अग्निशामक दल, अम्ब्युलंस, नेताओं की गाडियाँ....इन सभीके बजते हुए सायरन....भीड़ को काबू मे लानेका यत्न करते पुलिस कर्मचारी....जख्मियों को ले जाती पुलिस, उनमे ख़ुद ज़ख्मी हुए पुलिसकर्मी भी थे, जो अपने बहते खूनकी परवाह किए बिना जुटे हुए थे...... एक सुरक्षा कर्मी , किसी ज़ख्मी व्यक्तिको उठाते हुए स्वयं बेहोश हो गिर गया......चंद पलोंबाद एक अन्य साथीने उसे मृत पाया और खींचके एक ओर कर दिया , शायद उस मृत साथीसे उसके मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहे होंगे, क्योंकि ,कुछ समय वो दौड़ भाग करते हुएभी रोता रहा ..... इनके अलावा अग्निशामक दलके कर्मचारी....अम्ब्युलंस से उतरे कर्मचारी....एक सीमाके परे, उन्हें सहायता करनेमे लगे कुछ स्वयमसेवक...और कुछ सिर्फ़ दर्शक....काफ़ी सारी प्रेस की गाडियाँ...अन्य इलाकोंसे आती खबरें.....शोर, धुँआ, बंदूकों से छूट रही गोलियों की आवाजें.....मोबाइल्पे चिपके लोग, या प्रेस के नुमाइंदे...टीवी कैमरे .....
एक ज़ख्मी व्यक्ती, जिसका हाथ शायद गोलियों से या बम फटने से तकरीबन छलनी हो गया था....और खूनसे जिस्म सराबोर, खुदको बचानेके लिए दौड़ रहा था....उसे अपने कैमरा मे क़ैद करनेके लिए, शायद किसी अखबारका नुमाइंदा उसके पीछे दौड़ रहा था....
बिखरी हुई लाशें...जो ज़्यादातर पुलिसवालों की थीं...क्योंकि वो लोग आतंकवादियों के निशानेपे थे...कोई आड़ नही थी...पर्याप्त हथियार नही थे......लेकिन जांबाज़ी थी....नजर आ रही थी....उस गोलाबारीमे निहत्थे घुस जाना आत्महत्या के बराबर था.....उसी महानगरमे अन्यत्र वही मंज़र थे....
उस इलाकेकी चौड़ी सड़क से परे हटके नजमा दत्ता की गाडी खडी थी। नजमा जी कुछ ५० सालकी उम्रकी होंगी। विलक्षण प्रतिभाशाली वकील....अपने सम्पूर्ण व्यावसायिक जीवनमे उन्हों ने कभी किसी गुनेह्गारका केस हाथ मे लिया नही था....ऐसा गुनेहगार जिसने केवल अपने स्वार्थ और ढेरों रुपयों के लिए ह्त्या की हो... ना कभी किसी बलात्कारीका केस लिया था...करोडोंको ठोकर मारती चली आ रहीं थीं। सम्बंधित व्यक्ती के चेहरेपे डाली एक तीक्ष्ण नज़र और पलभर मे केस लड़नेके लिए उनका इनकार....
अपने स्वतंत्र व्यवसाय के अलावा, वे एक भारतके प्रसिद्द अखबार और मासिक, साप्ताहिक, पाक्षिक समूह्से जुडी हुई थीं....आजभी हैं, उक्त समूह की कानूनी सलाहगार.... उसी अखबार समूहके लिए वे एक सदरभी लिखती तथा दो मासिकों मे आम लोगों द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब भी देती। अपने व्यक्तिगत या व्यावसायिक तत्वों को लेके उन्हों ने कभी समझौता नही किया...हर हालमे उनपे अडिग रहीं ...निर्भयतासे....हर राजनेता जानता था कि उन्हें गर कोई छूभी लेगा ,तो उसकी खैर नही.... जनता किसीको बक्षेगी नही.....जो आदर आर. के. लक्ष्मण के लिए लोगोंके दिलोंमे था, वही उनके लिए। जिस निर्भयता से श्री लक्ष्मण ने अपने व्यंग चित्र बनाए और व्यंग कसे....उसकी मिसाल नहीं.....उसी निर्भयतासे नजमा जीने अपना व्यवसाय किया और कॉलम लिखे...लिखती चली आ रहीं हैं...
