Sunday, March 29, 2009

आकाशनीम ...१

"शाम के समारोह के बाद गाडी हवेली के गेट मे घुसी तो अचानक महसूस हुआ कि जाड़ों की शुरुआत हो चुकी है। फिर एकबार आकाशनीम की मदहोश बनाने वाली सुगंध फिज़ा मे समा गयी थी......
एक ऎसी सुगंध जो जीवन मे बुझे हुए चरागों की गँध को कुछ देर के लिए भुला देती। मेरा अतीत इस गँध से किस तरह जुडा है ,मेरे अलावा इस राज़ को और जानता ही कौन था! शाम के धुनदल के मे इसकी महक आतेही अपने आप पर काबू पाना मुझे कितना मुश्किल लगता था!!अपने हाथों पे हुआ किसी का स्पर्श याद आता,दो समंदर सी गहरी आँखें मानसपटल पे उभर आतीं और मैं डूबती चली जाती। एक ऐसा स्पर्श जो इतने वर्षों बाद भी मेरी कया रोमांचित कर देता।

ज़िंदगी की लम्बी खिजा मे फूटा एक नन्हा-सा अंकुर जो मैंने अंतर्मन मे संजोया था,जिसे सारे तूफानों से बचाने के लिए मेरे मन:प्राण हरदम सतर्क थे,ताउम्र इस नन्हे कोंपल की मुझे रक्षा करनी थी। वरना इस रूखी , सूखी ज़िंदगी मे अपने फ़र्जों की अदायगी के अलावा बचाही क्या था?
क्रमशः।

आकाशनीम,२

"मीनाक्षीजी,आपकी रचनाओंमे इतना दर्द क्यों है?आप इन्सानी जज़्बात की गहराईयों तक इतनी सहजता से कैसे पोहोंच जाती हैं ?"....
मेरे पाठक चहेते मुझसे अक्सर सवाल किया करते और मैं मुस्कुराकर टाल जाती। एक असीम दर्द की अनुभूति जो एक एक कलाकृति बनकर उभरती रही,उसका थाह भला कब कौन ले सकता था! अपनी काव्य रचनाओं के रुप मे बह निकले जज़्बात, मुझे लोगोंकी निगाहों मे प्रतिभावान बाना जाते। कई पुरस्कृत संग्रहों ने मुझे शोहरत की ओर पोहोचा दिया था।
क्रमशः।

आकाशनीम ३

अपने निहायत तनहा लम्होंमें यही दीवाना बना देने वाली आकाशनीम की महक मुझे दूर,दूर ले जाती,अपने लड़कपन मे, जब जब मैं इस गंध से नही जुडी थी।

हमारा छोटासा परिवार था..... बाबूजी सरकारी मुलाजिम थे.... हम दो बेहेने थीं......... नीलाक्षी दीदी बड़ी थीं और गुडिया-सी सुन्दर,नाज़ुक..... मैं साँवली,श्यामली।
लेकिन किशोरावस्था मे पोहोंचने तक हम दोनो अभिन्न सहेलियाँ बन गईं..... मुझे कभी कोई काली कहता तो नीलाक्षी दीदी बर्दाश्त नही कर पाती, कहती,"अजन्ताकी मूरतें देखीं है कभी? पत्थर की,काली,लेकिन कितनी लुभावनी ,तराशी हुई! हमारी मीनू वैसी ही है"

दोस्त रिश्तेदार हमेशा माँ-बाबूजी से कहा करते,"बहनो मे ऐसा प्यार कम ही देखा है। हमारा यहाँ तो बहने,बहने या भाई -बेहेन लगातार झगड़ते ही रहते है।"

"नज़र ना लगाओ भई,भगवान् करे, इनका लगाव-प्यार,इसी तरह बरकरार रहे,ये दोनो इसी डोर से बँधी रहें ,"माँ कहा करती।

नीला दीदी को चित्रकला मे विशेष रुची थी। इसी वजह से प्रातिथ यश चित्रकार नरेंद्रजी से उनका परिचय हुआ। अपने चित्रों की प्रदर्शनी मे नरेंद्रजी ने उन्हें देखा और और उनका पोर्ट्रेट बनने की अनुमती माँगी थी।

कई बार जब नरेंद्रजी के स्टूडियो मे, जो उनकी पुरानी हवेली मे था,पेंटिंग का सेशन चलता तब मैं वहाँ मौजूद रहती। उन दोनों के संबंधों का बढ़ता माधुर्य मुझ से छुपा नही था। वैसे भी नीला दीदी मुझ से कुछ छुपाती नही थी। उनकी प्रतिनिधी बनके माँ-बाबूजी को भी मैंने आगाह कर दिया था।
दोनों ही तरक्की पसंद खयालों के थे, और नरेन्द्र जीं मे कोई खोट भी नही थी। सिर्फ नीला दीदी की पढाई पूरी होनेका इंतज़ार था,जो यथासमय पूरी होही गयी। नरेंद्रजी का अपनी माँ के अलावा और कोई करीबी रिश्तेदार भी नही था।
उनके पिता एक ज़माने मे रामनगर के जाने माने सर्जन थे। परदेस मे बसने के कई मौक़े हाथ से छोड़ कर उन्हों ने रामनगर मेही अस्पताल खोला था। इसी कारण उन्होने काफी पुश्तैनी ज़मीन जायदाद बेच दी थी।
कुछ्ही समय पहले उनका एक सड़क दुर्घटना मे निधन हो गया था। तबसे अस्पताल का कारोबार माँ जी तथा नरेंद्रजी संभालते थे। उनका रामनगर के बाहरी इलाके मे बड़ा-सा हवेली नुमा पुश्तैनी मकान था,"पर्वत महल"।
क्रमशः

आकाशनीम ४

ऐसे नामवर सर्जन का बेटा चित्रकार कैसे बना, येभी एक अचरज था...... लेकिन सुना था, बाप ने अपने बेटे को हमेशा प्रोत्साहन ही दिया। खैर! नरेंद्रजी अपनी माँ को लेकर एक दिन हमारे घर गए और दीदी के रिश्ते की बात पक्की हो गयी।
जल्द ही शादीका दिनभी गया। ख़ुशी और दुःख का एक ही साथ ऐसा एहसास मुझे कभी नही हुआ था। दुल्हन बनी नीला दीदी के चहरे से नज़ारे हटाये नही हटती थीं,और कुछ ही देर मे बिदा हो रही मेरी ये अभिन्न , अंतरंग सहेली अपनी ससुराल चली जायेगी इस का दुःख मेरी आँखें नम किये जा रहा था। बिछुड़ते समय हम दोनो गले लगकर ख़ूब रो लीं.....

kramashaha

आकाशनीम.५

नीला दीदी के बिना खाली घर मुझे खानेको उठता। चंद घंटे महाविद्यालय मे निकल जाते। गनीमत यह थी कि दीदी की ससुराल रामनगर मेही थी। मेरा कालेज का आख़री साल था। दिन तेज़ीसे बीत रहे थे। घर पे मेरे ब्याहकीभी बात चल रही थी। इधर दीदीके गर्भवती होनेकी खबर सुन के दोनो परिवार आनेवाले मेहमान के बारेमे सपने बुन ने लगे। मैं अक्सर दीदी के ससुराल चली जाया करती। हम दोनो घंटो बातें करते,कई बार माजी भी आकर बैठ जाती। हमलोग मिलकर बच्चों के नामों की सूची बनाते........ कभी लड़के की तो कभी लडकी की.......


यथा समय दीदी को अस्पताल ले जाया गया। जब दीदी घरसे निकली तो क्या पता था कि वे वापस लौटेंगीही नही। प्रसव के दरमियाँ अत्याधिक रक्तस्राव के कारण दीदी की मृत्यु हो गयी। होनी देखिए,जिस डाक्टर के हाथ मे दीदी का केस था वो डाक्टर अचानक बेहद बीमार पड़ गया। एक अन अनुभवी डाक्टर को केस ठीक से संभालना नही आया। पीछे अपनी नन्ही , - प्यारी-सी धरोहर,एक बिटिया को छोड़ दीदी हमसे सदा के लिए बिछुड़ गयी....

हम सब पर क्या गुज़री इसका बयाँ मैं नही कर सकती......वो पूरण मासी का दिन था, इसलिये सब उस बिटिया को पूर्णिमा बुलाने लगे .......उसका नामकरण संस्कार कभी हुआ ही नही।
मैंने इस नन्ही -सी कली को अपने कलेजे से चिपका लिया। नरेंद्रजी अक्सर उस से हमारे घर पे आकर मिल जाया करते। जब पूर्णिमा : माह की हुई तो नरेन्द्र की माँ ने मेरी माँ के आगे एक प्रस्ताव रखा।

कह नही सकती कि,इस प्रस्ताव के बाद या जब दीदी की मृत्यु हुई उसीके बाद दूसरा अध्याय शुरू हुआ। तबतक तो जीवन एक सीधी,सरल लकीर-सा था। जीवन मे उतार चढाव भी होते है ये सिर्फ कथा कहानियो मे सुना था और हमेशा यही लगता था कि ऎसी बाते किसी और के ही जीवन मे होती होंगी.... अपने जीवन मे नही.....
क्रमशः.

