Saturday, August 15, 2009

याद आती रही...१० ( अन्तिम)

( पूर्व भाग: विनीता ने e-mail लिखनी शुरू कर दी..)

'मै, विनीता वर्मा, उम्र ३७, कहना चाहती हूँ: विनय श्रीवास्तव तथा उनका परिवार, बरसों हमारे परिवार के पड़ोसी रहे।
ये तब की बात है,जब मै अपने परिवार के साथ बांद्रा , पाली हिल, पे रहते थी । विनय ने मुझ से शादी का वादा किया था। हम दोनों एकसाथ घूमते फिरते रहे।

बाद में वह आगे की पढाई के लिए लन्दन चले गए। कुछ मुद्दत तक उनके पत्र आते रहे, फिर बंद हो गए। बाद में मेरी अन्य जगहों पे शादी की चर्चा चली। लेकिन जहाँ भी बात चलती, पता नही, मेरे तथा विनय के संबंधों के बारे में बात पता चल जाती।

अंत में, मैंने तंग आके शादी के लिए मना कर दिया। मै अपनी नौकरी में रमने लगी। उस दरमियान पहले तो मेरी माँ की मृत्यु हो गयी और बाद में पिताजी की। पिताजी के मौत के पूर्व हमने अपना घर बदल लिया। हम बांद्रा छोड़, इस मौजूदा फ्लैट में रहने चले आए।

कल शाम अचानक, विनय मुझे एक बस स्टाप पे मिल गया। मुझे काफी हाउस ले गया, तथा आज मेरे घर आने का वादा किया। हम कुछ देर बाहर घूमने जानेवाले थे।

औरत, शायद, कुछ ज़्यादाही भावुक होती है। मैंने उसकी बातों पे विश्वास कर लिया। वो शाम चार बजे आनेवाले था। मैंने तैयार होके उनका इंतज़ार किया चार बजेसे लेके रात ११ बजे तक.....

मै सिर्फ़ कारण जानना चाहती थी,कि, विनय ने मेरे साथ ये व्यवहार क्यों किया..क्यों लन्दन जाने के बाद, मुझे अपने जीवन से हटा दिया...फिरभी मैंने सोचा, छोड़ो, बीती बातों को क्यों दोहराना...

लेकिन,मेरी क़िस्मत में ये एक मुलाक़ात भी नही लिखी थी...इस धोके बाज़ इंसान पे मुझे इतना विश्वास भी नही करना चाहिए था...इसने मेरी हत्या तो नही की,पर ,मेरी जीने की सारे तमन्ना ख़त्म कर दी। मेरे प्यार भरे दिलको समझाही नही...

विनय के ख़त मेरे ड्रेसिंग टेबल की सबसे ऊपर वाली दराज़ में पड़ें हैं...जिनमे शादी का बार बार ज़िक्र है। हमारी साथ,साथ ली हुई तस्वीरें भी हैं...जब तक ये ख़बर छपेगी या लोगों/बहन बहनोई तक पहुँचेगी, मै दुनियामे नही रहूँगी।

इसे कोई मेरी कायरता समझना चाहे तो समझे...लेकिन उम्र की उन्नीस साल से लेके सैंतीस साल तक जो वक्त मैंने गुज़ारा है, गर वह कोई गुजारता ,तो, समझता ,कि, बहादुरी और कायरता में क्या फ़र्क़ है...खैर! जिसको जो समझना है, समझे...

निशा दीदी, जीजाजी, तुम अफ़सोस मत करना। मुझे जीजाजी पे बेहद नाज़ है। न कोई कसमे खाईं, ना वादे किए, कितनी सादगी से साथ निभाया.....

बच्चों को मासी की तरफ़ से ढेर सारा प्यार।

विनीता वर्मा।

ये ख़त कम्पोज़ करके उसने, अलग अखबारों ,पुलिस स्टशन पे ,तथा निशा दीदी को फॉरवर्ड कर दिया। फिर रसोई से एक तेज़ छुरी ले आयी और फर्श पे लेटे,लेटे कभी कलाई की, तो कभी कहीँ की, नसें चीरने लगी...खून बहने लगा...सिंगार मिटने लगा...ना जाने कब उसके प्राण उड़ गए...

समाप्त।

Monday, August 10, 2009

याद आती रही ९

(पूर्व भाग : एक बार फिर घंटी बजी...)

जैसेही इस बार घंटी बजी, विनीता को यक़ीन हो गया कि,अबके विनय ही होगा...उसके घर वरना आताही कौन था? गालों पे लालिमा छा गयी..शर्म के मारे,चेहरा तमतमा गया..कितने बरसों बाद...! क्या वो बाहों में भर लेगा...या..?उसने दरवाज़ा खोला...तो सामने खड़ी थी पड़ोस की नौकरानी..रूक्मिणी...एक कटोरी लिए....

"हमारी में साब ने पूछा है,चीनी है क्या? एकदमसे मेहमान आ गए हैं...और बाज़ार से लानेमे समय लगेगा...देर हो जायेगी..करके मै..."

विनीता ने लपक कर उसके हाथ से कटोरी लगभग छीन ली...और चीनी भर के पकडा दी..रूक्मिणी तब तक उसे ऊपरसे नीचेतक, बड़े ही गौरसे निहारती रही...कितनी सुंदर लग रही थी...ये लडकी...इतनी सुंदर दिखी हो,पहले,उसे याद नही आ रहा था...!

चीनी लेके रूक्मिणी रुक्सत हो गयी..घड़ी का काँटा सरकता रहा..साधे चार बजे...फिर पाँच बजे...फिर सात...और न जाने कब रात के ग्यारह.....

बाहर ज़ोरदार बूँदा-बांदी हो रही थी..काश ! काश ! निशा दीदी पास होतीं...! उनके गले लग वो खूब रो लेती...काश...! विनय उसे कल मिला ही नही होता..काश ! कल उसने विनय को अपने घर आने के लिए मना कर दिया होता॥! बेरहम वक़्त ! एक भी गलती माफ़ नही करता...! कभी नही करता...

अब उसे अगले दिन दफ्तर जाना मंज़ूर ना था..अब फिरसे कोई आस, न सहारा न साथ...सिर्फ़ अकेलापन...गहरी तनहाई...कैसे कटे जीवन? किसी के इंतज़ार में निगाहें दूर दूरतक जाके लौट आयेंगी...क्या करे अब वह? विनय को उसकी ज़िंदगी से खिलवाड़ करने की कौनसी सज़ा दिलवाए?

देखते ही देखते एक भयंकर कल्पना ने जन्म लिया...उसने एक ई मेल कम्पोज़ की...

"मै, विनीता शर्मा.....उम्र, ३७, कहना चाहती हूँ...कि......

क्रमश:

Sunday, August 2, 2009

याद आती रही...! ८

( पूर्व भाग: अपने अतीत के खयालों में खोयी विनीता,न जाने कब सो गई...)

जब झिलमिल परदों से छन के धूप उसकी आँखों पे पडी, तो उसके साथ,साथ उसकी ज़िंदगी, फिर एक बार जाग उठी...

अखबार वाले ने अखबार अन्दर खिसका दिया था..दरवाजा खोल उसने दूध की थैली अन्दर कर ली ..पीले गुलाब...! उसे फूलों के लिए फोन करना था...! झट पट फोन घुमाके ,पूरे चौबीस पीले गुलाबों का आर्डर उसने दे दिया...घरका पता समझाया...साथ ही कहा," एकेक फूल चुनके चाहिए...अधखिला...!"

हाँ...और आज वो ब्यूटी पार्लर ज़रूर जायेगी...वहाँ जाके शैंपू करायेगी..बाल निखर जायेंगे...pedicure, manicure,
facial ...सब कुछ करायेगी...उसे खूब निखर जाना है...सुंदर दिखना है...शायद विनय थोड़ी-सी देर क्यों न मिलके चला जाय...फिरभी उसके मनमे अपनी,एक ऐसी छवी बना दूँगी, जिसे वो ताउम्र भूल नही पायेगा...उसने सोचा...आगे पीछे कुछ भी हो जाय, उस शाम वो उसपे ऐसे बरसेगी, मानो किसी नगमे पे बरसता संगीत...!

वह पार्लर गयी...गुदानों में फूल सजे..अब घड़ी के काँटे की तरफ़ उसकी नज़र बार,बार घूम रही थी..विनयने उसे चार बजे का समय दिया था...!
एकबार फिर आदम क़द आईने के सामने खड़ी हुई...और खुदको न जाने कितनी बार निहारा...! सच...उसकी उम्र से मानो किसी ने दस साल चुरा लिए हों,ऐसा प्रतीत हो रहा था...!

जिस पुरूष ने उसे इतना तड़पाया था, इतना रुलाया था, इतनी वेदना पहुँचाई थी, उसी के लिए वह इतनी बेताब हुए चली जा रही थी...?विनीता, तू भी क्या मोम की बनी हुई है? अरे कहाँ तो तूने सोचा था, कि, गर कभी कभी वो सामने दिख गया तो एक चाँटा रसीद देगी...और अब ?
अरे...! बरसों तेरे सपनों में तकरीबन वह रोज़ आता रहा है...किन,किन रूपों में...कभी तेरा दूल्हा बन, तो कभी तेरे साथ समंदर के किनारे घुमते हुए, तो कभी तेरा हाथ अपने हाथमे पकड़, तेरी आँखों में गहराई से झाँकते हुए...इन सपनों से जब भी जागती तो कितनी उदास हो जाती थी तू...!

अब...! अब चंद लम्हों की खुशियाँ होंगी शायद ये....ज़्यादा दामन मत फैलाना....ज़्यादा उम्मीद मत रखना..फिर से पछताएगी...इन पल दो पलों से एक उम्र चुरा लेना...तेरे नसीब में यही एक शाम लिखी हो शायद...!

इतने में दरवाज़े की घंटी बजी...एक आख़री नज़र आईने पे डाल, उसने लपक के दरवाजा खोला...!

दरवाज़े पे विनय नही, दफ्तर की किरण खड़ी थी..! विनीता को देख कर उसने एक हल्कि-सी सीटी बजायी और बोली," हाय, हाय ! वारी जाऊँ...! गर बॉस देख ले तो, कैमरा के पीछे नही,आगे खड़ा कर दे...! क्या लग रही है...! कहाँ की तैय्यारी है...? मै तो तुझे पृथ्वी थिएटर ले जाने आयी थी...बड़ा अच्छा नाटक है...पर यहाँ तो कुछ और ही अंदाज़ नज़र आ रहा है ! ! बोल ना...क्या बात है...? वादा करती हूँ...किसी को नही बताउंगी ...!"

बातूनी किरण, बोले चली जा रही थी..बड़े साफ़ दिल की थी वह...हमेशा विनीता का भला चाहती रही थी...लेकिन इस वक़्त विनीता को उस पे बड़ी खिज आ रही थी...! बेवक़्त जो टपक पडी थी...!

"उफ़ ! किरण....कितनी बकबक करती है तू...! बता दूँगी, गर ऐसा कुछ हुआ तो, जैसा कि, तू सोच रही है...बड़े दिनों से वही घिसी-पिटी साडियाँ...या फिर जींस पहन के तंग आ चुकी थी..सो ये पहन ली.....एक कॉलेज के समय की सहेली आ रही है...उसके साथ कहीँ जा रही हूँ...," विनीता किरण को दफा करने के मूड में बोल पडी...उसने किरण को ना तो बैठने के लिए कहा ना चाय पूछी..! बेचारी किरण दरवाज़े परसे ही लौट गयी...

अब तक चार बज के दस मिनट हो चुके थे...विनीता को अब ख़याल आया,कि, उसने अपना नंबर तो विनय को दे दिया था...उसका नही लिया था...अब वह उसकी देरी की वजह भी जान नही सकेगी...! एकेक मिनट काटना मानो एकेक युग के बराबर लग रहा था...पाँच मिनट और कटे...वह कमरे के चक्कर कटे चली जा रही थी...और फिर एकबार घंटी बजी...

क्रमश:

Monday, July 13, 2009

याद आती रही...७

(पूर्व भाग: विनीता, अपने प्रती, अपने सह कर्मियों का रवैय्या देख हैरान हो गयी...क्यों उसके साथ कोई सीधे मुँह बात नही कर रहा था? जब अपने बॉस के चेंबर में पहुँची तो बात समझ में आयी..अब आगे पढ़ें...)

विनीता के बॉस ने ही उसे हक़ीक़त से रू-बी-रू कराया..विज्ञापन फिल्में,जो, विनीता की गैर हाज़िरी में शूट की गयीं, वो सब रिजेक्ट हो गयीं...! सब मशहूर products थे ! इस एजंसी की, विनीता ने काम शुरू किया तब से,एक भी फ़िल्म रिजेक्ट नही हुई थी...!

अचानक, विनीता के सह कर्मियों को ये एहसास हो गया,कि, विनीता उन सब से, अपने काम में कहीँ ज़्यादा बेहतर थी......और इस बात का उसने उन लोगों को कभी एहसास नही दिलाया था...ऐसा मौक़ा भी कभी नही आया था...! वैसे भी विनीता बेहद विनम्र लडकी थी...!

बस, यहीँ से ईर्षा आरंभ हो गयी...! बॉस ने ज़ाहिर कर दिया कि, ये लोग विनीता की काम की बराबरी कर नही सकते...! मेलजोल का वातावरण ख़त्म हो गया...ताने सुनाई देने लगे..सभी ने मिल के उसे परेशान करने का मानो बीडा उठा लिया...

आउटडोर शूटिंग होती तो परेशानी....इनडोर होती तो परेशानी...! अंत में विनीता ने अपने बॉस को बता दिया...उसके लिए ऐसे वातावरण में काम करना मुमकिन नही था....वह मजबूर थी...अबतक उसे काफी शोहरत मिल चुकी थी...उस बलबूते पे उसे अन्य किसी भी नामांकित एजंसी में काम मिल सकता था...वो, इन रोज़ाना मिल ने वाले तानों और काम के प्रती दिखायी जाने वाली गैर ज़िम्मेदारी से तंग आ चुकी थी...उस एजंसी से निकल जाना चाह रही थी...

बॉस ने एक अभूत पूर्व,अजीबो गरीब, निर्णय ले लिया...! उसने विनीता को काम पे क़ायम रखते हुए, अन्य सभी को, जो उसे परेशान कर रहे थे, तीन माह की तनख्वाह दे, काम परसे हटा दिया...! विनीता जैसी आर्टिस्ट...ऐसी कलाकार, जो, इतनी मेहनती थी, उन्हें ढूँढे नही मिलती....वो बखूबी जानते थे, कि,विनीता लाखों में एक थी...जो निकले गए,उनके मुँह पे, मानो एक तमाचा लग गया...क्या करने गए,और क्या हो गया...!

खैर ! विनीता अपने काम में अपने आप को अधिकाधिक उलझाती रही । उसके पास अब इतनी आमदनी थी,कि, वह आसानी से एक कार रख सकती...लेकिन उस कार की देखभाल कौन करता ? बेकार की सरदर्दी क्यों मोल लेना? कभी बस कभी taxee...उसके लिए यही सब से बेहतर पर्याय था...ठीक उसके दफ्तर के सामने बस स्टॉप था...!

उस दिन यही तो हुआ...जब विनय उसके आगे आ खड़ा हुआ...रिम झिम बौछारें हो रहीँ थीं..और विनीता बस का इंतज़ार कर रही थी...कितने सालों बाद विनय उसे दिखा...!