उन्हें जैसेही इस आतंकी हमलेकी ख़बर मिली, वे अपनी खुदकी गाडीकी ओर दौड़ पड़ीं....अख़बारने मुहैय्या कराई गयी गाडी अखबार के ड्रायवर को सौंप दी.....खुदका चालक लेके वे इस मॉल के तरफ़ निकल पड़ीं... अन्य ८ इलाके छोड़ वो यहीँ क्यों आयीं, ये सवाल उनसे जुड़े कईयों के दिमाग़ मे आया....जो उनके बेहद करीबी थे, उन्हें उसका उत्तरभी मालूम था....जैसेकि उनके पती....श्री सुजोय दत्ता। अपने पतीको भी फोन कर उन्हों ने उनकी दोनों कारों सहित मौक़ाये वारदात पे तुंरत बुलाया.....इत्तेफ़ाक था कि श्री दत्ता उस दिन उसी महानगर मे थे....उनके दफ्तर से इस स्थलपे पोहोंचने के लिए, उन्हें पाँच अन्य मौकाये वारदातों के इलाकेसे गुज़रना पडा.....हर वाहन की कड़ी जाँच हो रही थी...नजमाजीने उन्हें दो पास शीघ्र भिजवा दिए थे....खबरके बाद एक क्षण भी उन्हों ने बरबाद नही किया।
दूरबीन और कैमरा तो उनके पास थाही, साथ एक नर्स कोभी बिठा लिया....प्रथमोपचार का जितना साहित्य उनके दफ्तर मे पडा था ,सब दो पलमे अपनी सीटपे दाल दिया....अपने पतीको निर्देश दिए कि इन हालातों मे जिन, जिन चीज़ों की ज़रूरत पड़ सकती है, और जोभी प्राप्त हो सकता है, लेते आयें.....हर दुकानने अपने शटर डाउन कर दिए थे।
दो विभिन्न मनोवृत्तियाँ साफ़ नज़र आ रहीं थीं....कुछ लोग इन वारदातों का फायदा उठाते हुए जीवनावश्यक दवाएँ और खाद्य पदार्थ, मूल कीमत से कई गुना अधिक मुनाफेपे बेचना चाह रहे थे। और कुछ ऐसेभी सज्जन थे, जो अपने घरोंसे खाद्यपदार्थ, दवाएँ, दूधके डिब्बे, पानी, और ना जाने क्या, क्या उठा लाये थे।देखने मे आया ,कुछ टैक्सी वालों ने लोगों की लाचारीका फायदा उठाते हुए, उनसे अधिक से अधिक पैसे कमाने की कोशिश की , पर अधिकतर ऐसे थे, जिन्होंने कमाने के बारेमे सोचाही नही....पेट्रोल ख़त्म हो गया तो , टक्सी रोक दी....
अस्पतालोंने आपातकालीन स्थिती ज़ाहिर करते हुए, खूनकी माँग कर दी थी....लोग वहाँ भी क़तारोंमे खड़े हो गए थे। फ़ख्र्की बात थी कि, स्कूलों के बच्चे कतारों मे सबसे आगे थे....कोलेज के विद्यार्थी भी, न केवल रक्तदान कर रहे थे, ज़ख्मीयों को स्ट्रेचर पे डाल, पुलिस ,अम्ब्युलंस आदि आपातकालीन सेवायों मे पूरी लगन के साथ मसरूफ थे...
कई लोग ज़ख्मी व्यकी, जिसके पास अपना कोई न हो, उन लोगों के साथ अस्पताल दौड़ रहे थे....किसीका धाडस बंधाते तो किसी माँ के बच्चे को खोजनेका वादा करते...उसके आँसू पोंछते.......इन्हीं परिथितियों मे मनुष्य का चरित्र साफ़ नज़र आता है॥!
कुछ लोग कफ़न बेच पैसा कामना चाहते हैं तो कुछ कफ़न, चिता, स्मशान, आदिकी जुगाड़ करते....क़बरिस्तानका पता लगते.....वैसे तो बिना शिनाख्त के आगेकी कुछभी कार्यवाई मुमकिन नही थी...पर जिसकी जो समझमे आ रहा, कर रहा था....