आकाशनीम.६

प्रस्ताव ये था कि अगर मैं नरेन्द्र से विवाह कर लूँ, तो कई समस्याओंका हल निकल सकता है।

माँ-बाबूजी ने प्रतिप्रश्न किया,"क्या इस बारेमे आपने नरेंद्र्जी से बातचीत की है?"

"नरेन्द्र से जब मैंने बात की,तो उसने साफ इनकार कर दिया। कई दिन तो कुछ सुननेकोही तैयार नही था। लेकिन पूर्णिमाका जब सवाल उठाया तो उसपर कुछ असर हुआ। तबतक मैंने सोंचा क्यों ना आप लोगोंसे इस बीच बात कर लू?मीनाक्षी पे किसीभी किस्म्का दबाव डाला जाय, ये तो मैं हरगिज़ नही चाहती, लेकिन एक बार उस से सलाह ली जाय,इतनी बिनती मैं ज़रूर हाथ जोडके करूँगी ,"नरेन्द्रजीकी ममतामयी माँ ने कहा।

मैंने दरवाज़े की ओट्से ये सारी बाँतें सुनी। कुछ देर तो मुझे मेरी ज़िंदगी फिसलतीसी लगी। मुझे हमारी रिश्तेकी बुआ के अलफ़ाज़ याद आये। उन्होंने एकबार मेरा और दीदीका आपसी लगाव देखते हुए मेरी माँ से कहा था,"भाभी,इन दोनोका ब्याह तो एकही दूल्हे से करना, ये दोनो अलग तो रह नही पाएँगी........!"

यह सुनके मैंने तुनक कर कहा था,"बुआजी, अगर ये कानूनन जुर्म ना होता तो हम ऐसाही कर लेते।"

अब वही होनेके आसार नज़र रहे थे। सिर्फ जुर्म नही था क्योंकि दीदी दुनियामे नही थी....... ज़ुल्म ज़रूर था मुझपर भी ,नरेंद्र्जी पर भी।
कई दिन इसी उलझन मे बीत गए। माँ-बाबूजी ने मुझसे बात करके निर्णय मुझी पर छोड़ दिया था। पूर्णिमा मेरी दिनचर्या का अभिन्न अंग बन चुकी थी।
और फिर समस्या एक दिन उस मोड्पर गयी जब निर्णय लेना बेहद ज़रूरी था। बाबूजीके तबादले का आर्डर गया। एक ओर नन्ही पूर्णिमा,दूसरी ओर मेरे अपने जीवन के युवा सपने। लेकिन जीत दीदीकी उस नन्ही धरोहर की हुई, जिसने अनजाने मे मेरा आँचल थाम लिया था......... मैही उसकी माँ थी। वो नन्ही जान दुनियाके इन पछ्डो से परे थी....

आकाशनीम.७

एक दिन नरेन्द्रजी हमारे घर आये और उन्होने मुझसे अकेले मे बात करने का आग्रह किया। हमे बैठक मे अकेला छोड़ कर माँ-बाबूजी अन्दर चले गए, तब नरेंद्रजीने कहा,"देखो मीनाक्षी, किसीभी दबाव मे आकर कोयीभी निर्णय मत लेना। तुम्हारे आगे तुम्हारा सारा जीवन पडा है। ये ना हो कि तुम्हे बाद मे पछताना पडे। मैं अपनी ओरसे तुम्हे आश्वासन दे सकता हू कि तुम्हें हमेशा खुश रखने की कोशिश करुंगा। उसमे मुझे कितनी सफलता मिलेगी कह नही सकता "

"मैंने कहा था,नरेन्द्रजी मैं पूर्णिमासे बेहद जुड़ चुकी हूँ। आपकी और मेरे रिश्तेकी आगे परिणति क्या होगी ये बात मेरे ज़हेनमे इतनी नही आती जितनी पूर्णिमाकी चिंता सताती है। पूर्णिमाकी वजह्से मैंने इस शादीके लिए स्वीकृती देनेका निर्णय लिया है। मैं आपको क्या दे पाऊँगी कह नही सकती क्योंकि आजतक मैंने आपको सिर्फ जीजाके रुपमे ही देखा है।"

नरेन्द्रजी कुछ देर चुप रहे,फिर बोले,"ठीक है,मीनाक्षी,तो मैं इसे तुम्हारी अनुमती समझ लूँ?"

मैंने "हाँ"मे गर्दन हिला दी।

"तो फिर किसी सुविधाजनक तिथीपर हम सादगी से शादी कर लेंगे,"नरेंद्रने मुझसे तथा मेरे घरवालोंसे कहा।

तिथी निश्चित हुई। घर मे कोयीभी शादी वाली रौनक नही थी। बाबूजी ने कुछ छुट्टी लेली। किसीके दिल मे ज़रासा भी उत्साह नही था। माँ को मैं चुपके,चुपके अपने आँचल से आँसू पोंछते देख लेती। हम दोनोही एक दुसरे से छुपके आँसू बहाते। कैसी घनी उदासीका आलम था, मानो सारी कायनात रो रही हो।

यथासमय, विवाह के पश्चात्, मैं पूर्णिमा के साथ नरेन्द्रजी के घर गयी और बाबूजी अपने तबाद्लेकी जगह चले गए।
जीवनधारा किसीके लिए रुकती नही .......नीला दीदीकी वही चिरपरिचित हवेली..... लगता था मानो अभी किसी कमरेमे से बाहर आयेंगी। हर दरोदीवार पर उनका अस्तित्व महसूस होता रहता,हर तरफ वो अंकित थीं.... दीवारोंके लब होते तो वे उन्हीके गीत गातीं.....

नरेंद्रका व्यवहार मेरे प्रती बेहद मृदु था। हम दोनोही एकदूसरे को आहत ना करने की भरसक कोशिश करते, लेकिन हमारे बीच ना जाने कैसी एक अदृश्य दीवार ,कोई अदृश्य खाई बनी रहती जिसे हम लाँघ नही पाते......
जो व्यक्ती मेरी दिवंगत दीदीका सर्वस्व था,उसके और मेरे बीच का सेतु केवल पूर्णिमाही थी। हम दोनोही चाहें भरसक इस सत्य से अनजान बननेकी कोशिश करते, उसे नकार नही सकते। हमारे अतीव अंतरंग क्षणों मेभी एक ऎसी अदृश्य परछाई जाती, जो मेरी पकड़ मे नही आती। नरेंद्रमे कुछ्भी खोट नही थी। लेकिन भावनात्मक तौर पर मैं उनसे जुड़ नही पा रही थी ,जैसे की एक पत्नी को जुडना चाहिए ......

क्रमशः.

आकाशनीम.८

स्टीव के आने के ठीक एक दिन पहले मैंने अपने जीवन की प्रथम कविता लिख डाली, उसी कमरे मे बैठ कर। कुछ ऎसी ही रौशनी मेरे जीवन से हट गयी थी, फिर उसी रौशनी का मुझे कितना अधिक इंतज़ार था,उस सूर्यास्त को देख कर महसूस हुआ। मेरी तनहानियों को किसीसे बांटने की बेकरारी से चाह थी। माहौल मे आकाशनीम की भीनी, भीनी महक........मुझे गेहेन उदासियोंकी खाईमे गिरा रही थी......क्या कभी इसमेसे उभर पाऊँगी...? अनागतकी किसे ख़बर थी ...? मेरा वर्तमान तो ना दिन था, ना रात.....