काफी हाऊस में उसने विनय को अपना टेलीफोन नंबर तो दे दिया...उसका नही लिया...उसे कितना कुछ पूछना था..कितना कुछ जानना था...विनीता को लगा था,कि, वो सब कुछ दफना चुकी है...लेकिन सब कुछ ताज़ा था...एक उफान के साथ उमड़ घुमड़ के बाहर आने को बेताब ! इन्हीं ख़यालों में खोयी, उसकी आँख लग गयी...तब पौ फटने वाली थी...!

क्रमश:

Monday, July 6, 2009

याद आती रही....६

(पूर्व भाग: विनीताने शादी करने से मना कर दिया...बता दिया,कि, वो अपने काम में खुश है...अब अन्य किसी और चीज़ की चाहत नही...)

...और एक दिन अचानक माँ चल बसीं...!शायद उनसे विनीता का सदमा सहा न गया...दोपहर में खाना खाके लेटीं, तो बाद में उठीही नहीँ...

उनके जाने के बाद विनीता और बाबूजी बेहद उदास और तनहा हो गए...बाबूजी का तो मानो ज़िंदगी पर से विश्वास उठ-सा गया...अपनी छोटी बेटी की क़िस्मत में क्यों इतने दर्द लिखे हैं, उन्हें, समझ में नही आ रहा था..

अपनी सारी जायदाद उन्हों ने दोनों बेटियों के नाम कर दी...एक दिन विनीता ने अपने पिता से कहा,"क्यों न हम ये फ्लैट बेच के, कोई छोटा फ्लैट ले लें? फ्लैट बेच के जो रक़म आयेगी, उसे चाहे आप रखें, या दीदी को दे दें..इतना बड़ा घर माँ के बिना खाने को उठता है....और वैसे भी इस पड़ोस, इस मोहल्ले से दूर कहीँ, जाने का मन करता है..."

"ठीक है, बेटी, तुझे जो सही लगे, वैसा ही कर," बाबूजी ने उत्तर दिया...

विनीता ने उस लिहाज़ से क़दम उठाने शुरू कर दिए। उनका मौजूदा फ्लैट, निहायत अच्छी जगह स्थित था। उन्हें अच्छे ऑफ़र्स आने शुरू हो गए।

दूसरी ओर विनीता ने नया फ्लैट खोजना शुरू कर दिया...इस बारेमे, उसने अपनी विज्ञापन एजंसी के सह कर्मियों को भी कह रखा...क़िस्मत से वो काम भी बन गया...

बड़ा फ्लैट बिकने पर, बाबू जी ने उस रक़म में से आधे पैसे निशा को देने चाहे...लेकिन निशाने इनकार किया, बोली,"मै इन पैसों को आपके जीते जी छू भी नही सकती...आप इन्हें बैंक में रखें...फिक्स डिपॉजिट में रखें...उस पे जो ब्याज मिलेगा, आपके काम ही आयेगा...इस तरह बँटवारा करने की जल्द बाज़ी न करें..मेरे पास ईश्वर दिया सब कुछ है...अपना और विनीता ख्याल रखें...मुझे तो केवल ये दो चिंताएँ सताती रहती हैं...." बात करते, करते वो अपनी माँ को याद कर रो पडी...विनीता का दर्द वो खूब अच्छी तरह महसूस करती......

चंद दिनों में विनीता और उसके पिता नए फ्लैट में रहने चले गए....फ्लैट छोटा ज़रूर था, लेकिन, खुशनुमा, हवादार और रौशन था...पिता-पुत्री का मन धीरे, धीरे प्रसन्न रहने लगा...मायूसी का अँधेरा छंट ने लगा...बेटी को, गुनगुना ते, मुस्कुराते देख, पिता भी खुश हो गए...इसीतरह तीन साल बीत गए...

विनीता की दिनचर्या दिन-ब-दिन और ज़ियादा व्यस्त होती जा रही थी...बाबूजी रोज़ाना अपने हम उम्र दोस्तों के साथ घूमने निकल जाया करते...ऐसे ही एक शाम वो घूमने निकले और दिल के दौरे का शिकार हो गए...दोस्त उन्हें अस्पताल ले गए, लेकिन उनके प्राण उड़ चुके थे....

विनीता पे फिर एक बार वज्रपात हुआ...अभी तो ज़िन्दगी में कुछ खुशियाँ लौट रही थीं...वो फिर एकबार इस बेदर्द दुनियाँ में एकदम अकेली पड़ गयी...
निशा दीदी और कबीर आए..उन्हों ने विनीता को अपने साथ, कुछ रोज़, जबलपूर चलने की ज़िद की...उसके सहकर्मियों ने भी यही सलाह दी....कहा," चली जाओ, कुछ रोज़...ज़रूरी है..इस माहौल से बाहर निकलो...वरना, घुट के रह जाओगी..."

विनीता ने बात मान ली....लेकिन जब लौटी,तो घर का ताला खोल, अकेले ही अन्दर प्रवेश करना, उसे बेहद दर्द दे गया...वो ज़ारोज़ार रो दी....नौकर होते हुए भी, कई बार, बाबूजी अपने हाथों से व्यंजन बनाते...बड़े प्यार से उसे अपने सामने बिठाके खिलाते...

इधर, जब वो अपने दफ्तर लौटी, तो कुछ अजीब-सा माहौल उसका इंतज़ार कर रहा था...जिन सहकर्मियों ने उसे छुट्टी लेके जाने को कहा था...उसका काम सँभाल लेंगे, ये विश्वास दिलाया था, उन में से कोई भी उस के साथ,सीधे मुँह बात करने को तैयार नही था...! उसे माजरा समझ नही आया...बड़ी हैरान हो गयी...ये परिवर्तन क्यों ? किसलिए ? ऐसी क्या ख़ता हो गयी थी उससे, कि, उसके सहकरमी ,उसके साथ बात करना भी नही चाह रहे थे...!
वो अपने बॉस के चेंबर मे गयी....वहाँ मामला समझ मे आया....

क्रमश:

Wednesday, June 24, 2009

याद आती रही..५ ..

(इसके पूर्व...विनीता और विनय के दरमियान, खतों का सिलसिला चलता रहा....)

धीरे, धीरे विनय के खतों की नियमितता घटने लगी...तथा वो सब कुछ सारांश में लिखने लगा..वजह...समय की कमी...

निशा दीदी की शादी की तारीख तय हो गयी। विनीता के माता-पिता, विनय के परिवार वालों को सादर आमंत्रित करने गए...लेकिन वहाँ उनका बड़ा ही अनमना स्वागत हुआ...जब विनीता के पिता ने कहा,
"आप लोग तो हमारे भावी समाधी हैं..आपको अपने परिवार के सदस्य ही समझता हूँ...आपके आने से हमारे समारोह में चार चाँद लग जायेंगे...! अवश्य पधारियेगा...!"

उत्तर में विनय के पिता ने कहा," अभी कोई रस्म तो हुई नही...इसलिए ये भावी समाधी होने का रिश्ता आप जोड़ रहें हैं, सो ना ही जोडें तो बेहतर गोगा..हाँ...गर पड़ोसी होने के नाते आमंत्रण है,तो, देखेंगे...बन पाया तो आ जायेंगे..
वैसे, क्या आप लोग घर जमाई ला रहे हैं?"

"जी नही ! कबीर पेइंग गेस्ट की हैसियत से रह रहा था...और अब जबलपूर लौट जायेगा, जहाँ उसका परिवार है..निशा ब्याह के बाद वहीँ जायेगी...," विनीता के पिता ने ना चाहते हुए भी किंचित सख्त स्वर में कहा और नमस्कार कर के वहाँ से वो पती- पत्नी निकल आए.....

इस मुलाक़ात के पश्च्यात, वे दोनों बड़े ही विचलित हो गए..विनीता ने अपने पिता को अस्वस्थ पाया तो उससे रहा नही गया...वह बार, बार उन्हें कुरेद ने लगी और अंत में उन्हों ने सब कुछ उगल ही दिया..सुन के वो दंग रह गयी..!

वैसेभी शुरू से ही उसे यह आभास हो रहा था कि, विनय के परिवार वालों ने उसे अपनाया नही है....विनय ने उसे बार, बार विश्वास दिलाया था, लेकिन उसका मन नही माना था...इतने सालों में उन लोगों ने किसी भी तीज त्यौहार में उसे शामिल नही किया था...! हाँ ! सालों में...क्योंकि, विनय को गए अब दो साल से अधिक हो गए थे...और इस दौरान विनय एक बार भी हिन्दुस्तान नही आया था...हर बार कुछ ना कुछ बहाना बनाके वो टाल ही जाता रहा था...

निशा दीदी की शादी हो गयी...विनीता और भी अकेली पड़ गयी...ये तो राहत थी,कि, उसके पास काम था, नौकरी थी...जिसे वो खूब अच्छी तरह से निभा रही थी...
अब तो वो add फिल्में भी बनने लगी थी, जोकि, काफी सराही जा रहीँ थीं...उसे पुरस्कृत भी किया जा चुका था...

कुछ और दिन इसी तरह गुज़रे..विनय की ओरसे खतो किताबत पूरी तरह बंद हो गयी...विनीता ने किसी से सुना,कि, विनय को लन्दन में ही कहीँ बड़ी बढिया नौकरी भी मिल गयी है...फिर सुना, उसने अपना अलग से व्यवसाय शुरू कर दिया है..उसने अपनी ज़िंदगी से विनीता को क्यों हटा दिया, ये बात, विनीता कभी समझ नही पायी...

अब उसे हर कोई शादी कर लेने की सलाह देने लगा..उसने इनकार भी नही किया...राज़ी हो गयी...हालाँकि जानती थी, शादी उसकी ज़िंदगी का अन्तिम ध्येय नही है...एक ओर अगर, विनय को कोई बंदी बना के उसके सामने खडा कर देता, तो वो उसे चींख चींख के चाँटे मारती...पूछती, क्यों, क्यों इतना तड़पाया उसने, गर अंत में छोड़ ही जाना था तो...!
दूसरी ओर, गर, बाहें फैलायें, विनय ख़ुद उसके सामने खड़ा हो जाता और उससे केवल एक बार क्षमा माँग लेता तो, वो सब कुछ भुला के, उसकी बाहों में समा जाती...

लेकिन ये दोनों स्थितियाँ केवल काल्पनिक थीं...ऐसा कुछ नही होना था...! माँ-बाबूजी, निशा दीदी, अन्य मित्र गण, रिश्तेदार, जहाँ, जहाँ उसके रिश्ते की बात चलाते, या तो उसकी बढ़ती उम्र आड़े आती, या फिर एक ज़माने मे उसका और विनय का जो रिश्ता था, वो आड़े आ जाता..ये बात ना जाने कैसे, हर जगह पहुँच ही जाती...अंत में तंग आके, उसने सभी से कह दिया,इक, अब उसे ब्याह नही करना..वो अपनी नौकरी, अपने काम में खुश है...उसे अब और कोई चाहत ,कोई तमन्ना नही...

क्रमश:

Monday, June 22, 2009

याद आती रही...४

(पूर्व भाग: विनय लन्दन चला गया...वकालत की आगे की पढाई के लिए॥) अब आगे पढ़ें...

विनीता को अब उसके खतों का ही एक सहारा था...वही इंतज़ार उसके जीवन का मक़सद-सा बन गया। कभी कबार फोन आते, तो मानो, उसमे नव जीवन का संचार हो जाता...लगता, विनय उसके साथ ही तो है...आ जायेगा..लेकिन, बस चंद पल...सिर्फ़ चंद पल...उसके बाद फिर एक बिरह की गहरी वेदना उसे कचोट देती...

अपनी पढाई ख़त्म होते ही, उसने कई जगह नौकरी के लिए आवेदन पत्र दे रखे थे...उनमेसे कई आवेदन पत्र इश्तेहार एजंसीस के लिए थे। आवेदन पत्र देने के बाद वो सब भूल भाल गयी...ना उसे जवाब का इंतज़ार रहता , न अपनी किसी बात का ख़याल....

एक दिन अचानक से उसे एक एजंसी से साक्षात्कार के लिए बुलावा आया। वो अचरज में पड़ पड़ गयी...! इतनी नामवर एजंसी से बुलावा आयेगा, ये उसने कभी सोचा ही नही था...! लेकिन, बुलावा मतलब नौकरी तो नही..! अपना सारा पोर्ट फोलियो, कागज़ात आदि लेके वो साक्षात्कार के लिए चली गयी। बड़ी अनमनी-सी अवस्था में उसने साक्षात्कार दिया।

घर लौटी तो माँ ने पूछा," कैसा रहा?"
"ठीक रहा माँ,"उसने कहा।
"तुझे क्या लगता है...मिल जाएगा ये काम?",माँ ने फिर पूछा।
"माँ, नौकर मिलना इतना आसान थोड़े ही है? और भी कितने सारे लोग थे वहाँ...", विनीता ने कुछ चिढ के माँ को जवाब दिया। वैसे भी आज कल वो गुमसुम -सी रहती थी। माँ चुप हो गयी। अपनी बेटी की मनोदशा खूब समझ सकती थीं...

ऐसे ही कुछ दिन और गुज़र गए...और फिर उसी एजंसी से उसे काम के लिए बुलावा आया...! उसके हाथ जब वो ख़त लगा तो उसका अपनी आँखों पे विश्वास नही हो पाया...! उसे सच में नौकरी मिल गयी थी? वोभी इतनी नामवर एजंसी में?

उसी दिन उसकी बड़ी बहन, निशा ने एक ख़बर सुनाई... निशा दीदी और कबीर ने विवाह कर लेने का फ़ैसला कर लिया था...! कोई बाधा नही थी..कबीर ने पहले ही अपने घरवालों से बात कर ली थी...बाद में निशा को पूछा था...कबीर, वैसे भी बड़ा ही दृढ़ निश्चयी व्यक्ती था। अब उसने जबलपूर लौट जाने का इरादा भी कर लिया था। मुम्बई का अनुभव उसके लिए हमेशा अच्छा साबित रहेगा, ये उसे खूब पता था।

विनीता को याद आया, उस दिन उसकी और उसकी माँ की, आँखें कैसी भर आयीं थीं...! खुशी भी और दर्द भी... एक साथ....! विनीता को लगा था, जिस एक सहेली-सी बहन के साथ वो अपना सारा सुख-दुःख बाँट सकती थी, वो दूर हो जायेगी...माँ को लगा, अपनी बिटिया अब पराई हो जायेगी...खुश भी थी, कि , इतना अच्छा वर और घर, दोनों निशा को मिल रहा था...! कबीर बड़ा ही संजीदा और सुलझा हुआ व्यक्ती था....

इन सब घटनाओं के चलते, एक और बड़ी अच्छी घटना उस परिवार के साथ घट गयी...जिस ने जाली हस्ताक्षर करा के बाबू जी को ठग लिया था, वो व्यक्ती कानून के हत्थे लग गया...उसने काफी सारे, अन्य गुनाह भी उगल दिए... लम्बी चौड़ी कानूनी कारवाई के बाद, बाबूजी को काफी सारी रक़म वापस मिल गयी...!