महानगर मे शीतलहर चली थी..... लोग अपने पासके ऊनी वस्त्र, ब्लांकेट्स, शालें, चद्दरें...जो उनके पास उपलब्ध था, लेके दौडे चले आ रहे थे....शुरू का दीवानगी भरा माहौल कुछ कम हुआ था.....वारदातकी घम्भीरता ज़हन मे पैवस्त हो रही थी....
अबतक ख़बर मिल चुकी थी कि ATS के बेहतरीन IPS के अफसर मारे गए थे....ऐसे अफसर, जिन्हों ने माँग के ये खतरनाक पोस्टिंग चुनी थी। इन जांबाजों को निर्भयता से झूझते हुए, उनके माँ, बाप, बीबी बच्चे ,भाई बेहेन , मित्रगन अभिमानसे , फिरभी बेबसी से विविध समाचार वाहिनियों पे देख रहे थे। उनके वो जांबाज़ अज़ीज़ ,पथराई आँखों के सामने भून दिए जा रहे थे...इन शहीदों पे पूरे देशको नाज़ था।
मीडिया अपने प्रश्नों से अफसरों को परेशान किए जा रही थी....प्रश्न भी कैसे," क्या आप लोगोंको पता है अन्दर कितने अतिरेकी छुपे हो सकते हैं?"
या फिर," आपको क्या लगता है कबतक ये कारवाई चल सकती है?"
"इनता सारा बारूद और हथियार आए और पुलिस को कुछ ख़बर नही?आपका महेकमा क्या सो रहा था?"
नजमाजी खामोशीसे सब गौर करती जा रही थीं....उनके मनमे आया, कि एकबार वे आगे बढ़के, उन जाबाजों के परिवारवालों का धाडस बंधाएँ...उन्हें महसूस कराएँ कि सारा देश आपलोगों के साथ है...हम दुआ कर रहे हैं....! किसतरह से उनकी आवाज़ उनतक पोहोचे??
अपनी दोनों गाडियाँ उन्हों ने जख्मी लोगों को अस्पताल ले जानेके लिए दे दीं....अपने पतीको भी, मौक़ाये वारदात पे पोहोंचेते ही उसी काम मे लगा दिया.....वे एक पेड़ से सटके खडी हो गयीं..अपना कैमरा और दूरबीन, एक विशिष्ट इमारत तथा उसकी खिड़की की ओर जम गयी थी॥
कुछ ही वर्ष पूर्व अपना राजस्थान के राज्यपालका कार्यकाल ख़त्म करके श्री प्रताप सिंह, जयपूरमे सपत्नीक रहने लगे थे। अपने जीवनके कार्य का आरम्भ उन्हों ने एक पुलिस कोंस्टेबल कि हैसियतसे शुरू किया था। मीलों फैले रेगिस्तान मे उन्हों ने बरसों गश्त की थी। उस सेवामे तैनात उन्हों ने कई बार तस्कर पकड़े थे, लेकिन २५० साल पुराने, कालबाह्य हुए कानूनों के आगे हमेशा उन्हें मात खानी पड़ी थी। उन्होंने अपने सेवाकाल मे रहते, रहते,अपने बड़े बेटेको IPS का अफसर बनाया। उसके बाद उन्होंने अपना त्यागपत्र दे दिया।
पुत्र को UTI का काडर मिला। वैसे तो उसका चयन, IFSमे हुआ, जो अपनेआपमे एक विलक्षण उपलब्धी थी। लेकिन उसने अपने पिताकी तरह पुलिस मे आना तय कर लिया। चाहता तो वो राजस्थान काडर ही था , पर वो किसी वजहसे नही दिया गया।
पिताने अपना त्याग पात्र देनेके कुछ ही माह पहले बारूद की तस्करी करनेवाले बोहोत बड़े गिरोह का सुराग लगाया .....बेहद जद्दोजहद की......मीडिया ने भी इस समाचार को बेहद संजीदगी से लिया। जनताका काफ़ी दबाव भी पड़ रहा था, पर वही २५० वर्ष पुराना ,घिसा पिटा कानून आड़े आ गया!