उन दिनों नरेन्द्र मुम्बई मे होनेवाली उनकी प्रदर्शनी को लेकर कुछ ज़्यादाही व्यस्त थे। घंटों अपने स्टूडियो मे बिता देते थे। काफी सारे चित्र मुम्बई जा चुके थे। माजी की हालत और पूर्णिमा की वजह से मेरा वैसेही उनके साथ जान संभव नही था और अब तो स्टीव भी आ रहा था।


स्टीव के घर मे प्रवेश से लेकर उसकी विदातक एकेक पल मेरे मानस पर अंकित होकर रह गया। नरेन्द्र उसे स्टेशन पर लेने गए थे। जब लौटे तो उन लोगों के स्वागत के लिए मैं सामने आयी और स्टीव को देख चकित रह गयी । उसने पूर्णत: भरतीयपरिधान पहना हुआ था। कुरता,पाजामा और मोजडी। मेरे चहरे के चकित भावों को स्टीव ने भांप लिया और नमस्कार के लिए हाथ जोड़ते हुए कहा,"समझ गया। मुझे ये लिबास बोहोत अच्छा लगता है। वैसेभी जैसा देस वैसा भेस,इस उक्ती को मैं मानता हूँ।"


हम लोगों ने नरेंद्रके स्टूडियो मे ही चाय ली। स्टीव नरेन्द्र के चित्रों के मुआयना और प्रशंसा करता रहा। वहाँ पर दीदी का एक बड़ा-सा चित्र लगा हुआ था। उसे दिखाते हुए नरेन्द्र बोले,
"ये नीला, मीना की बड़ी बहन ,मेरी पहली पत्नी,जो अब इस दुनियामे नही है। मेरी बेटी को जन्म देते समय चल बसी," और उनका गला रुंघ-सा गया।


इन सब बीच की घटनाओं से स्टीव अनभिज्ञ था,क्योंकि दोनो ओर से चला पत्रों का सिलसिला नरेन्द्र की पिता की मृत्यु के बाद रूक गया था।

क्रमशः

आकाशनीम.९

नरेन्द्र ने संक्षेप मे जो स्टीव को बताया उसे सुन कर मैं दंग रह गयी..... उस समय नरेन्द्र को मेरे कमरे मे होने का भी शायद आभास नही रहा था...... वे मानो स्वयम से बतिया रहे थे।
नरेन्द्र अब भी किस क़दर अपनी प्रथम पत्नी से जुडे हुए थे......! मेरे साथ उन्होने दीदी का विषय शायद ही कभी छेड़ा हो। हम दोनो ही अपनी अपनी तौर से उनसे बेहद जुडे हुए थे तथा उनका जान अपनी निजी क्षती मन कर कभी बाँट नही पाए थे.....
मेरे ब्याह से पहले मेरे शंकित मन को लेकर घरवालों ने समझाया था कि बाद मे सब ठीक हो जायेगा। अक्सर होही जाता है। फिक्र मत करो। दोष मेरा था या नियती का नही जानती, सब ठीक नही हुआ था। नरेन्द्र और मैं,एक छत के नीचे रहकर भी बिलकुल अकेले थे। हमसफ़र होते हुए भी हमारा जीवन दो समांतर रेखाओं की भाँती चल रहा था....
क्रमशः

आकाशनीम. १० ,

कुछ देर बाद नरेन्द्र ने कहा,"अच्छा,मुझे अब कुछ देर स्टूडियो मे काम करना है। स्टीव, मीना तुम्हे तुम्हारा कमरा दिखा देगी और तुम्हे जहाँ घूमना है, घुमा भी देगी। दोगी ना मीना? दोस्त,तुम ऐसे समय आये हो जब मैं अपनी प्रदर्शनी के काम मे बेहद व्यस्त हूँ। आशा है मुझे माफ़ करोगे। "

"बिलकुल! तुम अपना काम करो मैं अपना!,"स्टीव ने कहा था और हम स्टूडियो से बाहर निकल आये थे। मैंने पेहेले स्टीव को उसका कमरा दिखाया। फिर कुछ देर रसोई मे लगी रही,कुछ देर पूर्णिमा के साथ, कुछ देर माँ जी के साथ। बाद मे मैंने स्टीव के कमरे पे दस्तक देके पूछना चाहा कि, कहीँ उसे किसी चीज़ की आवश्यकता तो नही। देखा तो वो बरामदेमे बैठ, निस्तब्ध उस दिशामे देख रहा था जहाँ पहडियोंकी ओटमे सूरज बस डूबने ही वाला था पश्चिम दिशा रंगोंकी होली खेल रही थी.......

अनायास मैं कमरा पार करके वहाँ चली गयी और धीमेसे बोली,"मुझेभी यहाँ सूर्यास्त देखना बोहोत अच्छा लगा था.......कल..... इसी आकाशनीम की महक की पार्श्वभूमी में.... तुम्हे जान के हैरत होगी कि, तीन साल के वैवाहिक जीवन , मैं इस तरफ पहली बार आयी ........वो दृश्य इतना मनोरम था कि मैंने एक कविता भी लिख डाली। अपने जीवन की पेहली और शायद अन्तिम भी! "

"सच! क्या मैं सुन सकता हू वो कविता?" स्टीव ने बड़ी उत्सुकता और भोलेपन से पूछा।

"अरे! वो तो हिंदी मे है! उसका तो मुझे भाषांतर सुनाना होगा, जोकि काफी गद्यमय होगा!"मैंने कहा।

"कोई बात नही,सुनाओ तो सही,भाषांतर से आशय तो नही बदलेगा ," स्टीव बोला।

मैंने वहीँ रखे बुक शेल्फ परसे डायरी निकाली और उस कविताका भावार्थ सुनाने लगी,

'रौशनी की विदाई का समय जितना खूबसूरत होता है,
उससे कहीँ अधिक दुखदायी भी.....

जब ये मखमली अँधेरा अपनी ओटमे सारा परिसर घेर लेता है
तो लगता है कभी फिर उजाला भी होगा?

क्या यही अँधेरा अन्तिम सच है या फिर वो लालिमा.....
जो डूबे गरिमामय दिनकी दास्ताँ सुना,अँधेरे मे मिट गयी?

शायद हर किसीका सच अपना होता है।
उसका अपना नज़रिया, उसका अपना अनुभव....

मेरे जीवन मे डूबा सूरज फिर से निकला ही नही।
मेरे मनके अँधेरे मे किरणों का कहीँ अस्तित्व नही..

अए शाम! मैं आज अपने मनके सारे द्वार खोल दूँगी
तू अपनी लालिमा की सिर्फ एक किरण मेरे लिए छोड़ जा........"

स्टीव की ओर मैंने देखा तो वो अपलक मुझे निहार रहा था। फिर बोला,"काश मैं हिंदी भाषा समझ पाता! खैर! ये तो समझ रहा हूँ कि इस कविताके पीछे सुन्दरता के अलावा असीम दर्द भी छुपा हुआ है, कारण नही जनता, लेकिन इस कविता पर एक चित्र ज़रूर बनाऊँगा अभी,आज रात मे......"
कह के उसने अपनी चित्र कला का सारा सामान निकाला, फिर बोला,"मुझे वाटर कलर अधिक अच्छे लगते हैं.... क्या नरेन्द्र के साथ रहते तुम भी दो चार स्ट्रोक्स मारना सीख गयी हो या नही?"
क्रमशः।

आकाशनीम.११

'नही,नही! मैंने कभी इस ओर ध्यान नही दिया, वैसे किसीको चित्र बनाते हुए देखना मुझे अच्छा लगता है, लेकिन आप खाना तो खा लीजिये, फिर अपना काम शुरू करना। कुछ देर नरेन्द्र से बातें कीजीये, तब तक मैं पूर्णिमा और माजी को खाना खिलवा देती हूँ। "

"चलो, ठीक है,"स्टीव ने कहा और हम दोनो कमरेसे बहार निकल पडे। मैंने पेहेले पूर्णिमा को खाना खिला के सुलाया फिर माजी के कमरे मे उनका खाना ले गयी और अपने हाथोंसे उन्हें खिलाती रही। ये मेरा रोज़ का नियम बन गया था।

जब स्टीव ,नरेन्द्र और मैं मेज़ पे खाने बैठे तो मैंने गौर किया कि नरेन्द्र तो खामोशी से खा रहे थे, लेकिन मेरे और स्टीव के बीच बातों का सिलसिला इसतरह चला मानो हम दो बिछडे दोस्त बरसों बाद मिले हों, जिन्हें एकदूसरे से बोहोत कुछ पूछना हो,जानना हो। नरेन्द्र जल्दीही खाना खत्म करके उठ गए और फिर अपने काम मे लग गए। मैं और स्टीव बैठक मे कुछ देर बातें करने लगे। मुझे महसूस होता रहा कि हम दोनो एक दूसरेसे कितना कुछ कहना चाहते है,एक दूसरेसे किता कुछ जानना चाहते है।

दुसरे दिन मेरी आंख खुलनेसे पहले नरेन्द्र स्टूडियो मे पूरी लगन से काम कर रहे थे। मैंने पूर्णिमा को उठाके तैयार किया और स्कूल भेजा नाश्ते की तैयारी की और स्टीव के कमरे कि ओर मुड़ गयी। दरवाजा खुला था। दस्तक देकर अन्दर गयी तो वो पिछले बरामदे मे ईज़ल रख कर चित्र अंकित कर रहा था। चित्र देख के मैं बिलकूल स्तब्ध रह गयी। पूरे चित्र पर मानो दो उदास पारदर्शी आँखें छाई हुई थीं ,जो डूबते सुरजको निहार रही थीं........... चित्र पूरा नही हुआ था,लेकिन आशय स्पष्ट था......... मेरी कविता.......

