Wednesday, June 17, 2009

याद आती रही...३

(पूर्व भाग :विनीता अपनी यादों में खोयी हुई थी...)

विनय कई बार उसे खोयी-खोयी-सी पाता....उसे हँसाने की नयी, नयी तरकीबें सोचता रेहता। एक ओर विनीता पढाई के साथ साथ इधर उधर काम तलाशती रहती। उसकी चित्रकला बचपन से ही अच्छी थी। उसने विभिन्न पत्रिकाओं में अर्जियाँ भेज रखी थीं.....धीरे, धीरे उसे कथा/आलेख आदि सम्बंधित रेखा चित्र बनानेका काम मिलने लगा।

इसी दरमियान उन्हें एक पेइंग गेस्ट भी मिल गया। उसका परिवार चाह रहा था,कि, कोई लडकी मिले, लेकिन अंतमे कबीर नामक,एक वनस्पति शास्त्र का अध्यापक मिला। लड़के का परिवार जबलपूर में स्थित था। वो शादीशुदा नही था। उसकी तक़रीबन सारी पढाई मुम्बई में ही हुई थी।

एक दिन विनीता को विनय उसके कॉलेज से घर ले जा रहा था। अचानक किसी साडी के बड़े-से शो रूम के सामने उसने गाडी पार्क कर दी। विनीता ने हैरत से पूछा," यहाँ क्यों रोक ली कार? कुछ काम है क्या?"
" हाँ, है...! चलो मेरे साथ....,"उसने विनीता से आग्रह किया।
विनीता उतरी और उसके पीछे उस दुकान में चली गयी। विनय ने शो केस में लटकी हुई, दो, बड़ी ही कीमती साडियाँ, सेल्समन को कह उतरवा लीं...एक लाल, दूसरी काली। वहीँ खड़े,खड़े, सभी के सामने , उसने लाल साडी को खोला.....विनीता के सर परसे उसे डालते हुए बोल पडा,"ये साडी जब तुम पहनोगी, तो, तुम पे कितनी जंचेगी.......!"
तुंरत ही काली साडी उठाके बोला," तय नही कर पा रहा,कि, ये अधिक सुंदर लगेगी या लाल!"

विनीता को पूरी दूकान घूर रही थी...!और वो लाज के मारे चूर, चूर हुई जा रही थी...!उसने सेल्समन से कहा,"हम दोबारा आएँगे...", और दौड़ ते हुए दुकान के बाहर निकल पडी...विनय भी उसके पीछे दौडा। विनीता शर्म के मारे विनय से आँख मिला नही पा रही थी...

जब दोनों कार में बैठे,तो विनय उससे बोला," विनीता, मेरी तरफ़ देखो तो सही! कितनी सुंदर लग रही हो ! जब मेरी दुल्हन बनोगी तो कैसी लगोगी....! मै भी कितना बेवक़ूफ़ हूँ...! तुमसे ना तो कहा, कि, तुमसे प्यार करता हूँ, न तो पूछा, कि, मुझसे शादी करोगी? अगर अभी पूछूँ तो?"

"हाँ, विनय," कहते हुए विनीता ने दोनों हाथों से अपना चेहरा छुपा लिया...इस वक़्त उसके ज़ेहेन से सारे चित्र, सारे रेखांकन हट गए...एक सुनहरा भविष्य सामने आ खडा हुआ....जहाँ वो थी, विनय था, और उनकी छोटी-सी दुनियाँ...!ये कब हुआ,उसे पताभी न चला...!

फिर दोनों ने अपने अपने घर वालों को अपना इरादा बताया। किसी को वैसे कोई आपत्ती नही थी। कुछ ही महीनों में दोनों की पढाई पूरी हो गयी।
विनय के पिता ने, विनीता के पिता को अलग से बुला के कहा," अभी विनय की उम्र शादी के लिहाज़ से कम है....मै चाहता हूँ, कि, ये लन्दन जाके बारिस्टर बने। वैसे चाहता तो विनय भी यही है...और केवल एल.एल.बी.में रखाही क्या है?मेरी भी तो वहीँ पे पढाई हुई थी...."

जब विनीता के कानों तक ये बात पोहोंची, तो वो बेहद उदास हो गयी...साथ ही में उसे गुस्सा भी आया...यही बात विनय भी तो उसे बता सकता था ! विनय के पिता को, उसके पिता से कहने वाली कौनसी बात थी ...?