इंडियन एविडेंस एक्ट (IEA)मे दफा २५ तथा २७ के तहत , मुद्देमालका पंचनामा मौक़ाये वारदात पे होना ज़रूरी था । मीलों फैले रेगिस्तान मे , सुबह ऊँट पे सवार, एक पुलिस कर्मी , जो अपने साथ थोडा पानी , कुछ खाना, एक लाठी , कागज़ पेन्सिल जैसा लिखनेका ले,गश्तीके लिए निकल पड़ता ...अक्सर कई पुलिस स्टेशन्स की सीमायें १०० मीलसे अधिक लम्बी होती हैं ...ऐसे रेगिस्तान मे, जहाँ किसी इंसान का ना, पानीकी एक बून्द्का अता पता न होता , पञ्च कहांसे लाता ?
राजस्थानसे सटी भारत-पाक सीमा हर तरह की तस्करीके लिए आसान जगह रही है। गश्तीपे निकले , प्रताप सिंह को , पंचनामेके लिए काफ़ी हदतक बारूद तो बरामद हुआ, लेकिन कानून के हत्थेसे तस्कर छूट गया ।
कानूनन , अव्वल तो एक constable, हेड constable, या सब-इंसपेक्टर इसतरह की तस्करी की छान बीन नही कर सकता है। इन पदार्थों की आड्मे बारूद और हथियार लाना कठिन नही था !! ऊँट
pe सवार प्रताप सिंह उस तस्करको किसी तरह १५ मील दूर एक गाँव मे तो ले आए पर जिसके दफा २५ के तहत चश्मदीद गवाह ( कमसेकम दो तथाकथित 'इज्ज़तदार' व्यक्ती ) पंचों के तौरपे मिल जाना ????
उन्हें काफ़ी गिडगिडाना पडा , तब जाके दो लोगों ने पंचनामेपे हस्ताक्षर किए। अब ज़ाहिर था , कि पंचनामा मौक़ाये वारदातपे तो नही हुआ ! ऐसे मे चश्मदीद गवाह कहाँसे मिलते ??जो कुछ प्रताप सिंह ने लिखा, उसीपे हस्ताक्षर हुए!! तस्करको पुलिस कस्टडी से छुड़वा लेना, उसके 'काबिल' वकील के लिए, बाएँ हाथ का खेल था ! ना पंचनामा मौक़ाये वारदात पे हुआ था ,ना हस्ताक्षर करनेवाले पञ्च चश्मदीद गवाह थे ! तस्कर फिर तस्करीके लिए आजाद ! और पुलिस को हर हालमे अपनी सारी तफ़तीश पूरी कर, ३ माहके भीतर न्यायालय मे रिपोर्ट पेश करना ज़रूरी ! वो पेश कियाभी गया !
पर विडम्बना देखिये, न्यायालय पे समय की कोई पाबंदी नही !! केस न्यायालय की सुविधानुसार शुरू होना था और पता नही कितने बरसों बाद ख़त्म होना था !
किसीभी साधारण व्याक्तीको आंखों देखी भी घटना कितने अरसेतक याद रह सकती है ? २ दिन, दो हफ्ते दो माह , या दो साल ? तो १० सालकी क्या बात करें? गर गवाह चश्मदीद होते तो भी, वो घटनाके कितने तपसील , इतने सालों बाद तक ,याद रख पाते ? कितने गवाह अपना समय बरबाद करने न्यायलय आते और घंटों प्रतीक्क्षा करनेके बाद," अगली तारीख" की सूचना पाके लौट जानेपे मजबूर हो जाते??क्या न्यायालय का गवाहों के प्रती कोई उत्तरदायित्व तय नही ?