"कैसा लगा चित्र??अभी अधूरा है वैसे,"स्टीव ने मेरी ओर देखते हुए पूछा।

"स्टीव........!"
मैं आगे कहना चाह रही थी कि ये चित्र अधूरा ही रहेगा....... इन आँखों की उदासी मिटेगी नही....... ये आँखें ताउम्र इंतज़ार करेँगी ......... इसे छोड़ दो,मत पूरा करो ........लेकिन मुँह सूख-सा गया। होटोंसे अल्फाज़ निकले नही।

"मीना,बताओ ना?"स्टीव ने फिरसे पूछा।

"स्टीव,तुम बोहोत अछे चित्रकार हो,"मैंने धीरेसे कहा।

"बस, इतनाही?"उसने पूछा।

ऐसा लगा मानो ये आदमी मुझे बोहोत गहराई तक जान गया हो, अपनी सीमा मे रहते हुए दूर,दूर तक मेरे अंतर मे पोहोंच गया हो, मेरी तनहाईयों को इसने पूरी तरह भाँप लिया हो।

"हाँ! फिलहाल इतनाही। मुझे काफी काम निपटाना है। फिर तुम्हे उस पहाड़ी की दूसरी तरफ,जहाँ रामनगर का किला है ,वहाँ ले चलूँगी। नरेन्द्र ने खास हिदायत दीं है!"
मैंने खुदको और वातावरण को सहज बनाने की कोशिश करते हुए कहा और चाय के प्याले वहाँसे लेकर चल दी। पर बड़ी देरतक अपने आप को सहज नही कर पायी। हे भगवान्! मुझे ये क्या हो रहा है? मैं अनायास किस लिए खिंचती चली जा रही हूँ .......

क्रमशः।

आकाशनीम.१२

रातमे खानेके बाद मैंने पूर्णिमा को लम्बी सी कहानी सुना के सुलाया। नरेन्द्र स्टूडियो मे चले गए। मैं और स्टीव बगीचे मे आकाशनीम के तले कुर्सियाँ डालकर बैठ गए। कुछ देर की छुप्पी के बाद स्टीव ने कहा,"मीना, तुम वाकई पूर्णिमा की माँ बन गयी हो। ऐसा त्याग हमारी पश्चिम की संस्कृती मे देखने को नही मिलता। "

"स्टीव हमारे देश मे ऐसा कई बार होता है। पहली पत्नी के मृत्यु के बाद अगर अगर उसकी कोई औलाद हो और पत्नी की ग़ैर शादीशुदा बेहेन हो, तो औलाद के खातिर उसकी बेहेन से शादी कर दी जाती है। कई विवाह सफल भी होते होंगे, कई मुखौटे भी...... वैसे सफल विवाह का कोई भरोसा तो नही....... दो स्वतंत्र जीवोंका कब आपस मे टकराव हो जाय, क्या कहा जा सकता है!!
हिंदुस्तान
मे ऐसे टकराओं को घरकी देहलीज़ के भीतर ही रखा जाता है। वैसे नरेन्द्र और मुझमे कोई टकराव, कोई अनबन नही, लेकिन...."
मैं
इसी लेकिन पे आके खामोश हो जाती।

"तुम नरेंद्र की माँ कीभी बोहोत सेवा करती हो.... इसतरह एक बहू, बूढ़ी, बीमार सास की सेवा करे , हमारी तरफ देखनेको कमही मिलता है। हर कोई अपनी,अपनी ज़िंदगी मे व्यस्त रेहता है। दूसरों के लिए कुछ करने की फुर्सत नही होती,"स्टीव ने कहा।

"स्टीव,वहाँ समाज का ढाँचा ऐसा बन गया है...... हर किसीको कमाने के लिया बाहर निकलना पड़ता है। देखो,मुझपे ऎसी कोई बंदिश नही और मेरी सासभी निहायत अच्छी औरत है। बेमिसाल अच्छी स्त्री!! उन्होने कभी भी दीदी की या मेरी ज़िंदगी मे दखल अंदाज़ी नही की। चलो, माजी जाग रही होंगी, कुछ देर हम उनके पास बैठ जाते हैं!"
कहके मैं खडी हो गयी और हमलोग माजी के कमरे मे गए।
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आकाशनीम.१३


स्टीव को देख के माजी मुस्कुराई और बडे स्नेह्से बैठनेके लिए संकेत किया... फिर मेरी ओर मुखातिब होकर बोली,"बेटी! इसका अच्छी तरह ध्यान रखना..... जहाँ घूमना,फिरना चाहे घुमा देना... इसके पिता की और नरेंद्र की पिता की घनिष्ट मित्रता थी, "माजी अन्ग्रेज़ीमे बोल रही थी ताकी स्टीव समझ पाए।


हम तीनोही आपस मे बतियाते रहे। जब मैंने देखा मजी थक रही है तो हम दोनो उठ खडे हुए। माजी ने मेरा हाथ अपने हाथ मे लिया और अपने गाल्पे दबाया, तभी उनकी आँखों से दो आँसू लुढ़क गए। मैं कह नही सकती,उस स्नेहमयी,विशाल र्हिदयी औरतने अपनी अनुभवी आखोंसे क्या जाना ,क्या पहचाना! क्या वो मेरी दोलायमान मनास्थिती को इतनी तेज़ीसे भाँप गयी ?क्या कोई मोह मेरी बाँह खींच रहा है और कर्तव्य मेरा पैर रोक रहा है, वे समझ गयीं ?मैं उस समय जान नही पायी।


रातके दस बज रहे थे। हम ने नरेंद्र के स्टूडियो मे झाँका तो वे मग्नतासे अपना कुंचाला चला रहे थे। मैंने धीरे से दरवाज़ा बंद कर दिया.....स्टीव और मै,टहलते हुए पिछ्लेवाले बरामदे की ओर चल दिए।
आकाशनीम की गंध सारे वातावरण को मदहोश बनाए हुई थी। हम कुर्सियोंपे बैठके ना जाने कितनी देर बतियाते रहे। स्टीव अपने बारेमे बताता रहा। बात पे बात छिडी तो मैंने पूछा,"स्टीव,तुमने अभी तक विवाह क्यों नही किया, ये सवाल अगर मैं पूछूँ तो क्या बोहोत निजी होगा?"


"नही,मीना, बिलकुल नही होगा। किसी ना किसी कारण वश , किसीभी संबध की परिणति विवाहमे नही हुई और मुझे इसका कभी अफ़सोस नही हुआ। मेरा दिल आजतक नही टूटा। मैभी अपनी कलाके चक्करमे विश्व भरमे घूमता रहता हूँ.... एक जगह टिका नही और फिर ना जाने क्यों मुझे विवाह की ज़रूरत महसूस हुई नही। मेरे विचारसे कुछ घटनाओं का निशित समय तय होता है, उस समय पे वो घटना घट्ही जाती है ,चाहे अच्छी हो या बुरी। हालात ऐसे बनते चले जाते हैं, घटनाक्रम इसतरह चलता है जो हमे उस एक विशिष्ट घटनासे जोड़ देता है। तुम्हारा क्या विचार है?"उसने मुझसे पूछा।


मेरे दिमाग मे उसकी बातें घूम रही थीं। सच ही तो था! वाकई घटनाओं के इस क्रमने तो मुझे इस मोड्पे लाके खड़ा कर दिया था जहाँ स्टीव से मेरा परिचय हुआ था। इस परिचय के पीछे, हमारी बढती घनिष्टताके पीछे प्रक्रुतीका क्या रहस्य होगा?

