Monday, July 6, 2009

याद आती रही....६

(पूर्व भाग: विनीताने शादी करने से मना कर दिया...बता दिया,कि, वो अपने काम में खुश है...अब अन्य किसी और चीज़ की चाहत नही...)

...और एक दिन अचानक माँ चल बसीं...!शायद उनसे विनीता का सदमा सहा न गया...दोपहर में खाना खाके लेटीं, तो बाद में उठीही नहीँ...

उनके जाने के बाद विनीता और बाबूजी बेहद उदास और तनहा हो गए...बाबूजी का तो मानो ज़िंदगी पर से विश्वास उठ-सा गया...अपनी छोटी बेटी की क़िस्मत में क्यों इतने दर्द लिखे हैं, उन्हें, समझ में नही आ रहा था..

अपनी सारी जायदाद उन्हों ने दोनों बेटियों के नाम कर दी...एक दिन विनीता ने अपने पिता से कहा,"क्यों न हम ये फ्लैट बेच के, कोई छोटा फ्लैट ले लें? फ्लैट बेच के जो रक़म आयेगी, उसे चाहे आप रखें, या दीदी को दे दें..इतना बड़ा घर माँ के बिना खाने को उठता है....और वैसे भी इस पड़ोस, इस मोहल्ले से दूर कहीँ, जाने का मन करता है..."

"ठीक है, बेटी, तुझे जो सही लगे, वैसा ही कर," बाबूजी ने उत्तर दिया...

विनीता ने उस लिहाज़ से क़दम उठाने शुरू कर दिए। उनका मौजूदा फ्लैट, निहायत अच्छी जगह स्थित था। उन्हें अच्छे ऑफ़र्स आने शुरू हो गए।

दूसरी ओर विनीता ने नया फ्लैट खोजना शुरू कर दिया...इस बारेमे, उसने अपनी विज्ञापन एजंसी के सह कर्मियों को भी कह रखा...क़िस्मत से वो काम भी बन गया...

बड़ा फ्लैट बिकने पर, बाबू जी ने उस रक़म में से आधे पैसे निशा को देने चाहे...लेकिन निशाने इनकार किया, बोली,"मै इन पैसों को आपके जीते जी छू भी नही सकती...आप इन्हें बैंक में रखें...फिक्स डिपॉजिट में रखें...उस पे जो ब्याज मिलेगा, आपके काम ही आयेगा...इस तरह बँटवारा करने की जल्द बाज़ी न करें..मेरे पास ईश्वर दिया सब कुछ है...अपना और विनीता ख्याल रखें...मुझे तो केवल ये दो चिंताएँ सताती रहती हैं...." बात करते, करते वो अपनी माँ को याद कर रो पडी...विनीता का दर्द वो खूब अच्छी तरह महसूस करती......

चंद दिनों में विनीता और उसके पिता नए फ्लैट में रहने चले गए....फ्लैट छोटा ज़रूर था, लेकिन, खुशनुमा, हवादार और रौशन था...पिता-पुत्री का मन धीरे, धीरे प्रसन्न रहने लगा...मायूसी का अँधेरा छंट ने लगा...बेटी को, गुनगुना ते, मुस्कुराते देख, पिता भी खुश हो गए...इसीतरह तीन साल बीत गए...

विनीता की दिनचर्या दिन-ब-दिन और ज़ियादा व्यस्त होती जा रही थी...बाबूजी रोज़ाना अपने हम उम्र दोस्तों के साथ घूमने निकल जाया करते...ऐसे ही एक शाम वो घूमने निकले और दिल के दौरे का शिकार हो गए...दोस्त उन्हें अस्पताल ले गए, लेकिन उनके प्राण उड़ चुके थे....

विनीता पे फिर एक बार वज्रपात हुआ...अभी तो ज़िन्दगी में कुछ खुशियाँ लौट रही थीं...वो फिर एकबार इस बेदर्द दुनियाँ में एकदम अकेली पड़ गयी...
निशा दीदी और कबीर आए..उन्हों ने विनीता को अपने साथ, कुछ रोज़, जबलपूर चलने की ज़िद की...उसके सहकर्मियों ने भी यही सलाह दी....कहा," चली जाओ, कुछ रोज़...ज़रूरी है..इस माहौल से बाहर निकलो...वरना, घुट के रह जाओगी..."

विनीता ने बात मान ली....लेकिन जब लौटी,तो घर का ताला खोल, अकेले ही अन्दर प्रवेश करना, उसे बेहद दर्द दे गया...वो ज़ारोज़ार रो दी....नौकर होते हुए भी, कई बार, बाबूजी अपने हाथों से व्यंजन बनाते...बड़े प्यार से उसे अपने सामने बिठाके खिलाते...

इधर, जब वो अपने दफ्तर लौटी, तो कुछ अजीब-सा माहौल उसका इंतज़ार कर रहा था...जिन सहकर्मियों ने उसे छुट्टी लेके जाने को कहा था...उसका काम सँभाल लेंगे, ये विश्वास दिलाया था, उन में से कोई भी उस के साथ,सीधे मुँह बात करने को तैयार नही था...! उसे माजरा समझ नही आया...बड़ी हैरान हो गयी...ये परिवर्तन क्यों ? किसलिए ? ऐसी क्या ख़ता हो गयी थी उससे, कि, उसके सहकरमी ,उसके साथ बात करना भी नही चाह रहे थे...!
वो अपने बॉस के चेंबर मे गयी....वहाँ मामला समझ मे आया....

क्रमश:

1 comment:

ओम आर्य said...

क्या कहे कहानी बहुत ही दिलचस्प है ...........नौकर के होते हुये भी अपने हाथो से व्यंजन बना कर खिलाना प्यार का चरमोत्कर्श अपने पापा की याद आ गयी ..............कई बार समय की धूल पर जाती बहुत सारी यादो पर .......पर इस तरह की रचनाये को पुन: धो देती है धूलो को और ताजगी भर देती है ............शुक्रिया