कई बार तो न्यायालयीन ,लम्बी चौड़ी, पेचीदा प्रक्रिया से परेशान हो , साफ़ कह देते, हमसे ज़बरदस्ती हस्ताक्षर करवाए !ऐसी सलाह तो आरोपी के वकील ही उन्हें दे दे दिया करतें हैं!! पुलिसवाला, चाहे वो कितनाही नेक और आला अफसर क्यों न हो, मौजूदा कानून की निगाहोंमे गवाह नही हो सकता !!...नही किसी पुलिस्वालेके सामने दिया गया इकबालिया बयान न्यायालाय्मे दर्ज किया जा सकता ...वो न्यायालय को ग्राह्य नही.....ज़ाहिर है, पुलिसवाला गवाह नही, क्योंकी कानून कहता है, उसके शब्द्पे विश्वास नही करना चाहिए ! और ये कानून
, १५० साल पूर्व , अंग्रेजों ने अपनी सुरक्षा के लिए बनाए थे ....इन कानूनों से आज हमारे देशद्रोहीयों को सुरक्षा मिल रही है ...!प्रताप सिंह जैसा अत्यन्त सदसद विवेक बुद्धी वाला व्यक्ती करता भी तो क्या करता ? न्यायालय से फटकार सुन लेनेकी आदत तो पुलिस को होही जाती है। बेईज्ज़तभी सरेआम कराये जाते हैं...सिर्फ़ कोर्ट मे नही....उसमे मीडिया भी शामिल और जनताभी ...उपरसे डिपार्टमेंटल तफ्तीश ....कई बार उसका सस्पेंशन आर्डर ...
अबतक उनका बेटा अफसर बन चुका था। उन्होंने अपना त्यागपत्र दे दिया। तस्करसे हुई हाथापायीमे उनकी रीढ़ की हड्डीमे काफ़ी चोट आयी थी। लेकिन तहकीकात के दौरान उस तस्करसे इसबार काफ़ी कुछ मालूमात हाथ लग गयी थी। तस्करी करनेवालों के गिरोह ने
उन्हें खुलेआम धमकी भी दी थी।
त्यागपत्र के बाद प्रतापसिंह ने कानून के कई पहलुओं का गहरायीसे अभ्यास किया। इतना कि वो वकील बन गए !कोई कुछ करनेका ठान ले तो क्या नही हो सकता ??उन्हों ने अख़बारों मे लिखना शुरू कर दिया। अपने पुलिस मेहेकमे मे कार्यरत रहते आए हुए अनुभवों की भव्य और नायाब पूँजी थी उनके पास। राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों मे जनजागृती होने लगी। लोगों ने ख़ुद होकेभी पुलिस कर्मियों को मदद करनी शुरू कर दी।
जब राजस्थान मे राज्यपाल की नियुक्तीका समय आया तो लोगों ने उनके गाँव के घर ताँता लगा दिया। उन सब बातों की गहराईमे जानेसे अब कुछ हासिल नही, लेकिन प्रताप सिंह राजस्थानके राज्यपाल बन गए। उसी साल उनकी पत्नीकी बडेही अजीबो गरीब हालातमे मौत हो गयी। तहकीकात के सूत्र ,उस तस्करों के गिरोह तक पोहोंच गए ! तस्कर तो सीमा पार गुनाह करके पनाह लेही लेते।
पर इसबार एक गद्दार राजस्थानमे ही था। ऐसे भेसमे कि किसीको कतई शक ना हो !! प्रताप सिंह जीके पाठशाला का वर्गमित्र !!
उनके राज्यपाल पदके ५ साल पूरे होने आए थे। बेहद हरदिल अज़ीज़ राज्यपाल रह चुके थे। उनके निरोप समारोह चल रहे थे। राजस्थान मे भिन्न भिन्न जगाहोसे न्योते थे।
तत्पश्च्यात, जोधपुर मे बने उनके पुश्तैनी मकान मे जाके वे अपनी उर्वरित ज़िंदगी बिताना चाहते थे। वहाँ उनके अन्य तीन छोटे भाई भी अपने अपने परिवारों के साथ रहते थे। भरा पूरा घर था। इनकी ज़रूरतें तो नाके बराबर थीं।
सोच रखा था, कि बच्चों को कुछ पढायेंगे, उनमे मन लगा रहेगा।
इनका अपना बेटा पुलिस की नौकरीमे लगे दस सालसेभी अधिक हो गए थे। उसके दो बच्चे थे। सब अपनेआपमे मस्त थे। रोज़मर्रा की तरह, उशक:कालके समय वे घूमने निकले। और जब बड़ी देरतक घर नही लौटे तो, खोजबीन शुरू हो गयी....कहीँ नामोनिशान नही...बेटेको तो ख़बर दिलवाही दे गयी थी।
तह्कीकातके चक्र घूमने लगे और फिर उसी गिरोह के पास पोहोंचे..... तकरीबन १५/१७ साल पहले उन्हों ने जो गिरोह पकडा था, उसके बारेमे सबसे अधिक जानकारी इन्हें ही थी। सालोंसे केस चल रहा था। सीमा पार ले जाके उनकी हत्या कर दी गयी थी।लेकिन इस बार असली गद्दार तो ख़ुद जोधपूर मेही था....एक ऐसे भेसमे , कि किसीको क़तई शक ना हो....उनका अपना पाठ्शालाका वर्गमित्र...!उनका लंगोटी मित्र....विक्रम सिंह....जिसके नाम परसे उन्हों ने अपने बेटेका नाम रखा....!!!उनकी अर्थी मे शामिल हो उसने उन्हें कान्धा दिया....जिसके कान्धेपे सर रख उनका बेटा, पिता के मृत्यु पश्च्यात रोया.....तहलका मच गया...कैसा भयंकर विश्वासघात !!उसने अपने आपको शायद ज़्यादाही अक़लमंद समझा......और चूक गया.....!