विनीता ये सारा ब्योरा बाकायदा से विनय को बताती रहती। साथ ही लिखती,

"विनय,तुम्हें बता नही सकती, कि, कितना याद आते हो तुम...हर पल, हर जगह, तुम्हें ही देखती हूँ...जहाँ देखती हूँ, तुम्हें तलाशती हूँ...
बचपन से तुम्हें देखा, लेकिन बाद में कौनसी जादू की छडी घुमा दी, कि, पल भर भी तुम्हें भुला नही पाती...!
ज़िंदगी का हरेक लम्हाँ तुम्हारे नाम लिख चुकी हूँ...जाने कब अपने दिल का दरवाज़ा खोल दिया, और बिना आहट किए, तुम चले आए...!शरीर यहाँ रहता है , मन तुम्हारे पास....!
हर कोई मुझे छेड़ता है...कि मै खोयी-खोयी रहती हूँ...
विनय, तुम्हारी छुट्टियों का बेक़रारी से इंतज़ार है...कब आओगे ? बताओ ना ...! हर बार ताल जाते हो...!क्यों ? आँखें तुम्हें देखने के लिए तरस गयीं हैं....तुम्हारी एक मुस्कान देखने के लिए कितनी तरस गयीं हैं, कैसे बताऊँ?"
सिर्फ़ तुम्हारी
विनीता। "

विनय के भी लंबे चौडे ख़त आते....वो भी लिखा करता,
"मेरी विनीता,
इस अनजान मुल्क में आके हम दोनों ने एक साथ गुजारे दिन बेहद याद आते हैं....कोई भी सुंदर जगह देखता हूँ, तो
सोचता हूँ, तुम साथ होती तो कितना अच्छा होता...हम दोनों घंटों बातें करते, या मीलों घूमने निकल पड़ते...और ख़ामोश रहके भी कितना कुछ बोल जाते.....!
मेरे ज़हन में कई बार लाल या काली साडी ओढे, तुम चली आती हो.....कभी तुम्हें थामने की कोशिश करता हूँ, तो दौड़ के दूर चली जाती हो...!
कई, कई, रूपों में तुम्हें देखता हूँ...हमेशा तुम पे गर्व महसूस करता हूँ....तुम सब से अलग, सबसे जुदा हो....अभिमानी हो...ऐसी ही रहना...!
सदा तुम्हारा
विनय। "

क्रमश:

Wednesday, June 17, 2009

याद आती रही...३

(पूर्व भाग :विनीता अपनी यादों में खोयी हुई थी...)

विनय कई बार उसे खोयी-खोयी-सी पाता....उसे हँसाने की नयी, नयी तरकीबें सोचता रेहता। एक ओर विनीता पढाई के साथ साथ इधर उधर काम तलाशती रहती। उसकी चित्रकला बचपन से ही अच्छी थी। उसने विभिन्न पत्रिकाओं में अर्जियाँ भेज रखी थीं.....धीरे, धीरे उसे कथा/आलेख आदि सम्बंधित रेखा चित्र बनानेका काम मिलने लगा।

इसी दरमियान उन्हें एक पेइंग गेस्ट भी मिल गया। उसका परिवार चाह रहा था,कि, कोई लडकी मिले, लेकिन अंतमे कबीर नामक,एक वनस्पति शास्त्र का अध्यापक मिला। लड़के का परिवार जबलपूर में स्थित था। वो शादीशुदा नही था। उसकी तक़रीबन सारी पढाई मुम्बई में ही हुई थी।

एक दिन विनीता को विनय उसके कॉलेज से घर ले जा रहा था। अचानक किसी साडी के बड़े-से शो रूम के सामने उसने गाडी पार्क कर दी। विनीता ने हैरत से पूछा," यहाँ क्यों रोक ली कार? कुछ काम है क्या?"
" हाँ, है...! चलो मेरे साथ....,"उसने विनीता से आग्रह किया।
विनीता उतरी और उसके पीछे उस दुकान में चली गयी। विनय ने शो केस में लटकी हुई, दो, बड़ी ही कीमती साडियाँ, सेल्समन को कह उतरवा लीं...एक लाल, दूसरी काली। वहीँ खड़े,खड़े, सभी के सामने , उसने लाल साडी को खोला.....विनीता के सर परसे उसे डालते हुए बोल पडा,"ये साडी जब तुम पहनोगी, तो, तुम पे कितनी जंचेगी.......!"
तुंरत ही काली साडी उठाके बोला," तय नही कर पा रहा,कि, ये अधिक सुंदर लगेगी या लाल!"

विनीता को पूरी दूकान घूर रही थी...!और वो लाज के मारे चूर, चूर हुई जा रही थी...!उसने सेल्समन से कहा,"हम दोबारा आएँगे...", और दौड़ ते हुए दुकान के बाहर निकल पडी...विनय भी उसके पीछे दौडा। विनीता शर्म के मारे विनय से आँख मिला नही पा रही थी...

जब दोनों कार में बैठे,तो विनय उससे बोला," विनीता, मेरी तरफ़ देखो तो सही! कितनी सुंदर लग रही हो ! जब मेरी दुल्हन बनोगी तो कैसी लगोगी....! मै भी कितना बेवक़ूफ़ हूँ...! तुमसे ना तो कहा, कि, तुमसे प्यार करता हूँ, न तो पूछा, कि, मुझसे शादी करोगी? अगर अभी पूछूँ तो?"

"हाँ, विनय," कहते हुए विनीता ने दोनों हाथों से अपना चेहरा छुपा लिया...इस वक़्त उसके ज़ेहेन से सारे चित्र, सारे रेखांकन हट गए...एक सुनहरा भविष्य सामने आ खडा हुआ....जहाँ वो थी, विनय था, और उनकी छोटी-सी दुनियाँ...!ये कब हुआ,उसे पताभी न चला...!

फिर दोनों ने अपने अपने घर वालों को अपना इरादा बताया। किसी को वैसे कोई आपत्ती नही थी। कुछ ही महीनों में दोनों की पढाई पूरी हो गयी।
विनय के पिता ने, विनीता के पिता को अलग से बुला के कहा," अभी विनय की उम्र शादी के लिहाज़ से कम है....मै चाहता हूँ, कि, ये लन्दन जाके बारिस्टर बने। वैसे चाहता तो विनय भी यही है...और केवल एल.एल.बी.में रखाही क्या है?मेरी भी तो वहीँ पे पढाई हुई थी...."

जब विनीता के कानों तक ये बात पोहोंची, तो वो बेहद उदास हो गयी...साथ ही में उसे गुस्सा भी आया...यही बात विनय भी तो उसे बता सकता था ! विनय के पिता को, उसके पिता से कहने वाली कौनसी बात थी ...?

जब वो दोनों मिले,तो विनीता ने अपने मनकी बात साफ़-साफ़ विनय से कह दी....विनय बोला," हाँ! तुम ठीक कहती हो...इससे पहले,कि, मै ठीक से निर्णय ले पाऊँ, मेरे पापा ने ने तुम्हारे पापा से बात कर ली..."

"विनय, क्या आगे की पढाई के लिए लन्दन ही जाना ज़रूरी है? तुम हिन्दुस्तान में रह के भी तो आगे की पढाई कर सकते हो....! अन्य लोग भी तो करते ही हैं...!"विनीता रुआं-सी होके बोली...

विनय ने उसका हाथ थामते हुए कहा," विनी, समय पँख लगा के उड़ जायेगा...! जो मायने वहाँ की डिग्री रखती है, वो यहाँ की नहीँ...!हमारा प्यार पत्थर की लकीर है...मेरे परिवार ने तुम्हें अपनी अपनी बहू मान ही लिया है ! ऐसी सुंदर बहू से किसे इनकार हो सकता है?" विनय ने थोड़ी-सी शरारत करते हुए, विनीता के होटों पे मुस्कान लाने का असफल प्रयास किया ।

विनय को लन्दन में दाखिला मिल गया। उसकी जाने की तैय्यारियाँ शुरू हो गयीं....इधर विनीता का दिल डूबता रहा...और फिर वो दिन भी आ गया जब, विनय के प्लेन ने उड़ान भर ली...
विनय का पूरा परिवार हवाई अड्डे पे जानेवाला था...इसलिए विनीता नही गयी, लेकिन उसे किसी ने इसरार भी तो नही किया...उसके संवेदनशील मन को ये बात बेहद खटकी...विनय ने तो कहा था, उसके परिवार ने विनीता को अपनी बहू के रूप में स्वीकार कर लिया है, फिर भी उसे साथ चलने के लिए किसे ने नही कहा? विनय तक ने आग्रह नही किया?

विनय जिस दिन जानेवाला था, उसकी पूर्व संध्या को दोनों समंदर के किनारे घूमने गए। विनय ने खतों द्वारा, फोन द्वारा सतत संपर्क बनाये रखने का वादा किया, पर विनीता की आँखें बार, बार भर आतीं रहीँ ...उसे ना जाने क्यों महसूस होता रहा,कि, विनय ने उसे अव्वल तो सब्ज़ बाग़ दिखाए और फिर किसी रेगिस्तान में ,अकेले ही अपनी राह ख़ुद खोज ने के लिए छोड़ चला....
क्या प्यार में औरत अधिक भावुक होती है? उसके लिए विनय अब सब कुछ हो गया था, लेकिन विनय के लिए वो सब कुछ नही थी...!

दुकान में ले जाके , उसपे साडी डाल ने वाले विनय का रूप कितना अधिक मोहक था...वहाँ भी उससे बिना बताये उसने कुछ किया था...और यहाँ भी....लेकिन ये रूप कितना दुःख दाई था...! काश ! इस वक़्त विनय ने उसे विश्वास में लेके मानसिक रूप से तैयार किया होता ! इस अचानक बिरह को विनीता का मन स्वीकार ही नही कर पा रहा था....वो बेहद व्याकुल हो उठी थी....उसे लग रहा था, मानो, विनय उसकी मन: स्थिती समझ ही ना रहा हो....! खैर !
विनय चला गया....

क्रमश:

Tuesday, June 2, 2009

याद आती रही....२

( पूर्व भाग, जहाँ, क्रम छोडा था:" विनय और विनीता का परिवार पड़ोसी हुआ करते थे...")

दोनों बचपनमे एक ही स्कूल में पढा करते...लेकिन कथा, कहानियों या, फिल्मों की तरह, इन दोनों का प्यार बचपन में नही पनपा...दोस्ती थी, जैसे किसी भी अन्य वर्ग मित्र या दोस्त से होती है...उसके अलावा कुछ नही...कभी कबार स्कूल इकट्ठे चले जाते, पर साथ में कोई घरका बड़ा चलता...और फिर महाविद्यालय के दिन आए तो, अलगाव होही गया.....विनीता ने फाइन आर्ट्स में प्रवेश लिया और विनय ने बारहवी कक्षा के बाद law कॉलेज में दाखिला ले लिया। उसके पिता ख़ुद एक नामी वकील थे....ये बात तो शायद सभी जानते थे, कि, उन्हें पैसों के आगे और कुछ नज़र नही आता। नैतिकता का गर कोई माप दंड हो तो, उसपे वे कभी खरे उतर नही सकते...!

खैर ! महाविद्यालय बदल जानेके बाद इन दोनों की मुलाकातें बंद ही हो गयीं....दोनों परिवारों के बीच वैसेभी कभी ख़ास मेल मिलाप नही था...

और फिर विनीता को अनायास याद आ गयी वो एक बरसाती संध्या...मुंबई की धुआँ धार बरसात में ,वो किसी तरह, एक छाता सँभाले, सिमटी-सी फुट पाथ परसे चल रही थी... तेज़ हवाओं ने अव्वल तो उसका छाता उलटा कर दिया और फिर उड़ा ही दिया..!वो वहीँ ठिठक, उस उड़ते छाते को देखती जा रही थी...तभी पीछे से एक गाडी, हार्न बजाते हुए, फुट पाथ के क़रीब आके रुकी....मुड के जो देखा, उसमे विनय था..!

खिड़की ज़रा-सी नीचे कर, विनय ने विनीता को कार में बैठ ने का इशारा किया....विनीता कारके पास आयी तो बोला," आओ, बैठो...घरही लौट रही हो ना? मै छोड़ देता हूँ...मैभी घरही जा रहा हूँ....",कहते हुए उसने विनीता के लिए साथ वाली सीट का दरवाजा खोल दिया.....
पल भर विनीता सकुचाई...वो पानी से तर थी...कार की क़ीमती सीट देख, उसे अन्दर बैठ जानेमे हिच किचाहट-सी हुई...विनय ने भाँप लिया..बोला," उफ्फो ! बैठो तो...! किस औपचारिकता मे पडी हो...? चलो, चलो, भीगती खड़ी हो...कार की सीट सूख जायेगी, लेकिन तुम और भीगी तो बीमार ज़रूर पडोगी...! अरे बैठो भी...!"

विनीता सिमटी सिमटी-सी कार में बैठ गयी...विनय ने गाडी को आगे बढाते हुए कहा," कैसी पागल हो? टैक्सी क्यों नही कर ली? ऐसी बरसात में पैदल चलनेका क्या मतलब हुआ?", पूरा हक़ जताते हुए, विनय उसके साथ बतियाने लगा....मानो बीच के, तक़रीबन २ से अधिक गुज़रें सालों का फ़ासला पलमे ख़त्म हो गया हो...!जिन दो सालों में वो दोनों एक बार भी नही मिले थे.....!

न जाने क्यों, विनीता को उसका इस तरह से हक़ जताना अच्छा लगा...कुछ खामोशी के बाद वो बोली," विनय...हम काफ़ी अरसेके बाद मिल रहें हैं....तुम्हें मेरे घरके हालात का शायद कुछ भी अंदाज़ा नही...मेरे पिताजी के जाली हस्ताक्षर बना के, उन्हें लाखों का नुकसान पोंह्चाया गया ...उनके बिज़नेस पार्टनर ने भी उसी समय उनका साथ छोड़ दिया...पता नही, मेरी और निशा दीदी की पढाई का खर्च कैसे चल रहा है...माँ से तो पूछते हुए भी डर लगता है...माँ ने कहीँ अलग से कुछ बचत कर रखी हो तभी ये मुमकिन हो सकता है..."

बात करते, करते विनीता रुक गयी...उसे ये सब बताते हुए, फिर एकबार, बड़ा संकोच महसूस हुआ...अजीब-सी कश्म कश...के घरके हालात किसी अन्य को बताना ठीक है या नही....? उनकी चर्चा करना अपने माता-पिता की कहीँ तौहीन तो नही? वो दोनों ही बेहद खुद्दार हैं...

" कितनी हैरानी की बात है.....हम लोग इतने क़रीब रहते हैं, लेकिन कुछ ख़बर नही....ना ही तुमने कभी बताने की कोशिश की....कैसे बचपन के दोस्त निकले हम? कैसे पड़ोसी?" विनय के सूर मे एक उद्वेग छलक रहा था...

"विनय, ऐसी कोई बात नही...बारह वी कक्षा के बाद अपना मेलजोल तो ख़त्म ही हो गया था...कभी सड़क चलते भी मुलाक़ात नही हुई...आज अचानक, किसी दुमतारे की तरह उभरकर तुम सामने आ गए....पूछा तो बता रही हूँ...वरना अलगसे सिर्फ़ यही दुखडा रोने मै क्या मिलती तुमसे? अव्वल तो ये बात कभी मेरे दिमाग मे भी नही आयी....और चाहे कितना भी कड़वा सच हो, इन हालातों से हमें ही झूजना होगा....
"फिलहाल, जो हमारा तीसरा बेडरूम है, उसे हम पेइंग गेस्ट की हैसियत से देने की सोच रहे हैं..चंद परिचितों को कहके रखा है....गर कोई किरायेदार मिल जाता है तो कुछ सहारा तो होही जायेगा...", विनीता रुक रुक के विनय को बताये जा रही थी...