मैं कुछ देर रूक कर बोली,"हाँ स्टीव,तुम ठीक कहते हो। पता नही कौनसा रास्ता किस मंज़िलकी ओर ले जाये? कौनसी राह ना जाने किस मोड्पर किसी दूसरी राह्से मिलके ,दोनो राहें एकही बन जाएँ? हम तरफ से कितनाही सोंच विचार करके रास्तेका चयन क्यों ना करें,वो राह किन,मोडोसे गुजरेगी, किन,किन दोराहोपे हमे खड़ा करेगी, कौन जान पाया है??" ये कहकर मैंने स्टीव की ओर देखा तो वो बडीही एकाग्रतासे मुझे निहार रहा था।

"क्या देख रहे हो?",मैंने थोडी सकुचाहट से पूछा।

"तुम्हें देख रहा हूँ मीना, तुम कितनी अलग हो उन सबसे जो...",ये कहते,कहते वो रूक गया। फिर बोला,"भावावेशमे मैं कुछ गलत बात कह दूँ तो मुझे माफ़ कर देना।"

ऎसी कई अंतरंग शामे हमने इकट्ठी बिताई। जगह,जगह घूमने गए। बोहोत बार पूर्णिमा भी साथ चलती। इसी दरमियान नरेंद्र की चित्र प्रदर्शनी भी हो गयी। स्टीव उनके साथ मुम्बई भी हो आया। प्रसार माध्यमों ने नरेंद्र को बेहद सराहा।
प्रदर्शनी के बाद नरेंद्र दोबारा उतनीही लगन से अपनी चित्रकला मे फिरसे जुट गए। हम दोनोकी दिनचर्या साथ,साथ चलते हुएभी बिलकूल अलग थलग हो चुकी थी। कभी,कभी अपराधबोध के मारे वे पूर्णिमाके लिए ज़रूर थोड़ासा समय निकल लेते, लेकिन कलाके प्रती वे पूर्णतया समर्पित हो चुके थे। हाँ, कुछ समय अस्पताल के संचालन के लिए भी जाते, वो भी थोडा,थोडा मैं देखने लगी थी।

स्टीव इसी बीछ हफ्ते भर के लिए राजस्थान चला गया जब वो गया तो मैंने जाना कि, उसके बिना जीवन अब मेरे लिए किस कदर सूना होगा,और तभीसे मेरा लेखन आरम्भ हो गया रोज़ाना कुछ समय मैं लेखन के लिए निकाल लेती , बल्कि वो लेखन अब मेरे जीवन का अवश्यक अंग बनने लगा उस सारे लेखन को प्रकाशित करनेका निर्णय तो बाद में लिया गया......उस वक्त तो, मेरी डायरी, मेरी अभिन्न सहेली बन गयी....
क्रमशः ।

आकाशनीम.१४

स्टीव जानेके चौथे दिनही लॉट आया तो मुझे बड़ा आनंद मिश्रित अचरज हुआ।

"अरे तुम?" तुम को और चार रोज़ बाद आना था ना?मैंने पूछा।

स्टीव ने कहा ,"हाँ! लेकिन एक बात एकदम सच, सच बताऊँ तो बुरा तो नही मानोगी?"

"नही तो!"

"जानती हो मीना, मुझे हर सूर्यास्त के समय तुम्हारी बेहद याद आती। मुझे लगता किसीकी उदास-सी,बड़ी बड़ी आँखें मेरा इंतज़ार कर रही होन। मैंने सोंचा, जो थोडा और समय मेरा हिंदुस्तान मे बचा है, क्यों ना तुम्हारेही साथ बिताऊ?फिर ऐसा अवसर आये ना आये?"कहकर स्टीव ने बड़ी निश्छल निगाहों से मुझे देखा। मैं अन्दर तक सिहर गयी।

सच, स्टीव एक दिन चला जाएगा। फिर वही सूनापन, वही अकेलापन, अबकी बार कुछ ज़्यादाही, क्योंकी अब मुझ से मेरा कोई अत्यंत प्रिय व्यक्ती बिछड़ जाएगा, जी से मैं अपनी मर्यादायों की वजह से कह भी नही पा रही थी कि वो मुझे कितना अधिक प्रिय है। मरे जीवनमे उसका क्या स्थान है। नियति के चक्र मे ये निर्धारित नही था।

फिर रहे सहे दिनों मे हमारी दोस्ती और भी प्रगाढ़ होती चली गयी। एकदूसरेसे कितना कुछ खुलकर बतियाने लगे। स्टीव ने मेरे और कितने सारे स्केचेस बना डाले। पिछले बरामदे में गुज़री वो जादुई शामें, वही आकाशनीम,वही ढलता सूरज। वही तारोंभारा आसमान, दूर पश्चिम मे दिखती पहाड़ियां। यही दिन मेरे भविष्य का सहारा बन ने वाले थे। मैं इन दिनों का हर पल थाम लेना चाहती थी। हर एक पल को भरपूर जीना चाहती थी, जानती थी, ये लम्हें लौटकर फिर कभी नही आएँगे

स्टीव जिस दिन लौटने वाला था, उसकी पूर्व संध्या मे हम जब बरमदेमे बैठे तो मेरी हालत अजीब-सी थी। शायद स्टीव की भी रही होगी।कहना इतना कुछ था लेकिन उचित अनुचित के द्वंद्व मे कह नही सकी। तभी स्टीव की निगाहें मुझ पे ठहरी हुई महसूस हुईं। जैसेही मैंने उसकी ओर देखा, उसने कुर्सीकी हत्थे पे रखा मेरा हाथ थमा और कहा,"मीना,जीवन मे कभी कमजोर मत पडा। तुम कमालकी बहादुर औरत हो। मैं ऐसा कुछ नही कहूँगा या करूँगा, जिस से तुम कमजोर पड़ जाओ। लेकिन याद रखना,मैं कभी भी भुला नही पाउँगा"

उस एक लम्हे को थामकर मुझे सदियोंका सफ़र करना था। वही दो पलका स्पर्श मैं आजतक नही भुला पायी। जाडोंमे मैं रामनगर छोड़कर कभी कहीं नहीं जाती थी। इन्हीं दिनों तो स्टीव आया ..........इसी आकाशनीम की गंध तले उसने मुझे वो किरण दी थी, जिसकी मुझे चाह थी, जिस से मुझे तसल्ली कर लेनी चाहिए थी, लेकिन हुई नही थी........ असीम वेदना, विछोह की वेदना, जो स्याही से कागज़ पे उतरती रही, कभी सारे किनारे लांघकर बाढ्की तरह, कभी सयंत , संयमी नववधू की तरह............

स्टीव के जाने के बाद मेहमानों वाला कमरा मैंने अपना लेखन का कमरा बनवा लिया और मेहमानों के लिए घरके पूरब मे बाना एक कमरा ठीक करवा लिया।

स्टीव ने जाने के बाद दो पत्र लिखे जो मेरे और नरेंद्र के नाम पर थे। मैंने मन ही मन कितने जवाब दे डाले लेकिन पता नही क्यों,पत्रोंमे अपनी भावनाओं का प्रदर्शन करते हुए मेरे हाथ हमेशा रूक गए। जिस रास्तेकी कोई मंज़िल ना हो उस पर चलकर फिर लौटना पड़ जाये तो कितनी थकन ,कितना दर्द होता है, ये मैं जान गयी थी। और आगे बढकर लौटनेसे क्या फायदा? अधिक दर्द सहनेकी ताक़त मुझ मे नही थी, वोभी चुपचाप, पूर्णिमा, माजी,नरेंद्र, सबके आगे मुखौटा पहन कर। माँ-बाबूजी को तो मैंने अपने निजी जीवन की थाह कभी लगनेही नही दीं थी। उन्हें मैं कोई तकलीफ पोह्चाना नही चाहती थी।

उन दो पत्रों के बाद स्टीव की ओरसे और कोई पत्र नही आया। मुझे लगा,मेरे जीवनका एक निहायत सुन्दर अध्याय किसी सपनेकी तरह ख़त्म हो गया।

एक दिन देर रात मैं अपने कमरेमे लेखन कर रही थी लेकिन स्टीव की याद इस क़दर सता रही थी कि ना जाने मैं कब वहाँसे उठकर नरेंद्र के स्टूडियो मे चली गयी और अचानक से उनकी पीठ से लिपटकर रो पडी। उन्हों ने मेरी बाँह पकड़कर स्टूडियो मे रखी कुर्सी पे बिठाया और हलके,हलके मेरा सिर थपथपाते रहे। वे काफी देर खामोश रहे। जब मेरी सिसकियाँ कुछ कम हुई तो बडे प्यारसे बोले,"स्टीव की बोहोत याद रही है मीनू?"

मुझे काटो तो ख़ून नही! मैं चौंक कर खडी होने लगी ,"नरेन्द्र!!"

क्रमशः ।

आकाशनीम १५ ,

"घबराओ मत मीनू! ये कोई अदालत नही है। मैनेभी प्यार किया है। अगर तुम्हे स्टीव से प्यार हो गया तो कोई पाप नही है। अपराध तो तुमसे नियातिने किया है। आगे जब भी तुम्हरा दिल घबराए, तुम उदास महसूस करो, मेरे पास चली आना। यकीन मानो, मीनू, मैभी इन आँखों मे ऎसी गहरी उदासी देखता हूँ तो मेरा मन घबरा उठता है। आओ, तुम्हे पूर्णिमाके कमरेमे ले चलता हूँ।"

उस धैर्य और गाम्भीर्य की प्रतिमूर्ती के प्रती मैं और भी नतमस्तक हो गयी। इतने विशाल र्हिदयी पुरुषकी , इतने महान कलाकार की पत्नी होनेका सौभाग्य नियती ने मुझे दिया था लेकिन मेरे साथ ये विडम्बना भी कर डाली थी के ये रिश्ता केवल नाम मात्र के लिए हो कर रह गया था।
येही नियती का विधान था........