अनजानेमे उनकी पत्नीही कुछ ऐसा बोल गयी कि वो शक के घेरेमे आ गए.....वजह केवल चंद रुपये नही थी...असली वजह थी अपने वर्गमित्र से विलक्षण असूया....उनकी लोकप्रियता....उस कारण इतनी ईर्षा के वो आतंक वादियों से मिल गया...देशद्रोहीयों से मिल गया और अपने देशका जिसने इतना भला किया था...उस बचपनके दोस्तका हत्यारा बन गया.....
सिर्फ़ जोधपूरमे नही, पूरे राजस्थान मे शोक की लहर फ़ैल गयी। पुलिस मेहेकमे मे भी उन्हें बड़ी इज्ज़त से याद किया जाता था । आतंकवादियों के ख़िलाफ़ उन्हों ने जो जंग शुरू की , उसीमे शहीद हो गए। उनके परिवार मे आतंक का ये दूसरा बली चढ़ा...पहली बली चढी थी उनकी पत्नी ....
नजमाजी को ये पूरी पारिवारिक पार्श्व भूमी पता थी। प्रताप सिंह का बेटा, विक्रमसिंह उनकी सगी बेहेन का दामाद था । पिछले साल उनकी उस एकलौती बेहेन और जीजाकी, एक भयंकर रेल दुर्घटना मे मृत्यु हो गयी थी। जिस बिल्डिंग काम्प्लेक्स मे आग लगी हुई थी , उसीमे उनके बेहेन बेहनोयीका फ्लैट था । उनकी बेटी इकलौती ऑलाद थी। एक प्रतिभाशाली भरत नाट्यम की साधक और अत्यन्त स्नेहिल मिज़ाजकी धनी ।
बेहेन बहनोई के मृत्यु पश्च्यात वो घर बेटी मासूमा के नाम हो गया । विक्रम सिंह और मासूमा की वाक़्फ़ियत और फिर प्रगाढ़ , दोनोंके कॉलेज के दिनोंमे हुई थी। विक्रम ने राज्यशास्त्र लेके B.A.किया था , आगेकी पढाई के लिए उसने दिल्ली विद्यापीठ्मे प्रवेश लिया । स्वर्णपदक प्राप्त करते हुए उसने राज्यशास्त्र मे M.अ.किया । वो शतरंज का उत्तम खिलाड़ी था ।एनी मैदानी खेलों मे भी उसने नेत्र दीपक उपलब्धियाँ पायीं थी।
मासूमा ने संगीत- नृत्य लेके पदव्युत्तर पढ़ाई की थी। उसके एक नृत्य -संगीत कार्यक्रम की पेशकश के दौरान, विक्रम का उससे परिचय हुआ । मासूमा मुस्लिम परिवारमे पली बढ़ी थी पर दोनों परिवारों मे किसीकोभी, किसी क़िस्म का ऐतराज़ नही था ।
जिस वक्त ये आतंकी हमला हुआ , विक्रम देहली मे कार्यरत था । शानिवारका दिन था वो। वैसे तो विक्रम को शायदही कभी छुट्टी नसीब होती लेकिन शुक्रवार के दिन उसके पैरमे एक ज़ोरदार चोट लग गयी और पैर ऐसा सूज गया कि , चलना मुश्किल हो गया । डॉक्टर ने उसे कुछ रोज़ पैर बिल्कुल्भी ना हिलानेकी हिदायत दी। असलमे वो बेहतरीन घुड़सवार था। शुक्रवारकी शाम एक मित्र के stud फार्म पे गया और उसके आग्रह करनेपे उसने एक ज़रा बदमाश घोडेकी सवारी करनी मंज़ूर की । फार्म के दो चक्कर तो घोडेने बड़ी खूबीसे लगाये और आखरी , यानी तीसरा खतम्ही होनेवाला था कि बिदक गया । विक्रमने बेहद शिकस्तसे अपनेआपको सिरके बल गिरनेसे बच्चा लिया .... लेकिन पैरमे ligament tear हो गया । । दर्द तो होनाही था।