जब वो दोनों मिले,तो विनीता ने अपने मनकी बात साफ़-साफ़ विनय से कह दी....विनय बोला," हाँ! तुम ठीक कहती हो...इससे पहले,कि, मै ठीक से निर्णय ले पाऊँ, मेरे पापा ने ने तुम्हारे पापा से बात कर ली..."

"विनय, क्या आगे की पढाई के लिए लन्दन ही जाना ज़रूरी है? तुम हिन्दुस्तान में रह के भी तो आगे की पढाई कर सकते हो....! अन्य लोग भी तो करते ही हैं...!"विनीता रुआं-सी होके बोली...

विनय ने उसका हाथ थामते हुए कहा," विनी, समय पँख लगा के उड़ जायेगा...! जो मायने वहाँ की डिग्री रखती है, वो यहाँ की नहीँ...!हमारा प्यार पत्थर की लकीर है...मेरे परिवार ने तुम्हें अपनी अपनी बहू मान ही लिया है ! ऐसी सुंदर बहू से किसे इनकार हो सकता है?" विनय ने थोड़ी-सी शरारत करते हुए, विनीता के होटों पे मुस्कान लाने का असफल प्रयास किया ।

विनय को लन्दन में दाखिला मिल गया। उसकी जाने की तैय्यारियाँ शुरू हो गयीं....इधर विनीता का दिल डूबता रहा...और फिर वो दिन भी आ गया जब, विनय के प्लेन ने उड़ान भर ली...
विनय का पूरा परिवार हवाई अड्डे पे जानेवाला था...इसलिए विनीता नही गयी, लेकिन उसे किसी ने इसरार भी तो नही किया...उसके संवेदनशील मन को ये बात बेहद खटकी...विनय ने तो कहा था, उसके परिवार ने विनीता को अपनी बहू के रूप में स्वीकार कर लिया है, फिर भी उसे साथ चलने के लिए किसे ने नही कहा? विनय तक ने आग्रह नही किया?

विनय जिस दिन जानेवाला था, उसकी पूर्व संध्या को दोनों समंदर के किनारे घूमने गए। विनय ने खतों द्वारा, फोन द्वारा सतत संपर्क बनाये रखने का वादा किया, पर विनीता की आँखें बार, बार भर आतीं रहीँ ...उसे ना जाने क्यों महसूस होता रहा,कि, विनय ने उसे अव्वल तो सब्ज़ बाग़ दिखाए और फिर किसी रेगिस्तान में ,अकेले ही अपनी राह ख़ुद खोज ने के लिए छोड़ चला....
क्या प्यार में औरत अधिक भावुक होती है? उसके लिए विनय अब सब कुछ हो गया था, लेकिन विनय के लिए वो सब कुछ नही थी...!

दुकान में ले जाके , उसपे साडी डाल ने वाले विनय का रूप कितना अधिक मोहक था...वहाँ भी उससे बिना बताये उसने कुछ किया था...और यहाँ भी....लेकिन ये रूप कितना दुःख दाई था...! काश ! इस वक़्त विनय ने उसे विश्वास में लेके मानसिक रूप से तैयार किया होता ! इस अचानक बिरह को विनीता का मन स्वीकार ही नही कर पा रहा था....वो बेहद व्याकुल हो उठी थी....उसे लग रहा था, मानो, विनय उसकी मन: स्थिती समझ ही ना रहा हो....! खैर !
विनय चला गया....

क्रमश:

1 comment:

DEV said...

प्रिय शमा,
इत्तेफाक से जीवन में कुछ अच्छा भी होता है. अचानक तुम्हारा यूँ मिलना अच्छा लगा। तुम्हारी कहानियाँ पढ़ी, एक अधूरी, दूसरी पूरी । दोनों अच्छी लगीं। तुम्हारी फ़िल्म 'एक खोया हुआ दिन' देखना चाहूँगा। उसे क्यों नही 'youtube' पर अपलोड कर देती? जिस डॉक्युमेंटरी पर काम करना चाहती हो उसके बारे में विस्तार से मुझे इ -मेल कर सकती हो । कानून पर लिखे तुम्हारे लेख बहुत ज्यादा व्यस्तता के चलते अभी पढ़ नही पाया पर पढूंगा जरूर और इसपर बातचीत भी होगी।
संपर्क बनाये रखना ।
शुभकामनाओं सहित
देव