( पूर्व भाग, जहाँ, क्रम छोडा था:" विनय और विनीता का परिवार पड़ोसी हुआ करते थे...")
दोनों बचपनमे एक ही स्कूल में पढा करते...लेकिन कथा, कहानियों या, फिल्मों की तरह, इन दोनों का प्यार बचपन में नही पनपा...दोस्ती थी, जैसे किसी भी अन्य वर्ग मित्र या दोस्त से होती है...उसके अलावा कुछ नही...कभी कबार स्कूल इकट्ठे चले जाते, पर साथ में कोई घरका बड़ा चलता...और फिर महाविद्यालय के दिन आए तो, अलगाव होही गया.....विनीता ने फाइन आर्ट्स में प्रवेश लिया और विनय ने बारहवी कक्षा के बाद law कॉलेज में दाखिला ले लिया। उसके पिता ख़ुद एक नामी वकील थे....ये बात तो शायद सभी जानते थे, कि, उन्हें पैसों के आगे और कुछ नज़र नही आता। नैतिकता का गर कोई माप दंड हो तो, उसपे वे कभी खरे उतर नही सकते...!
खैर ! महाविद्यालय बदल जानेके बाद इन दोनों की मुलाकातें बंद ही हो गयीं....दोनों परिवारों के बीच वैसेभी कभी ख़ास मेल मिलाप नही था...
और फिर विनीता को अनायास याद आ गयी वो एक बरसाती संध्या...मुंबई की धुआँ धार बरसात में ,वो किसी तरह, एक छाता सँभाले, सिमटी-सी फुट पाथ परसे चल रही थी... तेज़ हवाओं ने अव्वल तो उसका छाता उलटा कर दिया और फिर उड़ा ही दिया..!वो वहीँ ठिठक, उस उड़ते छाते को देखती जा रही थी...तभी पीछे से एक गाडी, हार्न बजाते हुए, फुट पाथ के क़रीब आके रुकी....मुड के जो देखा, उसमे विनय था..!
खिड़की ज़रा-सी नीचे कर, विनय ने विनीता को कार में बैठ ने का इशारा किया....विनीता कारके पास आयी तो बोला," आओ, बैठो...घरही लौट रही हो ना? मै छोड़ देता हूँ...मैभी घरही जा रहा हूँ....",कहते हुए उसने विनीता के लिए साथ वाली सीट का दरवाजा खोल दिया.....
पल भर विनीता सकुचाई...वो पानी से तर थी...कार की क़ीमती सीट देख, उसे अन्दर बैठ जानेमे हिच किचाहट-सी हुई...विनय ने भाँप लिया..बोला," उफ्फो ! बैठो तो...! किस औपचारिकता मे पडी हो...? चलो, चलो, भीगती खड़ी हो...कार की सीट सूख जायेगी, लेकिन तुम और भीगी तो बीमार ज़रूर पडोगी...! अरे बैठो भी...!"
विनीता सिमटी सिमटी-सी कार में बैठ गयी...विनय ने गाडी को आगे बढाते हुए कहा," कैसी पागल हो? टैक्सी क्यों नही कर ली? ऐसी बरसात में पैदल चलनेका क्या मतलब हुआ?", पूरा हक़ जताते हुए, विनय उसके साथ बतियाने लगा....मानो बीच के, तक़रीबन २ से अधिक गुज़रें सालों का फ़ासला पलमे ख़त्म हो गया हो...!जिन दो सालों में वो दोनों एक बार भी नही मिले थे.....!
न जाने क्यों, विनीता को उसका इस तरह से हक़ जताना अच्छा लगा...कुछ खामोशी के बाद वो बोली," विनय...हम काफ़ी अरसेके बाद मिल रहें हैं....तुम्हें मेरे घरके हालात का शायद कुछ भी अंदाज़ा नही...मेरे पिताजी के जाली हस्ताक्षर बना के, उन्हें लाखों का नुकसान पोंह्चाया गया ...उनके बिज़नेस पार्टनर ने भी उसी समय उनका साथ छोड़ दिया...पता नही, मेरी और निशा दीदी की पढाई का खर्च कैसे चल रहा है...माँ से तो पूछते हुए भी डर लगता है...माँ ने कहीँ अलग से कुछ बचत कर रखी हो तभी ये मुमकिन हो सकता है..."
बात करते, करते विनीता रुक गयी...उसे ये सब बताते हुए, फिर एकबार, बड़ा संकोच महसूस हुआ...अजीब-सी कश्म कश...के घरके हालात किसी अन्य को बताना ठीक है या नही....? उनकी चर्चा करना अपने माता-पिता की कहीँ तौहीन तो नही? वो दोनों ही बेहद खुद्दार हैं...
" कितनी हैरानी की बात है.....हम लोग इतने क़रीब रहते हैं, लेकिन कुछ ख़बर नही....ना ही तुमने कभी बताने की कोशिश की....कैसे बचपन के दोस्त निकले हम? कैसे पड़ोसी?" विनय के सूर मे एक उद्वेग छलक रहा था...
"विनय, ऐसी कोई बात नही...बारह वी कक्षा के बाद अपना मेलजोल तो ख़त्म ही हो गया था...कभी सड़क चलते भी मुलाक़ात नही हुई...आज अचानक, किसी दुमतारे की तरह उभरकर तुम सामने आ गए....पूछा तो बता रही हूँ...वरना अलगसे सिर्फ़ यही दुखडा रोने मै क्या मिलती तुमसे? अव्वल तो ये बात कभी मेरे दिमाग मे भी नही आयी....और चाहे कितना भी कड़वा सच हो, इन हालातों से हमें ही झूजना होगा....
"फिलहाल, जो हमारा तीसरा बेडरूम है, उसे हम पेइंग गेस्ट की हैसियत से देने की सोच रहे हैं..चंद परिचितों को कहके रखा है....गर कोई किरायेदार मिल जाता है तो कुछ सहारा तो होही जायेगा...", विनीता रुक रुक के विनय को बताये जा रही थी...
इन बातों के चलते, चलते उनकी सोसायटी भी आ गयी...कार के रुकते ही विनीता दौड़ के अन्दर भाग पडी...लेकिन उस रोज़ के बाद उन दोनों की मुलाकातें बढ़ने लगीं....और अब उन मुलाकातों मे बचपना नही था....ज़रा-सा कुछ और था...जो दोनों भी समझ रहे थे....विनीता को उसके अपने हालातों ने बेहद परिपक्व बना दिया था...वैसेभी संजीदगी तो उन दोनों बहनों मे हमेशासे थी....अपनी पढाई ख़त्म होतेही वो किसी न किसी काम पे लग जाना चाह रही थी....
क्रमश:
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1 comment:
aapki kalam me abhivyakti kee sakshamata hai. achchha laga bayan karne ka andaz.
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