इन बातों के चलते, चलते उनकी सोसायटी भी आ गयी...कार के रुकते ही विनीता दौड़ के अन्दर भाग पडी...लेकिन उस रोज़ के बाद उन दोनों की मुलाकातें बढ़ने लगीं....और अब उन मुलाकातों मे बचपना नही था....ज़रा-सा कुछ और था...जो दोनों भी समझ रहे थे....विनीता को उसके अपने हालातों ने बेहद परिपक्व बना दिया था...वैसेभी संजीदगी तो उन दोनों बहनों मे हमेशासे थी....अपनी पढाई ख़त्म होतेही वो किसी न किसी काम पे लग जाना चाह रही थी....

क्रमश:

Monday, June 1, 2009

याद आती रही...१ .

विनीता को दफ्तर से लौटते समय न जाने कितने बरसों बाद विनय मिला। वो बस स्टैंड पे खड़ी थी.....हलकी-सी बूँदा बाँदी हो रही थी....इतनेमे एक लाल रंग की, लम्बी-सी गाडी बस स्टैंड के कुछ आगे निकल अचानक से रुक गयी...विनीता ने शुरूमे तो ख़ास ध्यान नही दिया, लेकिन जब वो उसके सामने आ खडा हुआ तो वो चौंक-सी गयी...!

"अरे ! विनय! तुम ! मुम्बई में !"विनीता अचंभे से बोली।

" हाँ ! पिछले पाँच सालों से यहीँ हूँ...लंदनसे लौट कर पेहेले तो देहली गया...कुछ अरसा वहीँ गुज़ारा...फिर मुम्बई आया...हिन्दुस्तान आए दस साल हो गए..! चलो, यहाँ खड़े , खड़े बात करनेसे तो कहीँ चलते हैं...किसी रेस्तराँ में , या घर में कोई इंतज़ार कर रहा होगा?"विनय ने पूछा।

" नही...घरमे कोई नही है.....लेकिन साधे सात बज रहे हैं....मै एक अपार्टमेन्ट में रहती हूँ...देरसे पोहोंच ने की आदत नही रही है,"विनीता ने कुछ हिचकिचाते हुए कहा।

"आधे घंटे के लिए चलो....कॉफी लेते हैं, साथ, साथ..कल छुट्टी का दिन है..अगर कल हम एक लम्बी शाम बिताएँ, तो तुम्हें कोई ऐतराज़ तो नही होगा? बोहोत कुछ कहना है...बोहोत कुछ सुनना है.... इन दस सालों में मेरे साथ क्या हुआ, क्या गुज़री, तुमने क्या किया, तुम्हारी ज़िंदगी कैसे कटी....सभी कुछ तो जानना है...", विनय ने बात करते हुए, अपनी कार की और इशारा किया।

दोनों करीब के ही एक कॉफी हॉउस पोहोंच , कॉफी पीते बतियाते रहे...विनीता का ब्याह नही हुआ था। विनय ने वहीँ बैठे, बैठे ख़ूब माफ़ी माँगी.....इन सभी हालात का वही ज़िम्मेदार था, उसने क़ुबूल किया। न जाने पैसा कमाने की कैसी धुन सवार हो गयी थी उस पर तब...लेकिन उसे, उसकी विनीता समझेगी, ऐसा हमेशा लगता रहा...अब भी उसने अपनी निजी ज़िंदगी के बारेमे कुछ नही बताया...

"अपने परिवार के बारे में कुछ बताओ न!" विनीता उससे पूछना चाह रही थी...उसने ब्याह किया या नही...उसके मनमे बार, बार यही सवाल उठ रहा था...वो कल उससे मिलना चाह रहा है,तो क्या ये बात जायज़ है? पर चाह के भी वो कुछ पूछ नही पायी...

कुछ देर बाद विनय ने उसे, उसकी बिल्डिंग के बाहर छोड़ दिया। अरसा हो गया था, उसे अपने घर की सफाई किए हुए...या घर को सजाये हुए...खुदपे भी तो कहाँ उसने कुछ ध्यान दिया था?

घर में घुसते ही उसने उसकी सफाई शुरू कर दी। सुबह, सुबह, पीले गुलाबों का ऑर्डर देने की सोच ली....रातमे ही बैठक के सारे परदे धोके सुखा दिए....लपेट के रखा क़ालीन बिछा दिया...अपने कमरे की और भी मोर्चा घुमाया.....
गर वो यहाँ भी विनय आया तो....एक अजीब-सी संवेदना उसके मनमे दौड़ गयी...क्या ऐसा होगा....? वो मनही मन ज़रा-सी लजाई...ऐसे लजाना तो वो भूलही गयी थी...!क्या विनय उसे छुएगा.....?

कमरा सजा-सँवारा तो लगनाही चाहिए...आए या ना आए...! कौनसे फूल? सुगन्धित? और रंग? सफ़ेद और लाल दोनों रंगों के...गुलाबों के साथ रजनीगन्धा....नाज़ुक सफ़ेद परदों के साथ...लाल और सफ़ेद बुनत की चद्दर...! कितने दिन हो गए, वो चद्दर बिछाए...और वो परदे लगाये हुए! इनके बारेमे तो वो भूलही गयी थी!

जब देर रात वो लेटी, तो नींद कोसों दूर थी...क्या, क्या याद आ रहा था....विनय और उसका परिवार पड़ोसी हुआ करते थे.....

क्रमश:

Saturday, May 30, 2009

किसी राह्पर १

सागर और संगीता कॉलेज की कैंटीन मे बैठ के गपशप कर रहे थे। साथ गरमा गरम काफ़ी भी थी। इस जोडी से अब पूरा कैम्पस परिचित हो चुका था । शुरुमे जब उनके ग्रूपके अलावा दोनो मेलजोल बढ़ाते तो बाकी संगी साथी उन्हें ख़ूब छेड़ते ,लेकिन अब सबने जान लिया था कि ये अलग होनेवाली जोडी नही है।
इन दोनोका परिचय कॉलेज के ड्रामा के कारण हुआ था। दोनोको अभिनयका शौक़ था और जानकारिभी। दोनोही अपनी भूमिका जीं जान लगाके करते और देखने वालोंको लगता मानो वे बिलकुल मंझे हुए कलाकार हो। दोनोही इस समय बी.कॉम.के आखरी सालमे थे। पढाई मे संगीता सागरसे बढकर थी। बी.कॉम.के बाद वो एम्.बी.ए .करना चाहती थी। हालहीमे उसका सी.ई.टी.का रिजल्ट निकला था तथा वो उसमे दूसरे स्थान पे आयी थी। ये अपने आपमें एक बड़ी उपलब्धी थी। उसे पूनाके किसीभी प्रातिथ यश एम्.बी.ए. के कॉलेज मे प्रवेश मिल सकता था। दोनो इसी बारेमे बतिया रहे थे। सागरने अभिनयका क्षेत्र चुन लिया था तथा स्वयमको उसीमे पूर्णतया समर्पित करना चाहता था। वो संगीताकोभी यही करनेके लिए प्रेरित कर रहा था।
"देखो सागर,नाटक सिनेमा आदी क्षेत्रोमे किस्मतका काफी हिस्सा होता है,सिर्फ मेहनत या लगन काम नही आती। लोटरीकी तरह है ये सब। लग गयी तो लग गयी,वरना इंतज़ार ही इंतज़ार। हम दोनोमेसे एक को तो सुनिश्चित तनख्वाह की नौकरी करनीही पडेगी। अभिनय के क्षेत्रमे कितनेही चहरे उभरते,और प्रतिभाशाली होकरभी सिर्फ हाज़री लगाके ग़ायब हो जातें है।"संगीता सागर को बडीही संजीदगीसे समझा रही थी। वैसेभी उसकी विचारधारा बडीही परिपक्व थी। उसके पिता,जब वो बारहवी मे थी ,तभी चल बसें थे। उसकी और दो छोटी बहने थी। उसके चाचाने अपने भाईके परिवारको हर तरह्से मदद की थी और संगीता इस कारण उनकी सदैव रुणी थी।
"संगीता,तुम जो कह रही हो,वो मैं समझता हूँ, लेकिन ज़िंदगी हमे अपनी मर्ज़ीसे जीनी चाहिऐ। इसके लिए अगर थोडा रिस्क ले लिया जाये तो क्या हर्ज है? थोडी आशावादी बनो। प्रसार माध्यमोने हमे अच्छी प्रसिद्धी दी है। आंतर महाविद्यालयीन स्पर्धाएं हमने जीती है। अच्छी,अच्छी पत्रिकायोंमे ,अखबारोंमे हमारी मुलाकातें छपी हैं। मुझे अपना भविष्य उज्वल नज़र आ रहा है,"सागर उसे मनानेकी भरसक कोशिश कर रहा था।
संगीता उसके हाथ थामके,मुस्करा पडी और बोली,"नही सागर,एम्.बी.ए.करनेका ये अवसर मैं कतई नही गवाना चाहती । तुम करो नाटक सिनेमा। तुम्हारे यशमे मैं अपना यश मनके संतोष कर लूंगी। कहते है ना कामयाब पुरुष के पीछेकी स्त्री!"
सागर समझ गया कि इस मामलेमे संगीता अडिग रहेगी। कैंटीन से उठके दोनो अपने अपने घर चले.....
क्रमश:
प्रस्तुतकर्ता shama पर 9:16 PM
लेबल: retarded, अखबार, कामयाब., किसी राह्पर, भिविश्य
2 टिप्पणियाँ:

Sanjeeva Tiwari said...

इस तथ्‍य को नकारा नहीं जा सकता कि हर सफल पुरूष के पीछे एक स्‍त्री होती है बेहतर चिंतन को विवश करती रचना, बधाई ।

'आरंभ' छत्‍तीसगढ का स्‍पंदन
October 6, 2007 12:12 AM
उन्मुक्त said...

अगली कड़ी का इंतजार है।
October 6, 2007 1:15 AM
Posted by Shama at 11:15 AM

किसी राह्पर....२

बी.कॉम.की परीक्षा हो गयी। कुछ दिन मौज मस्तीमे गए और फिर संगीताकी एम्.बी.ए.की पढी,कॉलेज,और एक विशिष्ट दिनचर्या शुरू हो गयी। सुबह्से शामतक,कभी,कभी,रातमे दस बजेतक उसके क्लासेस चलते रहते। उसके बनिस्बत सागरके पास अपनी ड्रामा की प्राक्टिस के अलावा काफी समय रहता। वो संगीता को मिलनेके लिए बुलाता रहता,लेकिन संगीताके पास एक रविवारको छोड़कर ,और वोभी कभी कभार,समय रेह्ताही नही। इसतरह की दिनचर्या देख सागर चिढ जाता,"येभी कोई ज़िंदगी है?"वो संगीतासे पूछता।
"देखो सागर,ज़िन्दगीमे अगर कुछ पाना हो तो कुछ खोनाभी पड़ता है। ये मैं नही कह रही,हमारे बुज़ुर्गोने कह रखा है,"संगीता उसे समझानेकी भरसक कोशिश करती।
"तुम्हे सभी क्लासेस अटेंड करना ज़रूरी है?कभी मेरे ड्रामा की प्राक्टिस देखनेका तुम्हारा मन नही करता?ऐसीभी क्या व्यस्तता की जो ज़िन्दगीका सारा मज़ाही छीन ले?" सागर बेहेस करता।
"तुम्हारे ड्रामा की प्राक्टिस देखने का मेरा बोहोत मन करता है, लेकिन इसलिये मैं अपने क्लासेस मिस नही कर सकती,"संगीता को हल्की-सी सख्ती जतानी पड़ती।
एक बार सागर को एक फिल्म्के स्क्रीन टेस्ट की ऑफर आयी। उस समय संगीता उसके साथ जा पायी। टेस्ट सफल रहा और सागर को एक फिल्म मे काम करनेका मौका मिला। अबतक संगीताका एक साल पूरा हो चुका था लेकिन गर्मियोंकी छुट्टी मे उसे कोर्स के एक भाग के तौरपर
किसी कम्पनी मे काम करना ज़रूरी था। उसने मार्केटिंग लिया था। पूनामेही उसे दो महीनेका काम मिल गया।
एक दिन शाम को सागर अपनी फिल्म की स्क्रिप्ट लेकर संगीता के घर पोहोंचा। उसके रोल के बारे मे बता कर उसने संगीता की राय मांगी,तो संगीता बोली,"सच कहूं सागर?चिढ मत जान। कहानी बिलकुल बेकार है। कुछ्भी दम नही, वही घिसी pitee । अब तुम अपना रोल किस तरह निभाते हो इसपे शायद तुम्हारा भविष्य कुछ निर्भर हो।"
"मुझे लगाही था कि तुम इसी तरह कुछ कहोगी। मेरी यह पहली शुरुआत है, कम से कम मेरा चेहरा तो जनता के सामने आयेगा, लोग मेरा अभिनय देखेंगे। अन्यथा कब तक इंतज़ार करूंगा मैं?"सागर खीझ कर बोला।
"चिढ़ते क्यों हो? तुम्ही ने मेरी राय पूछी। निर्णय तो तुम्ही को लेना है!"संगीता बोली।
उसका दूसरा साल शुरू हुआ और सागर की शूटिंग भी। सागर अलग अलग लोकेशन्स पर घूम ने लगा। फिल्म रिलीज़ होनेतक संगीता का दूसरा सालभी ख़त्म होने आ रहा था और उसे कैम्पस इंटरव्यू मेही बोहोत अच्छी ओफर्स आयी थी। उन्ही मेसे उसने एक प्रतिष्ठित बैंक की नौकरी स्वीकार कर ली क्योंकि काम पूनामेही करना था। बढिया तनख्वाह, कार तथा फ़्लैट, ये सब उसी पाकेज का हिस्सा थे।
सागरकी फिल्म तो पटकी खा गयी लेकिन उसका अभिनय तथा व्यक्तित्व कुछ निर्माता निरदेशकोंको भा गया।
सागर का घर पूनामेही था। वो अपनी माँ-बापकी इकलौती ऑलाद था। उसने और फिल्मे साईन करनेके बाद पेइंग गेस्ट्की हैसियत से मुम्बैमे जगह लेली। सागर संगीता का अब ब्याह हो जाना चाहिए ऐसा दोनोके घरोंसे आग्रह शुरू हो गया और जल्द होभी गया। संगीताके सास ससुर दोनोही बडे ममतामयी और समझदार थे। उन दोनोको अधिक से अधिक समय इकठ्ठा बितानेका मौक़ा मिले ऎसी उनकी भरसक कोशिश रहती।
सागर की व्यस्तता बढती जा रही थी। अब उसने मुमबैमे अपना एक छोटासा फ़्लैट भी ले लिया,जिसे संगीताने बड़ी कलात्मक्तासे सजाया। समय तथा छुट्टी रेहनेपर वो कभीकभार सागर की फिल्मी दावतोंमे भी जाती। हमेशा पारम्परिक कलात्मक वेशभूषामे। उसके चेहरेमे उसकी बातचीत के तरीके मे कुछ ऐसा आकर्षण था,जो लोगोंको उसकी ओर खींच लाता। अर्धनग्न फिल्मी अभिनेत्रियों को छोड़ लोग उसके इर्द गिर्द मंडराते।
इसी तरह तेज़ीसे दिन बीत ते गए। देखतेही दो साल हो गए और संगीता के पैर भारी हो गए। मायका और ससुराल दोनो ओर सब उस खुशीके दिनका इंतज़ार करने लगे जब किसी नन्हे मुन्ने की किलकारियाँ घरमे गूंजेंगी।
"तुम्हे बेटा चाहिए या बेटी?"एक बार सागर ने संगीता को पूछा।
"मुझे कुछ भी चलेगा। बस भगवान् हमे स्वस्थ बच्चा दे,"संगीता बोली,और फिर प्रसूती का दिन भी आ गया। सागर अपनी शूटिंग कुछ दिन मुल्तवी रख के संगीता के पास पूना मेही रूक गया। संगीता को प्रसूती कक्ष मे जाया गया। काफी देर के इंतज़ार के बाद डाक्टर ने बताया के सिज़ेरियन करना पड़ेगा। होभी गया। जब उसे कमरेमे लाए तब तक वो बेहोश थी।
प्रस्तुतकर्ता shama पर 8:32 AM
1 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari said...

