कुछ दिन और गुज़र गए...और फिर उसी एजंसी से उसे काम के लिए बुलावा आया...! उसके हाथ जब वो ख़त लगा तो उसका अपनी आँखों पे विश्वास नही हो पाया...! उसे सच में नौकरी मिल गयी थी? वोभी इतनी नामवर एजंसी में?

उसी दिन उसकी बड़ी बहन, निशा ने एक ख़बर सुनाई... निशा दीदी और कबीर ने विवाह कर लेने का फ़ैसला कर लिया था...! कोई बाधा नही थी..कबीर ने पहले ही अपने घरवालों से बात कर ली थी...बाद में निशा को पूछा था...कबीर, वैसे भी बड़ा ही दृढ़ निश्चयी व्यक्ती था। अब उसने जबलपूर लौट जाने का इरादा भी कर लिया था। मुम्बई का अनुभव उसके लिए हमेशा अच्छा साबित रहेगा, ये उसे खूब पता था।

विनीता को याद आया, उस दिन उसकी और उसकी माँ की, आँखें कैसी भर आयीं थीं...! खुशी भी और दर्द भी... एक साथ....! विनीता को लगा था, जिस एक सहेली-सी बहन के साथ वो अपना सारा सुख-दुःख बाँट सकती थी, वो दूर हो जायेगी...माँ को लगा, अपनी बिटिया अब पराई हो जायेगी...खुश भी थी, कि , इतना अच्छा वर और घर, दोनों निशा को मिल रहा था...! कबीर बड़ा ही संजीदा और सुलझा हुआ व्यक्ती था....

इन सब घटनाओं के चलते, एक और बड़ी अच्छी घटना उस परिवार के साथ घट गयी...जिस ने जाली हस्ताक्षर करा के बाबू जी को ठग लिया था, वो व्यक्ती कानून के हत्थे लग गया...उसने काफी सारे, अन्य गुनाह भी उगल दिए... लम्बी चौड़ी कानूनी कारवाई के बाद, बाबूजी को काफी सारी रक़म वापस मिल गयी...!

विनीता ये सारा ब्योरा बाकायदा से विनय को बताती रहती। साथ ही लिखती,

"विनय,तुम्हें बता नही सकती, कि, कितना याद आते हो तुम...हर पल, हर जगह, तुम्हें ही देखती हूँ...जहाँ देखती हूँ, तुम्हें तलाशती हूँ...
बचपन से तुम्हें देखा, लेकिन बाद में कौनसी जादू की छडी घुमा दी, कि, पल भर भी तुम्हें भुला नही पाती...!
ज़िंदगी का हरेक लम्हाँ तुम्हारे नाम लिख चुकी हूँ...जाने कब अपने दिल का दरवाज़ा खोल दिया, और बिना आहट किए, तुम चले आए...!शरीर यहाँ रहता है , मन तुम्हारे पास....!
हर कोई मुझे छेड़ता है...कि मै खोयी-खोयी रहती हूँ...
विनय, तुम्हारी छुट्टियों का बेक़रारी से इंतज़ार है...कब आओगे ? बताओ ना ...! हर बार ताल जाते हो...!क्यों ? आँखें तुम्हें देखने के लिए तरस गयीं हैं....तुम्हारी एक मुस्कान देखने के लिए कितनी तरस गयीं हैं, कैसे बताऊँ?"
सिर्फ़ तुम्हारी
विनीता। "

विनय के भी लंबे चौडे ख़त आते....वो भी लिखा करता,
"मेरी विनीता,
इस अनजान मुल्क में आके हम दोनों ने एक साथ गुजारे दिन बेहद याद आते हैं....कोई भी सुंदर जगह देखता हूँ, तो
सोचता हूँ, तुम साथ होती तो कितना अच्छा होता...हम दोनों घंटों बातें करते, या मीलों घूमने निकल पड़ते...और ख़ामोश रहके भी कितना कुछ बोल जाते.....!
मेरे ज़हन में कई बार लाल या काली साडी ओढे, तुम चली आती हो.....कभी तुम्हें थामने की कोशिश करता हूँ, तो दौड़ के दूर चली जाती हो...!
कई, कई, रूपों में तुम्हें देखता हूँ...हमेशा तुम पे गर्व महसूस करता हूँ....तुम सब से अलग, सबसे जुदा हो....अभिमानी हो...ऐसी ही रहना...!
सदा तुम्हारा
विनय। "

क्रमश:

2 comments:

डॉ .अनुराग said...

एक कहानी ये भी.....

Asha Joglekar said...

आगे के हिस्से का बेसब्री से इंतजार है । बढिया जा रही है कहानी ।