और माजी! वो स्नेह की उमड़ती अविरल धरा, जिसने बार, बार सरोबार किया था, जिसने मुझे दियाही दिया था, माँगा कुछ नही था, उनके बारेमे क्या कहूँ!!उनकी उम्र ज्यादा नही थी। मुझे याद आया, दीदी के विवाह का दिन, जब सब माजी को नरेंद्र की बड़ी बहन समझ रहे थे। तेजस्वी कान्ती,गौरवर्ण , काले घने बाल, फूर्तीली चाल,हँसमुख, शालीन चेहरा, किसेभी मोह ले! दीदीकी मृत्युने उनके जीवनके कई साल छीन लिए थे। वे बुढिया गयी थीं।

उनके मृत्युकी पूर्व संध्या मुझे याद है। बेहद कमजोर हाथोंसे उन्होने मेरे माथेको छुआ था और कहा था," बेटी, मैं तेरी रुणी हूँ। तूने पूर्णिमा और नरेंद्र के लिए, मेरे लिए, इस घरके लिए अपना जीवन अर्पण कर दिया। बदलेमे तूने क्या पाया ये मैं नही जानती, लेकिन क्या खोया ये जानती हूँ। किसी ना किसी रुपमे, कभी ना कभी, तेरा समर्पण तुझे फल देगा। इंतज़ार करना।"

मैं अवाक् सुन रही थी। मैंने उस दुबले पतले शरीरमे अपना मूह छुपाया और अपने आसुओं को राहत देदी। माजीने सूरजकी पहली किरनके साथ आख़री साँस ली थी....
क्रमशः

आकाशनीम. १६

पूर्णिमा अपनी दादीकी मृत्युसे हिल गयी थी। मेरा दुःख मैं शब्दोंमे बयाँ नही कर सकती। कहनेको वो स्त्री मेरी सास थी लेकिन मुझे कितनी अच्छी तरह समझा था! मेरी कमजोरी जानकार भी कभी मुझे उलाहना नही दीं थी, बल्कि उसे मेरा समर्पण कहा था। नरेंद्र अन्दरही अन्दर अपना दुःख पी गए। जब माजी की दहन क्रिया के बाद वे घर आये तो मैं उनसे लिपटकर ख़ूब रोई थी। तब ना तो वे मेरे पती थे,केवल एक हितचिन्तक, स्नेही, जो मेरी क्षती को, मेरे अपार दर्द को ख़ूब भली भाँती समझते थे। मेरी पीठ पर हाथ फिरकर वे मुझे सांत्वना देते रहे। उनके व्यक्तित्व मे महानता का एक वाले औरभी बढ़ गया। अन्दर ही अन्दर दर्द नरेंद्रनेभी बेहद सहा होगा।

मुझे कई बार महसूस होता जैसे नरेंद्र किसी अपराध-बोध तले दबें हो । माजीकी मृत्युके ठीक छ: साल बाद नरेंद्र को र्हिदय विकारका पहला झटका आया। उसमेसे तो वो बच गए, लेकिन दो साल के बाद जो दूसरा झटका आया उसमे वे नही बच पाए। एक महान कलाकार का, एक महान इन्सान का, जो मेरा पती था , लेकिन मेरी दीदीका प्रेमी था, अंत हो गया।

इतनी बड़ी हवेलीमे नौकरोंके अलावा केवल मैं और पूर्णिमा रह गए। नरेंद्र के बाद्के दो वरषोमे मैं और पूर्णिमा सहिलियाँ-सी बन गयी। पूर्णिमा मुझसे कभी कुछ नही छिपाती, नाही मेरी कोई बात टालती। वैसेभी वो अपनी उम्र से बढकर संजीदा थी। एक दिन उसने मेरा "आकाशनीम" काव्यसंग्रह पढा ,तो मुझ से पूछ बैठी,"मासिमा , तुम्हारी कवितामे इतनी वेदना क्यों है?क्या तुमने इतनी वेदनाका सचमुच अनुभव किया है?"

"पूर्णी, आज मैं तुम्हें अपने अतीतके बारेमे बिलकूल सच,सच बताऊँगी , एक सहेली मानकर,"
मैंने कहा और उसे उसकी माके बारेमे,स्टीव के बारेमे और उस स्नेहमयी औरत, जो उसकी दादी थी, सब कुछ बता दिया। बल्कि , नरेंद्र और माजी की प्रेरणा सेही मैंने अपने लेखनको प्रकाशित करना आरम्भ किया था।

पूर्णी मन्त्र मुग्ध-सी सुनती रही। जब मैं रुकी तो बोली," मासीमा! क्या स्टीव का पता तुम्हारे पास नही है?"

"पगली!!उस बात को बारह,तेरह साल बीत गए। ऐसे कोई मेरे इंतज़ार मे बैठा थोडेही होगा ?और फिर तू जो है, तू मेरे लिए क्या है तू खुद नही जानती........! ना जाने मैं ऐसे कितने जनम तुझ पे वार दूँ! सच मान, पूर्णी, मुझे अपनी औलाद ना होनेका एक पलभी कभी दुःख नही हुआ!!!"

मैंने उसका सर अपनी गोदीमे रखते हुए कहा। अठारह साल की पूर्णी कितनी नीला दीदी जैसी दिखती थी, उतनीही सुन्दर, नाज़ुक,उतनीही स्नेहमयी।

फिर उसेभी दिल्ली होस्टेल्मे जाना पड़ गया पढ़ाई के लिए। जाते समय हम दोनो पहले तो एक दूसरेसे छिपकर,फिर एकदूसरे को गले लगाकर कितना रोये थे! मैं उसे छोड़ने दिल्ली गयी थी,जब लौटी तो वो सफ़र मुझे कितना अंतहीन लगा था!!किसी दिन वो ब्याह के बाद चली जायेगी, तो मैं कितनी अकेली हो जाऊंगी, ये ख़याल कितना असह्य था। फिर वही वेदना, वही दर्द मेरी धमनियोंसे बहकर कागज़ पर उभरता रहा। मेरे प्रकाशित कव्यसंग्रहोने मुझे शोहरत के शिखर पे बिठा दिया,जहाँ उतनीही तनहाँ हूँ,जितनी के पहले थी.............."

इतना लिखके मीनाक्षीने कमरेकी घड़ीमे देखा। सुबह के चार बजने वाले थे। घड़ी के नीचे शीशम की एक लम्बी-सी मेज़ रखी हुई थी। उसे उसपर एक बंद लिफाफा नज़र आया। उसने अचरज से उसे उठाया और उसपे लिखा अपना नाम पढा। कुछ पल उसे विश्वास ही नही हुआ। स्टीव की लिखावट! उसने खोलनेसे पहले लिफाफेको काँपते हाथोंसे कुछ देर पकड़े रखा। कहीँ ये भ्रम ना हो!! फिर खोल के उसे पढने लगी,"............
क्रमशः

आकाशनीम( अन्तिम)

मीना,
सालोंबाद तुम्हारे नामके साथ, क्या, सँबोधन लिखूँ, नही जनता। लेकिन इतने सालोंबाद हिदोस्तान और फिर रामनगर खींच लानेवाली तुम्ही हो। मैं शाम जब रामनगर पोहोचा तो सीधे तुम्हारे घर आया। वहाँ आकर माँ जी के बारेमे ,नरेंद्र के बारेमे पता चला। मुझे बेहद दुःख हुआ। पता नही, इतने साल तुमने किस तरह अकेले काटे होंगे!!तुम भी घरपर नही हो सो मैंने होटल मे ठहरने का इरादा कर लिया चिट्ठी तुम्हारे बूढ़े नौकर रामूको देकर जा रहा हूँ। होटल का कार्ड साथमे है। तुमसे मिलनेकी बेहद इच्छा,इंतजार है। आशा है तुम चिट्ठी पढ़तेही मुझसे सम्पर्क ज़रूर करोगी।
तुम्हारा
स्टीव"
मीनाक्षी दौड़ते हुए हवेली के पिछवाडे गयी जहाँ रामूकाका का घर था और उन्हें ज़ोर जोरसे आवाज़ लगाके जगाया,"रामू काका!!ये चिट्ठी आयी थी और तुमने मुझे तुरंत बताया क्यों नही?"