बढ़िया लिखा जा रहा है, बधाई. स्वागत है. लिखते रहें, शुभकामनायें.
October 16,

किसी राह्पर 3

जब उसे धीरे धीरे होश आने लगा तो तपते तेलकी तरह उसके कनोमे शब्द पड़ा,'retarded'."डाक्टर,संगीताको आप बताये ही मत। उसे बतायें कि बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ। हमे ये नही चाहिऐ। इस भयंकर चीज़ को कौन संभालेगा?"ये आवाज़ सागर की थी। संगीताकी आँखें अभीतक खुल नही पा रही थी। मुहसे शब्द भी नही निकल रहे थे,लेकिन वो सबकुछ सुन पा रही थी।
"स्श! धीरे बोलिए!संगीता किसीभी समय होशमे आ सकती है और बच्चा कैसाभी हो ,वो तुम्हारी ऑलाद है। डाक्टर के नाते मैं इसे मर्नेके लिए नही छोड़ सकता। तुम्हारी दृष्टी से वो सिर्फ एक मांस का गोला होगा लेकिन उसमे प्राण हैं,"डाक्टर की आवाज़ धीमी लेकिन सख्त थी।
"आपसे ग़र नही हो सकता तो मैं इसका खात्मा करता हूँ,"सागर की घृणा भरी आवाज़।
"खबरदार! ऐसा कुछ किया तो मैं तुम्हे पुलिस के हवाले कर दूंगा,"डाक्टर की तेज़ आवाज़।
अब संगीता की आँखें धीरे,धीरे खुलने लगीं। पलकें थरथराने लगीं। उसने सबसे पहले ,"माँ" कह कर पुकारा। डाक्टर पास आकार बोले,"कहो कैसा लग रहा है?मैं बुलवाता हूँ तुम्हारी माँ को।"
माँ और सास दोनोही अन्दर आयी और उसकी दोनो ओर बैठ गईँ। माने उसका हाथ हाथ मे लिया तथा सासुमा उसके सरपर हाथ फेरने लगी।
"माजी,"वो अपनी सास की ओर देखते हुए बोली,"हमारा बच्चा नॉर्मल नही है?"
"हमे मालूम है बेटी,भगवान् की ऐसीही मर्जी। तुम चिन्ता मत करो। येभी दिन हम काट लेंगे,"सास प्यारसे बोली।
"लेकिन माजी सागर ने जो कहा वोभी मैंने सुन लिया है,"कहते,कहते संगीताकी आँखें भर आयीं।
"क्या कहा सागर ने?"माजीने पूछा।
सागरने जो कहा था,वो संगीताने उन्हें बता दिया। सुनकर उसकी सास और माँ दोनोही दंग रह गयी।
Posted by Shama at 11:07 AM
Labels: किसी राह्पर 3

किसी राह्पर...४

"सागर इधर आओ!"कोनेमे खडे सागरको उसकी माने बुलाया। सागरने सब सुनही लिया था। वो आगे आया लेकिन किसीसे नज़रें मिल नही पाया। नीचे मूह लटकाए बोला,"कौन देखभाल करेगा ऐसे बच्चेकी??मैं सभीके भलेकी खातिर कह रहा था।"
"भलेकी खातिर? अरे हत्या करनेवाला था तू उस निरपराध जीवकी?? बाप होते हुए? तुझे शर्म नही आयी?"सागरकी माँ घुस्सेसे बोली।
सागर सागर संगीतासे कुछ्भी बात किये बिना बाहर निकल गया। संगीताने मनही मन निश्चय किया,वो अपने आगेका भवितव्य स्वीकार करेगी।,चाहे उसे जोभी कीमत चुकानी पडे। बच्चे को कमसे कम एक महीना अस्पताल मे रखना ज़रूरी था। दुसरे दिन जब डाक्टर ने उसे चलनेकी इजाज़त दीं तो incubator मे रखे अपने उस असहाय जीव को उसने देखा । वो ज़्यादा दिन जिंदा नही रह सकता ये कोयीभी बता सकता था,लेकिन जबतक जियेगा,वो अपनी जान निछावर करेगी,ये उसने तय कर लिया।
महीनेभर के बाद वो और उसका बच्चा घर आये। संगीताने अपने बैंक वालोंको पहलेही स्थिती बता दीं थी। बैंक ने उसे हर प्रकार से सहायता दीं।
आजकल सागर और उसके बीच बातचीत ना के बराबर ही होती थी। लेकिन सास उसकी बेहद मदद करती लगभग छ: महीनोके बाद वो बालक संगीताकी नज़दीकी का एहसास करने लगा। संगीता उसके पलनेके पास आती तो उसके होटों पे हल्की-सी मुस्कान आती। ये देख कर संगीता का दिल भर आता। उसे लगता,कुछ्ही दिनोके लिए क्यों ना हो, उसकी मेहनत सार्थक हुई है।
प्रस्तुतकर्ता shama पर 1:23 AM
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हिन्दी टुडे said...

अच्छी कहानी है।जल्द पूरी कहानी कि प्रतीक्षा मे…
Posted by Shama at 11:01 AM
Labels: किसी राह्पर, भवितव्य, माँ., हिन्दी कहानी

किसी राह्पर ५

एक सुबह उठके उसने बच्चे को छुआ तो उसे निष्प्राण पाया। उसने कोई शोर नही मचाया। साथ सोये सागर को भी नही जगाया। बच्चे को गोद मे उठाकर वो अपनी सास के पास गयी तथा उन्हें बताया। सागर कोभी उन्होनेही जगाया, जहाँ,जहाँ, फ़ोन करने थे किये। जो जो क्रिया कर्म ,विधियाँ होनी थी शुरू हो गयी। अडोसी,पड़ोसी,रिश्तेदार आ गए। जब उस नन्ही जान की अन्तिम यात्रा का समय आया,बस तब संगीता अपनी सास तथा माके गले लग के रोली। फिर अपने ससुरकी ओर मुड़कर बोली ,"बच्चे का क्रिया कर्म आप करेंगे।" समझने वाले बात को समझ गए।
उसने बैंक मे जाना शुरू कर दिया। सागर एक हिरोइन के साथ मुम्बई मे घूमता फिरता है ,ये बात उसके पढ्नेमे तथा सुननेमे आ गयी थी। सागर कुछ दिनोके लिए पूना आया था। एक दिन सुबह उठा तो उसे पास मे पड़ा एक कागज़ दिखा। आँखें मलते हुए उसने पढा,
"सागर,
हमारा साथ बस इतनाही था। मैंने बैंक द्वारा दिया गया फ़्लैट कुछ दिन पहलेही कब्ज़मे ले लिया था। मेरी ओरसे अब तुम पूर्ण तया स्वतंत्र हो। जब चाहो तलाक़ ले सकते हो।
संगीता"
सागर काफी दिनों के बाद पुणे आया था अपनी माँ के पास जाके उसने पूछा,"संगीता तुम्हे बताके गयी?"
"हाँ! बताके गयी",माँ ने शांत भाव से जवाब दिया।
"तुमने उससे कुछ कहा नही?मतलब रोका नही?"सागर ने पूछा।
"क्यों और किसके लिए? तुमने तो अपनी उससे अलग अपनी ज़िंदगी बानाही ली है। वैसेभी उसने घर छोड़ा है,मुझे या तुम्हारे बाबूजी को नही छोड़ा है,"माँ ने कहा।
सागर खामोश हो गया। मनही मन निश्चिंत भी हो गया। अब वो पूरी तरह अपनी मनमानी कर सकता था। वो हिरोइन भी उसके मुम्बई के फ़्लैट मे रहने लगी। दिन बीतते गए और सागर की कुछ फिल्मे एकदम फ्लॉप गयी। कुछ फिल्मों मे उसकी अदाकारीभी घटिया थी, येभी अलग,अलग अखबार तथा पर्चियों मे छपके आया। बचत नाम की आदत तो सागर के जीवन मे थी ही नही। सागर की ये प्रवृत्ती देख करही संगीताने अपने बैंक का खाता अपने ही नाम पे रखा था। सागर उसकी उस हिरोइन के साथ परदेस भ्रमण कर आया था। फिल्मी दोस्तो के साथ पंच तारांकित होटलों मे मेहेंगी पार्टीस ,मेहेंगे कपडे,मेहेंगे तोहफे ये सब कुछ वो करताही चला गया और फिर वो दिनभी आया जिस दिन उसे एहसास हुआ के संगीता नामक सपोर्ट सिस्टम अब उसकी ज़िन्दगी मे नही है। वो चिडचिडा हो गया, और उसके पसेसिव बर्ताव के कारण वो हिरोइन भी उसे छोड़ के चल दी....

अब क्या किया जाय उसकी समझ मे नही आ रहा था। गुमनामी के अँधेरे से बचने के लिए उसने कुछ बड़ी ही घटिया फिल्मोंमे ,घटिया किर्दारोंको निभाया। इससे उसकी औरभी बदनामी हुई। उसे एक दिन एक और बात याद आयी के पिछले कुछ महीनोसे उसने अपनी माँ को पैसेभी नही दिए है। पेंशन वाले पिताके पैसोंसे माँ घर किस तरह चला रही होगी?
क्रमशः
प्रस्तुतकर्ता shama पर 6:55 AM
1 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर. अच्छा लगा पढ़ना.
Posted by Shama at 12:02 AM
Labels: कहानी, किरदार., किसी राह्पर, फ़िल्म, हिन्दी
1 comments:

नीरज गोस्वामी said...

वाह शमा जी क्या कहानी लिखी है...बेहद खूबसूरत...एक एक लफ्ज़ सोच कर लिखा हुआ है...और आपने ये नाराज़गी वाली बात क्या कर डाली...आप से नाराज़गी भला क्यूँ कर होगी? आप तो इतनी अच्छी इंसान हैं हैं की कोई आप से चाहकर भी नाराज़ नहीं हो सकता...आप हमेशा खुश रहन ये ही खुदा से आपके लिए दुआ है...
नीरज
April 7, 2009 12:12 AM

किसी राह्पर....६

जब वो पुणे आया तो उसने माँ से पूछा,"माँ,मैंने तुम्हे बड़ी मुद्दत से पैसे नही दिए, और तुमनेभी नही मांगे। ये सब खर्च किस तरह चला रही हो तुम?"उसके बाहर रहते उसके पिताभी पनद्रह दिनोके लिए अस्पतालमे भर्ती थे। माँ के लिए रखी हुई दिन भरकी कामवाली बाई भी आती थी। सारे बिल चुकाए जा रहे थे। सागर को कुछ समझ मे नही आ रहा था। माँ खामोश रही।
"कुछ बोलोना माँ! तुमने अपने जेवर तो नही बेचे?" सागर ने फिर पूछा।
"सागर,तुम्हे याद है,मैंने कहा था, संगीताने घर छोड़ा है,लेकिन हमे नही छोड़ा?सब घर-गृहस्थी उसीकी वजह से चलती रही,"माँ ने जवाब दिया।
"क्यों? क्यों लिए उससे पैसे??"सागर चीखने लगा।
"तो क्या तुम्हारे पिताको मरनेके लिए छोड़ देती?और मेरे घुट्नोमे इतना दर्द रहता है,मुझे उठने बैठ्नेमे इतनी तकलीफ होती है,मैं कर सकती घर का सारा कामकाज?तेरे पास समय था हमारी पूछताछ करनेका?"माँ ने भी उंची आवाज़ मे जवाब दिया तो सागर चुप कर गया।
उसके मनमे पश्चात्ताप की भावना जाग उठी। अनजानेही उसके मनने स्वीकारा के संगीता उससे बढ़कर अभिनेत्री बन सकती थी। वो सुन्दर भी थी,बेहद फोटोजेनिक भी थी। उसके अभिनय का लोहा सभी ने माना था। सिर्फ उसके कारण उसने नौकरी की सुरक्षितता थामी थी और उसने क्या किया था संगीता के लिए,जिसके साथ उसने जीवनभर साथ निभानेका वादा किया था, सात फेरे लिए थे? एक बेहद कठिन मोड़ पर,जहाँ संगीताको उसकी सख्त ज़रूरत रही होगी, उसका साथ छोड़ दिया था।
इतवारकी शाम थी। संगीता अपने घर मे बैठी टी.वी.देख रही थी, तभी दरवाज़ेपर घंटी बजी। उसने दरवाज़ा खोला। सामने सागर खडा था।
"आयिये!" ,बिना कोई अचरज दिखाए उसने कहा। पहले वो उसको"तुम"करके संबोधित करती थी। सागर बैठा। उसने फ़्लैट मे इधर उधर नज़र दौड़ाई । वही कलात्मकता जो संगीता के स्वभावका एक अंग थी, यहाँ भी दिखाई दी।
"संगीता,मुझे ये "आप"करके क्यों संबोधित कर रही हो? क्या मैं इतना पराया हो गया हूँ?"
"ये सवाल आप अपने आपसे कीजियेगा। मुझे सिर्फ बतायिये,चाय या कोफी ?"
उसे सिर्फ कोफी ही पसंद थी और मूड आता तो दोनो एक दूजेसे कहते ,"चलो कोफी हो जाय"।
"मैं लेकर निकला हूँ,मुझे कुछ नही चाहिए",सागर ने कहा। सच तो ये था के वो कोफी के लिए कभीभी मन नही करता था इस बातसे संगीता अच्छी तरह अवगत थी।
"ठीक है,मैं अपने लिए बनाने चली थी ,सोंचा आपसेभी पूछ लूँ,"कहकर वो ड्राइंग तथा डायनिंग की बगल मे जो ओपन किचन था ,वहाँ गयी और अपने लिए कोफी बनाके ले आयी। वो उसे निहारता रहा। प्रसव के बाद उसका किंचित-सा वज़न बढ़ गया था,लेकिन अब वो किसी कॉलेज कन्या की तरह दिख रही थी।
"कैसा चल रहा है तुम्हारा काम धंदा?"सागरने पूछा।
असलमे उसकी तटस्थ तासे वो चकरा गया था। वो सोंचता था की संगीता इस तरह के सवाल करेगी के,"इधर कैसे आना हुआ?"
फिर वो उससे क्षमा मांग के ,पिछली बाँतें भूलनेके लिए कहेगा ,इसतरह का मन बना के वो आया था।
"बिलकुल मज़ेमे चल रहा है सबकुछ,"उसका जीवन कैसा चल रहा है,ये तो उसने पूछा ही नही। वैसे उसे सब पताही था। उसके पास क्यों आया येभी संगीता ने उससे पूछा नही।
"संगीता,मैं किसलिए आया हूँ ये तुम ने मुझसे पूछा ही नही?"पूछ ते हुए उसकी ज़बान सूख रही थी।
"ये बात मैं क्यों पूछू ?आप आये है ,आपही बताएँगे!"संगीताने कहा।
"संगीता,मुझे ये आप,आप कहना बंद करो,"अचानक सागर ने ऊंचे स्वरमे कहा।
"देखिए,चिल्लायिये मत। आप मेरे घर अपनी मर्ज़ीसे आये है,और मुझसेही ऊंचे स्वरमे बात कर रहे है?कमाल है!"संगीताने अबभी संयत स्वरमे कहा।
"सुनो संगीता.......,मैं तुम्हे फिरसे घर ले जाने के लिए आया था,क्या तुम आओगी,ये पूछने आया हूँ। जो हुआ उसके लिए मुझे बेहद अफ़सोस है। मैं पश्चात्ताप की अग्नीसे झुलस रहा हूँ। मुझे तुमसे बोहोत सारी बातें करनी हैं,एक नए सिरेसे ज़िंदगी शुरू करनी है.........संगीता...,"सागर इल्तिजा करने लगा ।
संगीताने उसे बीछ मेही रोक दिया,"देखिए,मैं कभीभी वापस लौटूंगी , ये ख़याल आप अपने दिमाग से पूरी तरह निकाल दीजिए। आप मेरे निरपराध बच्चे का क़त्ल कर ने निकले थे। ऐसे आदमी के साथ ज़िंदगी गुज़ारनेकी मूर्खता मैं फिर कभी नही करूंगी।" वो अभीभी सादे स्वरमे बतिया रही थी,उसके लह्जेमे बर्फीली ठंडक थी।
Posted by Shama at 11:10 PM 0 comments