इलास्टो प्लास्ट लगाके चंद रोज़ घरपे रहनेके अलावा और चारा न था ।
उसी दिन सवेरे उनका बड़ा बेटा अपने एक मित्र के साथ ट्रेकिंग के लिए गया था । बम्ब्लास्टके वक्त विक्रम, मासूमा और छोटा बेटा, सूरज , घरपेही थे।
पत्नी के कहे मुताबिक उसने सरकारी मकान मुहैय्या होनेतक, उसी बिल्डिंगमे रहनेका फैसला कर लिया था । केवल चार माह पूर्व वो चंदिगढ़से तबाद्लेपे देहली आ गया था ।
नाजमाजीसे पुलिस कंट्रोल रूम संपर्क रखे हुए था । नजमाजी और उनके पती अपनी , अपनी ओरसे ज़ख्मियों की मदद भी कर रहे थे। श्री दत्ताने अपनी दोनों कारें पुलिस को दे दीं थीं । अस्पतालोंके चक्कर वो गाडियाँ काटे जा रहीं थीं । लेकिन नजमाजी अपनी कार लिए अडिग खडी रहीं।
आतंकवादियों ने मॉल , वो बिल्डिंग काम्प्लेक्स और पासका एक मल्टीप्लेक्स अपने कब्ज़मे कर लिया था ।
दूसरा दिन निकल आया । मरनेवालोंकी संख्यामे इज़ाफा होता जा रहा था..... और फिर वो ख़बर मिलही गयी.... विक्रम, मासूमा और छोटा पुत्र सूरज ..... तीनो आगके भक्ष्य बन गए थे।
बड़ा बेटा अपनी माँ की मासी के पास आ गया था ........जिसे वो नानीमासी कहके बुलाता था....... ज़बरदस्त सदमेमे था....... बधीरसा हो गया था । उस बिल्डिंग के पास से हटना नही चाह रहा था । उसके माता पिता और छोटे भाईके मृत देह किस अवस्थामे होंगे ये तो उसके दिमाग़ के परे था। वो मृत हो गए हैं, येभी उसका मन मान नही रहा था । शायद ये कोई दुस्वप्न होगा ...उसमेसे वो जाग जायेगा और फिर वही हँसता खेलता परिवार होगा ...
नजमाजी से चिपकते हुए उसने पूछा ," ये आग कब बुझेगी ? ये क्यों लगाई गयी? क्यों बम फेंके गए? "
नजमाजी के गालोंपे आसूँओ की झडी लगी हुई थी....क्या जवाब था उनके पास ? कब ख़त्म होगा ये आतंक...? कब हमारे, हमारी सुरक्षा यंत्रणा को अपाहिज करनेवाले कानून बदलेंगे ? बदलेंगेभी या नही??
उतनेमे फिर उस बच्चे ने उनसे पूछा ," मुझे बड़ा होनेमे और कितना समय है?"
"क्यों बेटा, ऐसा क्यों पूछ रहा है तू ? "नजमाजीने भर्राई हुई आवाजमे पूछा ...