रामूकाका हडबडा के बोले "बहूजी , मैंने आपके लिखने वाले कमरे मे रखी थी। फिर दो बार मैं आपसे कहने कमरेमे झाँक गया। आप लिखने मे एकदम खो गईँ थीं। मेरी आवाज़ भी नही सुनी, इसलिये उल्टे पैर लॉट गया। सोंचा,सवेरेही बता दूँगा....."
"अच्छा,अच्छा,अब ड्राइवर को तुरंत इस होटल के पतेपे भेजो। वहाँ स्टीव साहब रुके हैं, उन्हें लाना है,"कहते हुए उसने रामूकाका को होटल का कार्ड थमाया और दौड़ पडी आकाशनीम की तरफ....... तना पकड़ के उसे झकझोरा.... .... सफ़ेद,सुगन्धित फूलोंकी वर्षा हो गयी...... महक छा गयी.......

स्टीव गया था। उसका स्वागत करना था। अब उन्हें कोयीभी शक्ती दूर नही करेगी। नियती के घटना क्रम मे वो नियत क्षण गया था .....वो हारी नही थी.... उसने उस सुबह की, उस सुहाने सूर्योदयकी प्रतीक्षा की थी, जो जल्द ही होनेवाला था। एक निश्चित उष:काल.... ,सिर्फ भीक मे मिली सूरज की बिछडी किरण नही,शामकी लालिमाकी लकीर नही.......... ।

समाप्त
comment post naheen ho rahaa h ..likha h dil se
बेहद खूबसूरत कहानी..दिल को तो छूती ही है वहीं शिल्प और कथ्य के स्तर पर भी अद्भुत .. साहित्यिक और सिनेमाई दोनों निकष पर खरी ...ऐसी हकीकत बयानी कहाँ से सीखी अपने..जो दिल में उतर जाती है ..जिन्दगी बनके साथ हो जाती है

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Dushyant - JAIPUR - 98290-83476
my blog -
dr-dushyant.blogspot.com

Tuesday, March 24, 2009

Thursday, March 5, 2009

गज़ब कानून १

एक संस्मरण !.गज़ब कानून!

( अपनी श्रीन्ख्लासे एक ब्रेक लेके इस ज़रूरी संस्मरण को लिखना चाहती हूँ...वजह है अपने१५० साल पुराने, इंडियन एविडेंस एक्ट,(IEA) कलम २५ और २७ के तहेत बने कानून जिन्हें बदल ने की निहायत आवश्यकता है....इन कानूनों के रहते हमआतंकवाद या अन्य तस्करीसे निजाद पाही नही सकते...
इन कानूनों मेसे एक कानून के परिणामों का , किसीने आँखों देखा सत्य प्रस्तुत कर रही हूँ.....जिसपे आधारित एक सत्य घटनाका कहानीके रूपमे परिवर्तन करुँगी। डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल के अनुरोधपे " शोध दिशा" इस मासिक के लिए...)
CHRT( कॉमनवेल्थ ह्युमन राइट्स इनिशिएतिव .....Commonwealth Human Rights Initiative), ये संघटना 3rd वर्ल्ड के तहेत आनेवाले देशों मे कार्यरत है।
इसके अनेक उद्दिष्ट हैं । इनमेसे,निम्लिखित अत्यन्त महत्त्व पूर्ण है :
अपने कार्यक्षेत्र मे रिफोर्म्स को लेके पर्याप्त जनजागृती की मुहीम, ताकि ऐसे देशोंमे Human Rights की रक्षा की जा सके।
ये संघटना इस उद्दिष्ट प्राप्ती के लिए अनेक चर्चा सत्र ( सेमिनार) तथा debates आयोजित करती रहती है।
ऐसेही एक चर्चा सत्र का आयोजन, २००२ की अगस्त्मे, नयी देहली मे किया गया था। इस सत्र के अध्यक्षीय स्थानपे उच्चतम न्यायालयके तत्कालीन न्यायाधीश थे। तत्कालीन उप राष्ट्रपती, माननीय श्री भैरव सिंह शेखावत ( जो एक पुलिस constable की हैसियतसे ,राजस्थान मे कार्यरत रह चुके हैं), मुख्य वक्ता की तौरपे मौजूद थे।
उक्त चर्चासत्र मे देशके हर भागसे अत्यन्त उच्च पदों पे कार्यरत या अत्यन्त संवेदनशील क्षेत्रों से ताल्लुक रखनेवाली हस्तियाँ मोजूद थीं : आला अखबारों के नुमाइंदे, न्यायाधीश ( अवकाश प्राप्त या कार्यरत) , आला अधिकारी,( पुलिस, आईएस के अफसर, अदि), वकील और अन्य कईं। अपने अपने क्षेत्रों के रथी महारथी। हर सरकारी मेहेकमेकों के अधिकारियों के अलावा अनेक गैर सरकारी संस्थायों के प्रतिनिधी भी वहाँ हाज़िर थे। (ngos)

जनाब शेखावत ने विषयके मर्मको जिस तरहसे बयान किया, वो दिलो दिमाग़ को झक झोर देने की क़ाबिलियत रखता है।
उन्होंने, उच्चतम न्यायलय के न्यायमूर्ती( जो ज़ाहिर है व्यास्पीठ्पे स्थानापन्न थे), की ओर मुखातिब हो, किंचित विनोदी भावसे क्षमा माँगी और कहा,"मेरे बयान को न्यायालय की तौहीन मानके ,उसके तहेत समन्स ना भेज दिए जाएँ!"
बेशक, सपूर्ण खचाखच भरे सभागृह मे एक हास्य की लहर फ़ैल गयी !
श्री शेखावत ने , कानूनी व्यवस्थाकी असमंजसता और दुविधाका वर्णन करते हुए कहा," राजस्थान मे जहाँ, मै ख़ुद कार्यरत था , पुलिस स्टेशन्स की बेहद लम्बी सीमायें होती हैं। कई बार १०० मीलसे अधिक लम्बी। इन सीमायों की गश्त के लिए पुलिस का एक अकेला कर्मचारी सुबह ऊँट पे सवार हो निकलता है। उसके साथ थोडा पानी, कुछ खाद्य सामग्री , कुछ लेखनका साहित्य( जैसे कागज़ पेन्सिल ) तथा लाठी आदि होता है।
"मै जिन दिनों की बात कर रहा हूँ ( और आजभी), भारत पाक सीमापे हर तरह की तस्करी, अफीम गांजा,( या बारूद तथा हथियार भी हुआ करते थे ये भी सत्य है.....जिसका उनके रहते घटी घटनामे उल्लेख नही था) ये सब शामिल था, और है।
एक बात ध्यान मे रखी जाय कि नशीले पदार्थों की कारवाई करनेके लिए ,मौजूदा कानून के तहेत कुछ ख़ास नियम/बंधन होते हैं। पुलिस कांस्टेबल, हेड कांस्टेबल, या सब -इंस्पेक्टर, इनकी तहकीकात नही कर सकता। इन पदार्थों की तस्करी करनेवाले पे, पंचनामा करनेकी विधी भी अन्य गुनाहों से अलग तथा काफी जटिल होती है।"
उन्होंने आगे कहा," जब एक अकेला पुलिस कर्मी , ऊँट पे सवार, मीलों फैले रेगिस्तानमे गश्त करता है, तो उसके हाथ कभी कभार तस्कर लगही जाता है।
"कानूनन, जब कोई मुद्देमाल पकडा जाता है, तब मौक़ाये वारदात पेही( और ये बात ह्त्या के केस के लिएभी लागू है ), एक पंचनामा बनाना अनिवार्य होता है। ऐसे पंचनामे के लिए, उस गाँव के या मुहल्ले के , कमसे कम दो 'इज्ज़तदार' व्यक्तियों का उपस्थित रहना ज़रूरी है।"

श्री शेखावत ने प्रश्न उठाया ," कोईभी मुझे बताये , जहाँ मीलों किसी इंसान या पानीका नामो निशाँ तक न हो , वहाँ, पञ्च कहाँ से उपलब्ध कराये जाएँ ? ? तो लाज़िम है कि , पुलिसवाला तस्करको पकड़ अपनेही ही ऊँट पे बिठा ले। अन्य कोई चारा तो होता ही नही।
"उस तस्करको पकड़ रख, वो पुलिसकर्मी सबसे निकटतम बस्ती, जो २०/ २५ किलोमीटर भी हो सकती है, ले जाता है। वहाँ लोगोंसे गिडगिडा के दो " इज्ज़तदार व्यक्तियों" से इल्तिजा करता है। उन्हें पञ्च बनाता है।
" अब कानूनन, पंचों को आँखों देखी हकीकत बयान करनी होती है। लेकिन इसमे, जैसाभी वो पुलिसकर्मी अपनी समझके अनुसार बताता है, वही हकीकत दर्ज होती है। "पञ्च" एक ऐसी दास्तान पे हस्ताक्षर करते हैं, जिसके वो चश्मदीद गवाह नही। लेकिन कानून तो कानून है ! बिना पंचानेमेके केस न्यायालय के आधीन होही नही सकता !!
" खैर! पंचनामा बन जाता है। और तस्कर या जोभी आरोपी हो, वो पुलिस हिरासतसे जल्द छूट भी जता है। वजह ? उसके बेहद जानकार वकील महोदय उस पुलिस केस को कानून के तहेत गैरक़ानूनी साबित करते हैं!!!तांत्रिक दोष...A technical flaw !
" तत्पश्च्यात, वो तस्कर या आरोपी, फिर से अपना धंदा शुरू कर देता है। पुलिस पे ये बंधन होता है की ३ माह के भीतर वो अपनी सारी तहकीकात पूरी कर, न्यायालयको सुपुर्द कर दे!! अधिकतर ऐसाही होता है, येभी सच है ! फिर चाहे वो केस, न्यायलय की सुविधानुसार १० साल बाद सुनवाईके लिए पेश हो या निपटाया जाय....!