किसी राह्पर.......अन्तिम

Sunday, April 5, 2009
किसी राह्पर.......अन्तिम
इतनेमे फिर दरवाज़की घंटी बजी। उसने दरवाज़ा खोला। एक जोडा अन्दर आया। संगीताने उनका परिचय कराया,"आप है मिस्टर और मिसेस राय ,और ये है मिस्टर साठे।"
फिर राय दम्पतीकी ओर मुखातिब होके बोली,"हमे चलना चाहिऐ, हैना?मि.साथे, हम लोग जब्भी मौक़ा मिलता है,पास के vruddhaashram मे जाते है,वहाँ पर भिन्न,भिन्न संस्कृतिक कार्यकम करते हैं, गाते बजाते हैं,उन्हें घुमानेभी ले जाते हैं। हमारा बैंक ऐसे कई कार्यक्रम स्पोंसर करता है। कुल मिलके बडे मज़से वक़्त कटता है हमारा!" उस पूरी शाम मे संगीता पहली बार इतना उल्लसित होकर बतिया रही थी,लेकिन उसका "मि.साठे"संबोधन सागर को झकझोर गया।
पर्स लेकर वो दरवाज़के पास खडी हो गयी,सागर के लिए बाहर निकल जानेका ये स्पष्ट संकेत था। सागर बाहर निकला । संगीता अपने साथियोंके साथ कारमे बैठी और निकल गयी। शायद आगे ज़िन्दगीमे उसे उसके लायक कोई मीत मिल जाये क्या पता.....ऐसा कि जिसे संगीता जैसे रत्न की परख हो! सागर ने एक आह-सी भरी....उसके हाथोंसे वो हीरा तो निकल ही गया था....उसीकी मूर्खता के कारण।
जिस मोड़ पे सागर ने संगीता को छोड़ा था वहाँसे वो कहीं आगे, दूर और बोहोत ऊंचाई पे पोहोंच गयी थी !
समाप्त।
Posted by Shama at 10:47 AM

Tuesday, May 12, 2009

एक खोया हुआ दिन ! १

Wednesday, September 19, 2007

कहानी:एक खोया हुआ दिन

क्या उसकी किसीने दिशाभूल कर दीं थी? ये रास्ता ख़त्म क्यों नही हो रहा था?हर थोडी देर बाद वो किसीसे दिशासे दिशा पूछ रही थी। उसकी मंज़िल की दिशा। कोई दाहिने जानेको कहता तो कोई बाएं मुड़ नेको कहता। वो बेहद थक गयी थी, लेकिन् अब बीचमे रुकनाभीतो मुमकिन भी तो नही था। लेकिन उसे जान कहॉ था? अचानक वो खुद भूलही गयी। अब वो घबराहट के मारे पसीने पसीने हो गयी। अब क्या किया जाय?और क्या आवाज़ है ये?इतनी कर्कश! उफ़! बंद क्यों नही हो रही है? और फिर वो अचानक नीन्द्से जग पडी। वो अपने बिस्तरमे थी और वो आवाज़ दरवाज़ेकी घंटीकी थी। तो वो क्या सपना देख रही थी! उसने राहत की सांस ली!!

वो झट से उठी , ड्रेसिंग गाऊंन पहना और दरवाज़ा खोला। दूध लानेवाला छोकरा दरवाज़पर दूध की थैलियाँ छोड़ गया था। उसने उन्हें उठाया और रसोई घरमे रख दिया। बाथरूम मे जाकर मूह्पे पानी मारा,ब्रुश किया और बच्चों के डिब्बेकी तैय्यारिया शुरू की। कल दोनोने आलू-पराठें मांगे थे। आलू उबलने तक उसके पतीभी उठ गए। "ज़रा चाय बनाओ तो तो,"पतीकी आवाज़ आयी। उसने चायके लिए पानी चढाया और एक ओर दूध तपाने रख दिया और झट बच्चों को उठाने उनके कमरेमे पोहोंची।

पेहेले बिटिया को उठाने की कोशिश की, लेकिन,"रोज़ मुझेही उठाती हो! आज संजूको उठाओ ,"कह कर वो अड़ गयी।

"बेटा, तुम्हारी कंघी करनेमे देर लगती है ना इसलिये तुम्हे उठाती हूँ, चलो उठोतो मेरी अच्छी बिटिया,"उसने प्यारसे कहा।

"नही,आज उसेही उठाओ,"कहकर बिटियाने फिरसे अपने ऊपर चद्दर तान ली।

अन्त्मे उसने संजू को उठाया। वो आधी नींद मे था। उसका हाथ पकड़ के वो उसे सिंक के पास ले गयी और उसके मूह्पे पानी मारा तथा हाथ मे ब्रुश पक्डाया । गीज़र पहलेही चला रक्खा था। चाय बनाने के लिए वो मुड्नेही वाली वाली थी कि फिर दरवाज़ेकी घंटी बजी। दरवाज़ा खोला तो अख़बार पडे देखे। कामवाली बाई अभीतक क्यों नही आयी?उसके मनमे बेकारही एक शंकाने सिर उठाया। वो फिर रसोई की ओर भागी। पानी खुल रहा था। उसने झट से चाय बनायी और अपने पती को पकडा दीं । वह अखबार लेकर ड्राइंग रूम मे चाय पीने लगा।

बच्चों के कमरेमे क्या चल रहा है ये देखने के लिए वो फिर उस ओर मुड्नेही वाली थी कि तभी फिर बेल बजी।

"अमित ज़रा देखोना, कौन है! बाई ही होगी!,"वो इल्तिजाके सुर मे बोली।

"कमाल करती हो! तुम खडी हो और मुझे उठ्नेको कहती हो,"पतिदेव चिढ़कर बोले।

उसने दरवाज़ा खोला तो बाई की लडकी खडी थी।

"अरे,तू कैसे आयी?"

"माँ बीमार है,वो तीन चार दिन नही आयेगी,ये बताने आयी,"लडकी ने जवाब दिया।

इस लडकी को इसी ने स्कूल मे प्रवेश दिलवाया था। बाई नही आयेगी ये सुनकर उसका मूड एकदम खराब हो गया। आज पी.टी.ए.की मीटिंग थी। सहेली की सास बीमार थी,उसेभी मिलने जान था। रात के खाने के लिए सब्जियाँ लानी थीं। उसका वाचन तो कबसे बंद हो गया था। बाई की लडकी तो कबकी चली गयी लेकिन वो अपने खयालोंमे खोयी हुई दरवाज़ेपर्ही खडी रही। अचानक उसे रसोयीमेसे बास आयी। दूध उबल रहा था। वो दौड़ी। गंध पतीको भी आयी। वो फिरसे चिढ़कर बोले, 'क्या,कर के रही हो?कहॉ ध्यान है तुम्हारा?तुम्हे पता हैना कि दूध उबल जाता है तो मुझे और माँ को बिलकुल अच्छा नही लगता?"
क्रमश:

1 टिप्पणियाँ:

Irshad said...

एक खोया हुआ दिन बेहद शानदार और भावपूर्ण प्रस्तुति रही। तुमने कहा था न कि मैं इसे पढूं, इस पर एक शार्ट फिल्म बन सकती है 30 मिनट की। यह भारत के हर मध्यमवर्गी का चेहरा है जब हम औरतो को केवल एक आवश्यकता भर समझ लेते है। लेकिन उस अंतरमन की तरफ हमारा कभी ध्यान ही नही जाता जो अपने भरे-पूरे जीवन से सूखता चला जाता है।
बहुत खूब।

एक खोया हुआ दिन ! २

"सॉरी,सॉरी,बाई नही आनेवाली है ये सुन के मेरा मूड एकदम खराब हो गया था,"वो धीरेसे बोली और खिंडा हुआ दूध साफ करके फिर बच्चों के कमरे के ओर मुड़ गयी। उसने झटपट बेटे को नहलाया। वो चारही साल का था। उसे तैयार करने मे सहायता करनीही पड़ती थी। तब तक बेटी भी उठ गयी थी। जब बिटिया नहाने गयी तो ये फिर रसोईमे दौड़ी। झटपट पराठे बनाके डिब्बे तैयार कर दिए,पानीकी बोतलें भर दीं तथा झट से कपडे बदले और बच्चों को लेकर स्कूल के बस स्टॉप पे आ गयी। खडे,खडे लडकी की पोनी टेल ठीक की..... इतनेमे बस आही गयी... बच्चे बाय कर के चल दिए।


आज कपडे धोना,बरतन मांझने ,बाथरूम साफ करना आदि सब काम उसीके ज़िम्मे थे। बच्चों के बिस्तर बनाने और पेहेले दिन के मैले कपडे उठाने के लिए जब वो बच्चों के कमरेमे गयी तो देखा,बेटे की टाई बांधना भूल गयी थी। अब उसे बेकार ही रिमार्क मिलेगा ये सोंच के उसे बुरा लगा।
क्रमश:

एक खोया हुआ दिन ! 3

अपने बेडरूम मे बिस्तर बनानेसे पेहेले वो रसोई की ओर पतिदेव का डिब्बा तैयार करनेके लिए गयी। इसके लिए उसे रात के कुछ बरतन मांझने पड़े .....फिर उसने जल्दी-जल्दी कुकर चढाया..... सब्जी काटी एक ओर सब्जी बघारके रायता बनाया। कुकर उतारकर रोटियाँ बेलने लगी।
तबतक पतिदेव कभी अखबार पढ़ रहे थे तो कभी चैनल सर्फिंग, या फिर आराम कुर्सीपे केवल सुस्ता रहे थे। अंतमे वे नहाने के लिए उठे। डिब्बा तैयार करके वो नाश्ता बनानेमे जुड़ गयी। वो बाथरूम मे घुसने के बाद पहले शेव करेंगे, फिर नहायेंगे,ये सोंचकर उसने झटपट अपने बेडरूम का बिस्तर बना लिया।

तभी बाथरूम का दरवाज़ा थोडा सा खोलकर वो चिल्लाये,"उफ़! मेरा तौलिया नही है यहाँ! हटाती हो तो तुरंत दूसरा रखती क्यों नहीं? और बाज़ार जाओ तो मेरा साबुन भी लाना..... तकरीबन ख़त्म हो गया है.... कल भी मैंने तुमसे कहा था.... ...." पतिदेव तुनक रहे थे।

बिल्कुल आखरी समय नहाने जातें हैं और फिर सारा घर सर पे उठाते है...... कौन समझाए इन्हें? वो झट से तौलिया ले आयी..... अब किसीभी क्षण बाहर आएँगे और नाश्ता माँगेंगे ......
उसे खुद सुबह से चाय तक पीनेकी फुर्सत नही मिली थी। उसे फुर्सत मे चाय पीनी अच्छी लगती थी और सुबह फुरसत नाम की चीज़ ही नही होती थी। एक ज़मानेमे चाय का मग हाथ मे पकड़ कर वो काम करती थी, फिर उसने वो आदत छोड़ ही दी.....

पती के नाश्ते के लिए उसने आमलेट की तैयारी और उसे तलने के लिए डाला। पतिदेव बेडरूम मे आ गए थे। तभी फ़ोन की घंटी बजने लगी......

"ज़रा फ़ोन उठाएँगे आप?"उसने पूछा।

"तुम ही देखो ,और मेरे लिए हो तो कह दो मैं निकल चुका हूँ," पती देव फरमाए....
आख़िर फ़ोन के लिए वही दौडी .......फ़ोन बेहेनका था..... अमेरिकामे रहनेवाली,उनकी जानसे प्यारी मासी चल बसी थी,अचानक ....
उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। मासी के साथ बिताये कितनेही पल आँखों के सामने दौड़ गए। दोनो बहने फोनपे रो रही थी। लेकिन पतिदेव शोर मचाके उसे वर्तमान मे ले आये।

'सुबह,सुबह इतनी देर फ़ोन पे बात करना ज़रूरी है क्या? तुम्हें गंधभी नही आती?? टोस्ट जल गए,आमलेट जल गया....."

"तुझे बाद मे फ़ोन करूँगी ", कहकर उसने फ़ोन रख दिया।

उसकी आँखों की ओर देख के पतीजी ने पूछा,"अब क्या हुआ?"