" क्यों कि नानीमासी , मै बड़ा होके मेरे बाबाकी तरह पुलिसका अफसर बनूँगा ....इन गंदे लोगोंसे लडूँगा ...पूछूँगा ...आपका किसने क्या बिगाडा था , जो मेरे अम्मी बाबाको, मेरे भाईको, जला दिया ? क्या मै ऐसा कर सकूंगा ? क्या मै इन गंदे लोगोंको पकड़ सकूँगा ? नानीमासी , अगर ये लोग नही पकड़े गए तो क्या ये फिर बम फेंकेंगे ??नानी , इन्हों ने ऐसा क्यों किया ?? बोलिए ना नानी ...? नानी , मुझे मेरे अम्मी बाबा को देखना है..छोटू कोभी देखना है..... पर वो मुझे तो नही देख सकेंगे, हैना ? तो उन्हें कैसे पता चलेगा कि मै रो रहा हूँ ??और नानी अब मुझे कौन बड़ा करेगा ?? बच्चों को तो उनके अम्मी बाबा बड़े करते हैं??अब मेरा क्या होगा??"
उसके हरेक सवालके साथ एक ओर नजमाजीका कलेजा फटता जा रहा था , तो दूसरी ओर मनमे एक ठाम निश्चय जन्म ले रहा था.....अब आज़ादीकी दूसरी जँग छेड़नेका समय आ गया है......अग्रेजोंके बनाये उन १५० साल पुराने कानूनों से मुक्त होनेका वक्त आ गया है.....मै करूँगी इसकी शुरुआत......मै Dr. धरमवीर ने सुझाये पुलिस reforms को लागू करनेकी अपील ज़रूर करूँगी .....एकही परिवारकी ३ पीढियाँ ,Indian Evidence Actके दफा २५ और २७ ने निगल लिया । आतंकी दहशत मचाके फरार होते गए....
बस अब और नही...किसीने तो क़दम उठानाही होगा ...वरना ....औरभी एक पीढी , वोभी इसी परिवारकी , बली चढेगी ...?? और ऐसे कितनेही कानून हैं, जिन्हें भारतकी जनता जानतीही नही ? कौन उत्तरदायित्व लेगा ? हमारी न्यायव्यव्स्थामे कौन सुधार लायेगा ??जो आतंकके ख़िलाफ़ लड़ते हैं, वो ख़तावार ठहराए जाते हैं, और कानून आतंक फैलानेवालों को बचानेमे कोई कमी नही रखता...?
उन्हों ने बच्चे को कसके अपने सीनेसे लगाया...आसपास उस परिवारको जाननेवालों की भीड़ बढ़ती जा रही थी......विक्रमके अन्य साथी...उनके परिवार ....वो सब अब नजमाजीकेही घरपे जमेंगे .....मासूमा और विक्रमका तो घरही नही बचा .....और फिर उन्हें इस बच्चे को बचाना है......नही, इन घिसेपिटे कानूनों के तहेत ये बच्चा मौतके घाट नही उतरेगा ....
नजमा जीके घर लोग इकट्ठे होते गए...दिनों तक ये सिलसिला जारी रहा....और नजमा जी अपना प्रण पूरा करनेकी ओर धीरे, धीरे क़दम बढाती रहीँ....बढाती जा रही हैं....आजभी उनकी जंग जारी है.....
अभी तो शुरुआत है....कारवाँ और बढेगा......मंज़िल दूर है, पर निगाहों मे है.....इरादे बुलंद हैं.....मन साफ़ है.....सही इरादा...सही राह.....एक निश्चयके साथ आगे बढ़ते क़दम......कोई रोक नही सकता.....कोई भी नही.....गर मैदाने जँग मे वो गिर गयीं तो क्या..... कोई और इस जँग को आगे बढायेगा....लेकिन अब सिलसिला थमेगा नही.....अब इस जँग मे शामिल सिपाहियों की क़तारें बढ़ती ही रहेँगी....नए कारवाँ बनते रहेँगे....नए क़ाफ़िले सजते रहेँगे.....सिपहसालार चाहे बदल जाएँ....
समाप्त
Transliteration के लिए फिर ekbaar kshamaa praarthee hun....
सूचना: कहानीके सब किरदारों के नाम, पोस्ट तथा इलाके बदले गए हैं।
बढ़िया है, जारी रखें.
एक सुझाव देना चाहता था कि पोस्ट करने के पहले थोड़ा अगर एडिट कर लें तो जो दो शब्द आपस में जुड़ गये हैं-उन्हें ठीक किया जा सकता है. पठनीयता सरल हो जायेगी.
सुझाव मात्र है, कृप्या अन्यथा न लें.