"अब सरकारी वकील और आरोपी का वकील, इनमे एक लम्बी, अंतहीन कानूनी जिरह शुरू हो जाती है...."
फिर एकबार व्यंग कसते हुए श्री शेखावत जी ने कहा," आदरणीय जज साहब ! एक साधारण व्यक्तीकी कितनी लम्बी याददाश्त हो सकती है ? २ दिन २ माह या २ सालकी ??कितने अरसे पूर्व की बात याद रखना मुमकिन है ??
ये बेहद मुश्किल है कि कोईभी व्यक्ती, चश्मदीद गवाह होनेके बावजूद, किसीभी घटनाको तंतोतंत याद रखे !जब दो माह याद रखना मुश्किल है तब,१० सालकी क्या बात करें ??" (और कई बार तो गवाह मरभी जाते हैं!)
" वैसेभी इन २ पंचों ने (!!) असलमे कुछ देखाही नही था! किसीके " कथित" पे अपने हस्ताक्षर किए थे ! उस " कथन" का झूठ साबित करना, किसीभी वकील के बाएँ हाथका खेल है ! और वैसेभी, कानून ने तहेत किसीभी पुलिस कर्मी के( चाहे वो कित्नाही नेक और आला अफसर क्यों न हो ,) मौजूदगी मे दिया गया बयान ,न्यायलय मे सुबूतके तौरपे ग्राह्य नही होता ! वो इक़्बालिये जुर्म कहलाही नही सकता।( चाहे वो ह्त्या का केस हो या अन्य कुछ) ।(IEA ) कलम २५ तथा २७ , के तहेत ये व्यवस्था अंग्रेजों ने १५० साल पूर्व कर रखी थी, अपने खुदके बचाव के लिए,जो आजतक कायम है ! कोई बदलाव नही ! ज़ाहिरन, किसीभी पुलिस करमी पे, या उसकी बातपे विश्वास किया ही नही जा सकता ऐसा कानून कहता है!! फिर ऐसे केसका अंजाम क्या होगा ये तो ज़ाहिर है !"


गज़ब कानून !२

Tuesday, February 17, 2009

गज़ब कानून..


जारी है, श्री शेखावत, भारत के माजी उपराष्ट्रपती के द्वारा दिए गए भाषण का उर्वरित अंश:
श्री शेखावतजी ने सभागृह मे प्रश्न उपस्थित किया," ऐसे हालातों मे पुलिसवालों ने क्या करना चाहिए ? कानून तो बदलेगा नही...कमसे कम आजतक तो बदला नही ! ना आशा नज़र आ रही है ! क़ानूनी ज़िम्मेदारियों के तहत, पुलिस, वकील, न्यायव्यवस्था, तथा कारागृह, इनके पृथक, पृथक उत्तरदायित्व हैं।

"अपनी तफ़तीश पूरी करनेके लिए, पुलिस को अधिकसे अधिक छ: महीनोका कालावधी दिया जाता है। उस कालावाधीमे अपनी सारी कारवाई पूरी करके, उन्हें न्यायालय मे अपनी रिपोर्ट पेश करनेकी ताक़ीद दी जाती है। किंतु, न्यायलय पे केस शुरू या ख़त्म करनेकी कोई समय मर्यादा नही, कोई पाबंदी नही ! "

शेखावतजीने ऐलानिया कहा," पुलिस तक़रीबन सभी केस इस समय मर्यादा के पूर्व पेश करती है!"( याद रहे, कि ये भारत के उपराष्ट्रपती के उदगार हैं, जो ज़ाहिरन उस वक्त पुलिस मेहेकमेमे नही थे....तो उनका कुछ भी निजी उद्दिष्ट नही था...नाही ऐसा कुछ उनपे आरोप लग सकता है!)
"अन्यथा, उनपे विभागीय कारवाई ही नही, खुलेआम न्यायलय तथा अखबारों मे फटकार दी जाती है, बेईज्ज़ती की जाती है!! और जनता फिर एकबार पुलिस की नाकामीको लेके चर्चे करती है, पुलिसकोही आरोपी के छूट जानेके लिए ज़िम्मेदार ठहराती है। लेकिन न्यायलय के ऊपर कुछभी छींटा कशी करनेकी, किसीकी हिम्मत नही होती। जनताको न्यायलय के अवमान के तहत कारवाई होनेका ज़बरदस्त डर लगता है ! खौफ रहता है ! "
तत्कालीन उप राष्ट्रपती महोदयने उम्मीद दर्शायी," शायद आजके चर्चा सत्र के बाद कोई राह मिल जाए !"
लेकिन उस चर्चा सत्रको तबसे आजतक ७ साल हो गए, कुछभी कानूनी बदलाव नही हुए।

उस चर्चा सत्र के समापन के समय श्री लालकृष्ण अडवानी जी मौजूद थे। ( केन्द्रीय गृहमंत्री के हैसियतसे पुलिस महेकमा ,गृहमंत्रालय के तहेत आता है , इस बातको सभी जानतें हैं)।
समारोप के समय, श्री अडवाणीजी से, (जो लोह्पुरुष कहलाते हैं ), भरी सभामे इस मुतल्लक सवाल भी पूछा गया। ना उन्ह्नों ने कोई जवाब दिया ना उनके पास कोई जवाब था।
बता दूँ, के ये चर्चा सत्र, नेशनल पुलिस commission के तहेत ( 1981 ) , जिसमे डॉ. धरमवीर ,ICS , ने , पुलिस reforms के लिए , अत्यन्त उपयुक्त सुझाव दिए थे, जिन्हें तुंरत लागू करनेका भारत के अत्युच्च न्यायलय का आदेश था, उनपे बेहेस करनेके लिए...उसपे चर्चा करनेके लिए आयोजित किया गया था। आजभी वही घिसेपिटे क़ानून लागू हैं।
उन सुझावों के बाद और पहलेसे ना जाने कितने अफीम गांजा के तस्कर, ऐसे कानूनों का फायदा उठाते हुए छूट गए...ना जाने कितने आतंकवादी बारूद और हथियार लाते रहे, कानून के हथ्थेसे छूटते गए, कितने बेगुनाह मारे गए, कितनेही पुलिसवाले मारे गए.....और कितने मारे जायेंगे, येभी नही पता।
ये तो तकरीबन १५० साल पुराने कानूनों मेसे एक उदाहरण हुआ। ऐसे कई कानून हैं, जिनके बारेमे भारत की जनता जानती ही नही।
मुम्बई मे हुए ,सन २००८, नवम्बर के बम धमाकों के बाद, २/३ पहले एक ख़बर पढी कि अब e-कोर्ट की स्थापना की जा रही है। वरना, हिन्दुस्तान तक चाँद पे पोहोंच गया, लेकिन किसी आतंक वादीके मौजूदगी की ख़बर लखनऊ पुलिस गर पुणे पुलिस को फैक्स द्वारा भेजती, तो न्यायलय उसे ग्राह्य नही मानता ...ISIका एजंट पुणे पुलिसको छोड़ देनेकी ताकीद न्यायलय ने की ! वो तो लखनऊसे हस्त लिखित मेसेज आनेतक, पुणे पुलिस ने उसपे सख्त नज़र रखी और फिर उस एजंट को धर दबोचा।
सम्पूर्ण
फिर एक बार क्षमा प्रार्थी हूँ...पिछले ६ घंटों से अधिक हो गया transliteration का यत्न करते हुए....