"मासी चल बसी,दीदी का फ़ोन था।"

"ओह! सॉरी! लेकिन अब समय नही है, मैं चलता हूँ,"पती बोले।

"सुनो, मैं टोस्ट लगती हूँ, सिर्फ मक्खन टोस्ट खाके जाओ,"उसने आग्रह किया।

"नही कहा ना! मैं सुबह कितनी जल्दी मे होता हूँ ये तुम अच्छी तरह जानती हो,"कहकर उन्होने ब्रीफ केस उठाया और चले गये......
क्रमशः

एक खोया हुआ दिन ! अन्तिम

आँसू भरी आँखोंसे उसने मैले कपडे साबुन मे भिगोए,झाड़ू लगाई,बरतन मांझे। फिर भिगाये हुए कपडे धो डाले। नहानेके बादभी बड़ी रुलाई आ रही थी,लेकिन समय कहॉ था? दालें सब्जी आदी लानेके बाद पी. टी .ए की मीटिंग मे जाना था,उसीमेसे समय निकालकर दो निवाले खाने थे।

सहेलीकी सास से भी मिलना था,या फिर उनसे कलही मिला जाय?आज आसार नज़र नही आ रहे थे।

वो पी.टी.ए.की मीटिंग के लिए स्कूल पोहोंची। वहाँ उसको ख़याल आया कि बिटियाको अच्छा खासा बुखार चढ़ा हुआ था। घर लॉट ते समय वो बिटिया को डाक्टर के पास ले गयी। डाक्टर ने ख़ून तपासने के लिए कहा। रिपोर्ट दुसरे दिन मिलेगी। लेकिन डाक्टर को मलेरिया की शंका थी। हे भगवान्! बच्चों का यूनिट टेस्ट तो सरपर था। लेकिन कोई चारा नही था। वो घर पोहोंची। बच्चों के कपडे बदले। बच्ची को बिस्तरपर लिटाया। दवाई दीं। उसके सरमे दर्द था,सो थोडी देर वो पास बैठकर दबाने लगी। कुछ देर के बाद बच्ची की आंख लग गयी। उसके पास वो स्वयम भी लेटी। लेकिन तभी कॉल बेल बजी। कौन होगा इस वक़्त सोचते हुए उसने दरवाज़ा खोला तो माजी खडी थी। वे अपनी बहेन के पास हफ्ताभर रेहनेके इरादेसे गयी थी, लेकिन पैर मे मोंच आनेके कारण लॉट आयी। वहाँ देखभाल करनेवाला कोई नही था। वो उन्हें उनके कमरेमे ले गयी। पैरपे लेप लगाया। तबतक दोपहर के साढेचार बज रहे थे। उसने दो कप चाय बनाई। माजी का पैर काफी सूज रहा था,इसलिये उसने पती को फ़ोन पे कहा के घर लॉट ते समय डाक्टर को ले आयें।

फिर वो अपनी बिटिया को देखने गयी। उसका माथा बोहोत गरम लगा इसलिये ठंडे पानीकी पट्टियां रखना शुरू की। उसके पैरोंके तलवे भी ठंडे पानीसे पोंछे। रातमे क्या भोजन बनाया जाय येभी वो मनही मन सोंच रही थी। बिटिया को खाली पेट दवाई नही देनी थी पर वो क्या खायेगी इस बातकी उसे चिंता थी। अंत मे उसने खिचडी बनाई। घियाकी सब्जी बनाई। इन दोनो चीजोंको माजी हाथ भी लगायेंगी ये उसे मालूम था। उनके लिए उसने पालक पूरियोंकी तैयारी की और तभी उसके ध्यान मे आया, कि वो दही जमाना भूल गयी थी। वे बिना दहीके पूरियां खाने से रही! और दहीभी घरका जमाया हो। सोंचते,सोंचते उसने बेटेका स्कूल बैग खोला। डायरी चेक की। तय ना होनेका रिमार्क थाही। होम वर्क ज़्यादा नही था। उसने बेटे को टी.वी. के सामने से उठाया। वो छुटका होमवर्क के लिए तंग नही करता था।

दही के लिए उसने अपनी एक सहेली को फ़ोन लगाया। दही कैसे जमाना वो सहेली इसीसे सीखी थी। सहेली दही देके चली गयी। पती डाक्टर को लेकर घर आये। उन्होने माजीके पैरको एलास्टोप्लास्त लगाया। ये सब हो जानेपर उसने बिटिया को थोडा सा खाना खिलाया। बेटे को खाना परोस कर वो सामने बैठी रही। उसने थोडा नाटक करते हुए खाना खाया। पती अपनी माँ के पास बैठे थे। उन दोनो का खाना उसने माजी के कमरेमेही परोसा,फिर बोली,"आप आप माजी के कमरे मे ही सो जयिये। रात मे उन्हें बाथरूम जाने मे अन्यथा मुश्किल होगी"।

उसने स्वयम बच्चों के कमरे मे सोने का सोंचा।

सब निपट्नेके बाद उसने थोड़े बरतन मांझे। जब सब सो गए तो वो अपनी सहेलीसे बडे दिनोसे एक किताब लाई थी,उसे पढने लैंप जलाकर आराम से कुर्सी पर बैठ गयी। तभी बिजली गुल हो गयी। ज़िन्दगीका एक और दिन अपनी हाजरी लगाकर खो गया।

5 टिप्पणियाँ:

Shastri JC Philip said...

You need to work on a climax of the story. Only a proper climax will attract people to your writings.

The expression part is superb! Keep it up.

Shastri JC Philip said...

Emails sent to you are bouncing. Kindly "enable" email in your blogger profile.

Here is one email I sent you. Delete it after you read it.

I was trying to read your latest story. I notice
that there are many spelling mistakes. You
need to work on it with a consice English-Hindi
dictionary

Shastri JC Philip said...

Here is a second email I sent you. Delete it after reading:

Thanks for your comment on Tarangen. My main
website is www.Sarathi.info

I will surely read the story you posted.

Sarathi is a very popular website and I have done
the following for your site:

सारथी (www.Sarathi.info) के प्रति आप ने जो स्नेह दिखाया
है उस के लिये आभार ! हमारा एक लक्ष्य हिन्दी एवं हिन्दी
चिट्ठाकरों को प्रोत्साहित करना है. इस लक्ष्य की प्राप्ति के
लिये हम कई नई योजनायें बना रहे है.

सारथी पर देशीविदेशी पाठकों का जो अनवरत प्रवाह चलता
रहता है उन को अन्य चिट्ठो से परिचित करवाने के लिये
हम ने इस हफ्ते एक और मेनु आयटम जोडा है:

.सक्रिय-हिन्दी-चिट्ठे

इसे आप सारथी के शीर्ष पर दिये गये मेनु में देख सकते है.
आज हम ने आप का एक चिट्ठा यहां जोड दिया है.
कृपया इसे जांच लें कि यह सही है क्या.

यदि आप के और भी कोई चिट्ठे हैं जिनको आप यहां जोडना
चाहते हैं तो निम्न जानकारी भेज दे:

चिट्ठानाम
जालपता
पांच या छ: शब्दों का परिचय

जैसे ही यह जानकारी हम को मिल जायगी, वैसे ही इसे
सारथी पर जोड देंगे. आप को कुछ और नहीं करना होगा.

-- शास्त्री जे सी फिलिप


हिन्दीजगत की उन्नति के लिये यह जरूरी है कि हम
हिन्दीभाषी लेखक एक दूसरे के प्रतियोगी बनने के
बदले एक दूसरे को प्रोत्साहित करने वाले पूरक बनें

deepanjali said...

आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा.
ऎसेही लिखेते रहिये.
क्यों न आप अपना ब्लोग ब्लोगअड्डा में शामिल कर के अपने विचार ऒंर लोगों तक पहुंचाते.
जो हमे अच्छा लगे.
वो सबको पता चले.
ऎसा छोटासा प्रयास है.
हमारे इस प्रयास में.
आप भी शामिल हो जाइयॆ.
एक बार ब्लोग अड्डा में आके देखिये.

Shastri JC Philip said...

This is not a comment but only a mail. There is no other way to communicate with you as I do not know your email.

This is to say thanks for the note you sent this week via Tarangen, my blog.

Good to know it is your personal story. Will help me to read as a biography

Shastri

Wednesday, April 8, 2009

नैहर

नैहर (कहानी)
पिछले एक महीने से अलग,अलग नलियो मे जकड़ी पडी तथा कोमा मे गयी अपनी माँ को वो देख रही थी । कभी उस के सर पे हाथ फेरती , कभी उसका हाथ पकड़ती। हर बार उसे पुकारती,"माँ!देखो ना!मैं आ गयी हूँ!"
उसके मन मे आशा एक नन्हा-सा दिया टिमटिमाता रहता। शायद आख़री सांस लेनेसे पहेले किसी तरह उसकी माको पता चले कि उसकी लाडली बेटी मृत्युशया के पास थी। मन ही मन वल हज़ारों बार इश्वर से बिनती करती रहती,हे भगवान्!सिर्फ एक बार इसकी आँखें खुलवा दो,मुझे देख लेने दो,मेरे नजदीक होने का एहसास दिलवा दो।
लेकिन ऐसा हुआ नही। एक बार पूरी रात उसकी आंख नही लगी,पर तड़के झपकी लग गयी। जब डाक्टर माँ को देखने कमरे मे आये तो वो hadbada के जग पडी। डाक्टर ने हमेशा की तरह उस की माँ को तपासने की शुरुआत की और तुरंत उस की ओर मुड़ के बोले,"I ऍम सॉरी शी इस नो मोर"।

डाक्टर उसके परिवार के पुराने परिचित थे। उनका अक्सर उसके पीहर मे आना जाना हुआ करता था। उन्हों ने धीरे से उसके कन्धों पे थपथपाया। नर्स ने माँ को लगी हुई नलिया निकालने की शुरुआत कर दीं। उसकी आंखों से आँसू ओंकी धारा बहने लगी थी। उसके पास होने का कोई भी एहसास उसकी माँ को नही हुआ था। उसने आने मे बोहोत देर कर दीं थी। "माँ!तुमने मुझे कितनी बड़ी सज़ा दीं",उसका मन दर्द से कराह उठा।
उसके बाद धीरे,धीरे जोभी विधियां होनी थी होती रही। लोगों को फोन किये गए। उनके फार्म हौस पे लोग इक्ट्ठे हो गए। उसका भाई रीती रिवाज निभाता रहा। वो गुमसुम-सी देखती रही।

जब घर पे काम करने वाली औरतों ने ज़ोर से रोना धोना शुरू किया तब वो बेसाख्ता उन पे चींख उठी ,"खामोश!रोना है तो बाहर निकल जाओ!"
इन सब औरतों के साथ उसके पिता के कभी ना कभी अनैतिक संबंध रह चुके थे। उसे बेहद घुस्सा आया। उन औरतों के जिस्म पे सोना था,उन के पक्के घर बन चुके थे। माँ को उसके पिता ने कभी सोने की चेन तक नही दीं थी। माँ ने खुद ये सब झेल कर भी कभी किसी को बताया नही था। उसीने एकबार अपनी आंखों से देख लिया था। अपने आपे से बाहर हो गयी थी वो तब। इतनी सुन्दर, शालीन,गुणवती पत्नी होने के बावजूद उसके पिता ने ऐसा क्यों किया?अपने पितापे आये क्रोध के कारण उसने अपने पीहर जाना काफी कम कर दिया था।
वो काफी प्रतिथ यश वकील थी। माँ पर होने वाले अन्याय होने वाले एहसास होने के बाद उसने उस किस्म की परिस्थितयों से गुजरने वाली महिलाओं से फ़ीस लेनी बंद कर दीं थी। लेकिन माँ उसे बार, बार बुलाती रहती । उसे कहती, ''मेरी खातिर आओ। हमेशा दो दिन रहके लॉट जाती हो। तुम से कितनी सारी बांतें करने का मन होता है। कभी तो समय निकाल कर आठ-दस रोज़ आओ। मैंने तो कोई गुनाह नही किया। देखो, मैंने सब कुछ हँसते ,हँसते सह लिया। शायद यही मेरी किस्मत थी। मेरे पास और कोई रास्ता नही था। बच्चों को लेके मैं कहॉ जाती?मेरा तो कोई पीहर नही था!!तेरा है। कयी बार मन करता है,तेरा सर अपनी गोद मे रख कर सहलाती रहूँ। "
माँ की बिनती हमेशा चालू रहती। कभी,कभी वो अपनी बेटी को भेज देती। नानी-नवासी की ख़ूब पटती। मानो दोनो बड़ी गहरी सहेलियां हो!उसकी बेटी शादी के बाद जब ऑस्ट्रेलिया चली गयी तब माँ कितना रोई थी!!
माँ की एक फुफेरी बहन Hyderabad मे रहती थी। दोनोका आपस मे बड़ा लगाव था। कभी कभार माँ उसे और उसके छोटे भाई को लेके हैदेराबाद जाती। मौसी उनके ख़ूब लाड करतीं। मौसी के पांच बच्चे थे। उसकी माली हालत भी कुछ खास अच्छी नही थी। माँ भी बिना आरक्षण थर्ड क्लास मेही सफ़र किया करती। लॉट ते समय मौसी सभी को कपडे खरीद देंती । लेकिन माँ ने मौसी को कभी कुछ दिया हो,उसे याद नही। उसके पिता उसकी माँ को कभी अपनी मर्जी से खर्च करने के लिए कुछ पैसे देतेही नही थे।

इतने मे भाई ने हलके से उसके कन्धों पे हाथ रखा। "वासांसि जीर्नानि यथा विहाय,नवानि गृन्हाती नारोपरानी। तथा शरीरानी विहाय, जीर्न्यानी अन्यानी संयाति नवानि देही। "यह सब मंत्रोच्चार हो चुके थे। और भी जो कुछ होना था हो चुका था। माँ की अन्तिम यात्रा शुरू होने वाली थी। उसे उठाया गया। बाहर लाया गया। घर गेट से दूर था। वो गेट तक गयी और देर तक देखती रही। उसकी जननी कभी ना लौटने के लिए जा रही थी......

कुछ देर बाद bhai लौटा.....कितना समय लगा उसे पता नही चला। स्नानादि हो गए। कुछ लोग रुके, कुछ लोग चले गए । अचानक उसके ख़्याल मे आया,माँ की चिता की साथ,साथ उसका नैहर भी जल गया था। अब वो किसीकी गोद मे अपना सर नही रख पायेगी......

दस बारह दिनों बाद वो वापस लॉट गयी। उसकी बेटी ऐसे समय मे ऑस्ट्रेलिया से आयेगी ऎसी उसे भोली-सी उम्मीद थी। लेकिन वो नही आ पायी। "सिर्फ हफ्ता भर आओ,"कहके उसने बड़ा आग्रह किया,लेकिन वो नही आयी। अब उसे महसूस हुआ कि,जब उसे उसकी माँ बुलाती रहती और वो नही जाती तो उसकी माँ पे क्या गुज़रती होगी।

दिन बीतते गए। उसका भाई उसे कभी कभार बुलाता लेकिन माँ बिना सूने घर मे जाने से वो कतराती तथा एक अपराध बोध भी सताता। फिर एक दिन उसके भाई का फ़ोन आया। उसने वो पुश्तैनी घर तथा आसपास की ज़मीन बेचने का फैसला किया था।
उसने कहा,"माँ एक बैग आपके लिए रखा था, वो मेरी नज़रों से परे हो गया और मैं आप को बताना ही भूल गया। अबके आप ज़रूर आईये और अपने घर को आखरी बार देख भी जाईये ',कहते हुए भाई का गला भी भर आया। अब उसने जाने का निश्चय कर ही लिया और वो गयी भी।

वो पोहोंची तबतक काफी सामान पैक हो चुका था। माँ को बगीचे मे काम करने का बेहद शौक़ था।शायद अपने मन की गहराई मे छुपे दर्द से ध्यान हटाने का उसका वो एक तरीका था। रॉक गार्डन ,अलग,अलग रितुओं मे होने वाले फूल,किस्म,किस्म,की बेलें,मोतियां तथा गुलाब की क्यारियां,ख़ूब सारे crotans , तथा और कयी सारे पौधों से बगिया सजी रहती थी। कयी बार आसपास के लोग खास उस बगीचे को देखने आते....

उसने उस बगीचे मे एक नज़र फैलायी और उसे उस बगीचे के भग्नावशेष भी नही दिखाई दिए.... कुछ अधमरे पौधे तथा कुछ क्यारियां जिनमे उग रही घांस के अलावा वहाँ कुछ भी नही था...
सुबह उठके वो बाहर आयी। वहाँ वो पुराना,दादाजी के हाथ का लगा नीम का पेड खङा था। कितनी मीठी,मीठी स्मृतियां जुडी थी उस पेड के साथ!!हाँ, उस पे एक ज़माने मे बंधा झूला अब नही था। उस झूले पे दादाजी उसे झुलाया करते थे....
सामने हारसिंगार का पेड था। उसपर बचपन मे खेले खेल याद aate रहे। नीचे बिखरे फूल याद आये,सफ़ेद,छोटे ,छोटे,लाल,लाल टहनी वाले....
वो बकुल का पेड जिसकी टहनियों पे बैठ कर वो श्लोक कवितायेँ आदि याद करती थी वहीं था, गुज़रे वक्त का गवाह बनके । "शैले,शैले ना मानिक्यम"..उसकी अपनी ही आवाज़ उसके कानों मे गूँज गयी...
ज़मीन पर डालियाँ टिका के खडे आम के पेड, वो छोटी,छोटी पग डंडियाँ ,आगे,आगे दौड़ने वाली वो और पीछे,पीछे दौड़ते दादाजी,नैहर की मिट्टी से मटमैले पैर, बरामदे मे झूलती कुर्सी पे बैठी ,कभी स्वेटर तो कभी लेस बुनती दादीमा,इन सब यादों को संजोये हुए ये उसका बचपन और जवानी का आशियाना.... उस से सदा के लिए जुदा होने जा रहा था....

सादी- सी लेकिन स्टार्च की हुई साडी पहने....जूडा बनाए हुए....हँसमुख माँ....कभी बगीचे मे रमने वाली तो कभी रसोयी मे....अपना दुःख कभी ना जताने वाली वो माता....उसके अस्तित्व से भरा हर कोना बिकने वाला था.... मानो, उसका बचपन बिक रहा हो....

खडे,खडे उसे उस बैग की याद आयी। भाईने वो लाकर देदी। क्या रखा होगा इसमे माने??देखा तो ऊपर ही एक पीला-सा हुआ ख़त पडा था..... ख़त खोलके वो पढने लगी....
माँ ने लिखा था,"मेरी बिटिया,इसमे मैंने तेरा और तेरी बिटिया का बचपन संजोके थाम के रखने की कोशिश की है... मेरे पास देने जैसा और तो कुछ भी नही... ये तुझे भी संजोना हो तो संजोना। मन मे एक तूफान-सा उठ रहा है...
chand लम्हें भर की नन्ही-सी जान को बाहों मे लिया था,कैसा प्यार उमड़ आया था! मातृत्व ऐसा होता है? पलभर मे दुनिया ही बदल देता है??कितनी दुआएं निकली थीं दिल से तेरे लिए,कैसी बहारों की तमन्ना की थी तेरे लिए,तेरे हिस्से के सारे गम,राहों के सारे कांटें मैंने माँग लिए थे.....

"धीरे,धीरे दिन गुजरते गए। मेरी आवाज़ सुनके तूने गर्दन घुमाना शुरू किया... तू मुस्काराने लगी,करवट लेने लगी... सब कुछ मनपे अंकित होता रहा...
सहारा लेके तेरा बैठना....मेरे हाथसे पहला कौर....उंगली पकड़ के लिया पहला क़द.....,मुहसे पहली बार निकला "माँ'!कितना संगीतमय था वो! घरके कोने,कोने से निकलती तेरी तेरी किलकारियाँ....स्कूल का पहला दिन... सहमा-सा तेरा चेहरा और नम होती मेरी ऑंखें,इसके अलावा भी और कितना कुछ!
"तू ब्याह के बाद ससुराल गयी तो हर कोनेसे "माँ"की गूँज सुनाई देती थी,लगता था,अभी किसी कोनेसे आके मेरे गलेमे बाँहें डालेगी, फ़ोन बजता तो दौड़ पड़ती, हरवक्त लगता,तेराही होगा!!
"आहिस्ता,आहिस्ता आदत पड़ गयी... फिर तेरी बिटियाके जनम ने एक नयी ख़ुशी,नया उल्लास जीवन मे भर दिया.... उसके लिए नयी,नयी चीज़े बनाने मे बड़ा aanand आता। जब तू उस नन्ही-सी जान को लेके मेरे पास आती....वो मुझ से लिपटती, तो एक अजीब-सा सुकून मिलता.... ब्याह के बाद वोभी ऑस्ट्रेलिया चली गयी तो जीवन का एक अध्याय मानो ख़त्म हो गया....
"अंत मे इतनाही कहूँगी कि ज़िंदगी मे जब कभी अँधेरा छा जाये,मन की ऑंखें खोल देना,उजाला अपने आप हो जाएगा....कोई राह हाथ पकड़ लेगी....कभी किसी दोराहे मे फंस के किसी मोड़ पे रूक मत जाना.... हमेशा धीरज रखना।अन्तिम सत्य के दर्शन ज़रूर होंगे....
हाँ!दुनिया मे नित्य कुछ भी नही....जीवन अनित्य से नित्य की ओर का एक सफ़र है। अगर भोर तुम्हारी मंज़िल है तो भोर से पहले उठ के सफ़र पे चल देना,तुम्हे मंज़िल ज़रूर मिल जायेगी। खैर !तुझे देखने के लिए आँखें हमेशा तरसती रहती हैं। मेरी लाडली,मेरा आर्शीवाद सदा तुम्हारे साथ रहेगा,सुखी रहना,खुश रहना।
तुम्हे बोहोत,बोहोत प्यार करने वाली तुम्हारी
माँ"

रिमझिम झरने वाले नयनों से,कांपते हाथों से,उसने बैग मे टटोल ना शुरू किया.... एक फाईल मे ,बचपन मे की हुई उसकी चित्रकला के पन्ने थे.... पीले पडे हुए...
एक नोटबुक थी जिसमे वो एक सुभाषित लिखा करती थी..... दूसरी नोटबुक मे उसने उसकी पसंद की तसवीरें ,ग्रीटिंग कार्ड्स आदि पर से काट के चिपकायी हुई थी.....
एक थैली मे उसकी स्कूल की प्रगती पुस्तकें थी.... स्कूल कालेज की पत्रिकाएँ, जिसमे उसके फोटो थे,लेख थे...
कुछ कपडे की potliyaa थीं,जिसमे छोटे ,छोटे, दुपट्टे थे....जिन्हे पहले तो वो स्वयम और बाद मे उसकी छुटकी बेटी गले मे डाल के घूमा करती थी....
छोटे,छोटे फ्रोक्स थे। कुछ उसके, कुछ उसकी बिटिया के थे.... जो माँने ही सिये थे... खतों का एक गट्ठा था... कुछ वो थे जो उसने समय,समय पर अपनी माँ को लिखे थे...... तो कुछ उसकी बिटियाने अपने नन्हें,नन्हे हाथों से अपनी नानी को लिखे थे....
एक लकड़ी का डिब्बा था.... उसमे अलग,अलग मेलोंसे कांच तथा पीतल के हार,छोटी,छोटी कांच की चूडिया,छल्ले और झुमके थे। कुछ कपडे की गुडियां थी, जो माँ ने पहले उसके लिए फिर उसकी बिटिया के लिए बनायी थी...
कुछ छोटे,छोटे खिलौनों के बरतन थे...
एक अल्बम थी... जिसमे उसके पलने मे की तस्वीरो के अलावा उसकी बिटिया के बचपन के फोटो भी थे... बोहोत देर तक वो वहाँ बैठी रही। फिर कब उठ खडी हुई उसे खुद पता नही चला।

छ: शयन कक्शोंवाला ,छ: स्नान गृह तथा तीन बैठकों वाला, बरामदों से घिरा हुआ वो घर था। वो उस मे घूमने लगी। यहाँ ,इस खिड्कीमे एक पुराना ग्रामोफोन हुआ करता था,तथा साथ,साथ रेकॉर्ड्स एक गट्ठा...
"घूंघट के पट खोल रे ,तोहे पिया मिलेंगे",ये सुर उसके कानोंमे गूँज ने लगे.... बचपन मे इन शब्दोंके मायने उसे पता नही चले थे। बाद मे समझ आयी,"घूंघट के पट "मतलब मानसपटल पे चढी अज्ञान की परतें.... उन्हें खोला जाय तो अन्तिम सत्य का दर्शन होगा.....
"कहो ना आस निरास भई",माँ हमेशा गुनगुनाया करती थी... फिर ना जाने कितने ही गाने कानों मे गूँज ने लगे,"ईचक दाना,बीचक दाना,दाना ऊपर दाना","नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी मे क्या है...."
इसी बीच किसी वक़्त उसने खाना खाया। शाम को फिर वो सारा परिसर आंखों मे ,मन मे बसाने निकल पडी। र्हिदय मे कुछ तार टूट से रहे थे....

दिलमे एक असीम दर्द लेके वो रातमे सोई। बड़ी देरसे नींद लगी। सुबह ट्रक आने लगे। उनकी आवाजों से वो जग गयी। सामान भरना शुरू हो गया था। देखते ही देखते घर खाली होने लगा। खाली घरमे आवाजें गूंजने लगी। उसकी ट्रेन का समय होने लगा था...
Bhaine कार निकाली.... उसने अपने नैहर पे एक आख़री नज़र डाली...
यहाँ एक दिन बुलडोज़र फिरेगा,जिन pedonkee टहनियों पे वो कभी खेली कूदी थी वो सब धराशायी हो जायेंगे... वहाँ सिमेंटके ब्लोक्स खडे हो जायेंगे....जो वास्तु उसके लिए इतने मायने रखती थी ,वही कितनी क्षणभंगुर बन रही थी.... कुछ भी तो चिरंतन नही इस धर्तीपर.... सच ही तो लिखा था माँ ने अपनी चिट्ठी मे... उसकी आंखें baar, बार छल छला रही थी...

वो कार मे बैठी...साथ माँ का दिया हुआ वो बैग भी था... कार स्टार्ट हुई। घर नज़र से ओझल होनेतक पीछे मुड़ कर वो देखती रही...
सच! सभी अनित्य है.... यही तो अन्तिम सच है। "घूंघट के पट खोल रे"बार बार ये धुन उसके मनमे बजती रही। स्टेशन आ गया। कुछ देरमे ट्रेन भी आ गयी.... आंसू भरे नयनों से उसने अपने भाई से विदा ली और ट्रेन मे चढ़ गयी....
जब ट्रेन चली तो उसके मन मे आया, अब दोबारा वो यहाँ कभी नही आ paayegee.... kisee वक़्त, कहीं और सफ़र करते समय, जब दो मिनट के लिए इस स्टेशन पे गाडी रुकेगी, तो वो खिड़की से jhaankegee...., मन मे ख़्याल aayegaa.... कभी यहाँ अपना नैहर हुआ करता था.... अनायास दूर जाते स्टेशन की ओर उसने हाथ हिलाया..... उस गाँव की बिटिया ने अपने नैहर से आखरी बिदा ली....
समाप्त.
प्रस्तुतकर्ता shama पर 10:18 AM
4 टिप्पणियाँ:

उन्मुक्त said...

इस कहानी का अगला भाग इसी पर मत लिखियेगा पर नयी चिट्ठी पर पोस्ट कीजिये। हिन्दी के फीड एग्रेगेटर की सूची यहां है। कईयों में आपको अपना चिट्टा रजिस्टर करवाना पड़ता है। देवनागरी चिट्ठे मेरा एग्रेगेटर है। यहां पर रजिस्टर करवाने की जरूरत नहीं। यदि अन्य में आपका चिट्ठा रजिस्टर नहीं है तो रजिस्टर करवायें। और लोगों के चिट्ठे पर भी टिप्पणी करें ताकी उन्हें भी आपके चिट्ठे के बारे में पता चल सके और वे आपकी कहानियों का आनन्द ले सकें। मेरा ईमेल यह है। यदि कुछ मुशकिल हो तो समपर्क करें।

Friday, April 3, 2009

नीले ,पीले फूल. ( कहानी)

नीले पीले फूल ( कहानी)

भई, अबके गर्मियों की छुट्टियों मे हिंदुस्तान मेही कहीं चलेंगे। परदेस चलने का कुछ मूड नहीं बन रहा!"सुबह
बाथरूम मे खड़ा विपुल शेव करते करते अपनी पत्नी नीरा से बतियाने लगा। कुछ देर उसकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर फिर आगे बोल पडा ,"सोंचता हूँ,पहले तो शिमला चल पड़ें ,फिर आगे की देखी जायेगी। वैसे तो घिसी पिटी जगह है, गर्मियों मे भीड़ भी रहेगी ,लेकिन बच्चे भी तो बेरौनक जगह जाना नही चाहते ना अब!"

विपुल बिना नीरा की ओर देखे बोला चला जा रहा था। अगर देख लेता तो शायद बड़ा चकित हो जाता। हिमाचल की उस राजधानी का नाम सुनते ही नीरा ऎसी कंपित हो उठी , जैसे किसी हिमशिखा से चला सर्द हवा का झोंका उसे छू गया हो! उस के मन का एक मूर्छित सोया कोना हज़ारों झंकारों के साथ जाग उठा। पिछली शाम dryclean हो आयी साडीयां अलमारी मे लटकाती नीरा एकदम रूक सी गयी, मानो उस की किसीभी हलचल से विपुल अपना विचार बदल ना दे। नीरा के इस बर्ताव के पीछे एक रहस्य था,जो दबा पडा एक किताब के पन्नोमे,और वो किताब पडी हुई थी उसी अलमारी मे,पिछले कयी वर्षों से।

"भई!कुछ बोलो भी!!क्या सरकार को हमारा ख़्याल पसंद नही आया?अगर नही तो तुम जहाँ कहोगी वहीं चलेंगे, परदेस ही कही चलना है तो ....."

"नही,नही,ऎसी बात नही!!मैं तो बस किसी सोंच में उलझ गयी थी......अबकी बार वाकई शिमला ही चलेंगे,"नीराने अपने आप पे काबू पाते हुए कहा। लेकिन फिरभी उस का अन्तिम वाक्य गौर से सुन ने वाले को लगता जैसे अर्धस्पप्नावस्था मे कहा गया हो। विपुल का घ्यान नही था। शेव ख़त्म होतेही ही उसने नहाने के लिए बाथरूम का दरवाजा बंद कर लिया।

बच्चे तो सुबह ही स्कूल चले गए थे। नाश्ता करके विपुल भी जब ऑफिस चला गया तो नीरा ने अपनी अलमारी खोली। उसमे से वो किताब निकाली और खोला वो पन्ना जहाँ चंद सूख नीले,पीले फूल चिपके हुए थे उसने उन्हें धीरेसे छुआ और अनायास बोल पडी ,"उसका पता मैं लगा पाऊँगी?"

खडी ,खडी ही नीरा अतीत मे खो गयी। बीस साल पहले अपने माँ-बाबूजी के साथ वो शिमला गयी थी। केवल चौदह वर्षीया लडकी थी तब नीरा।
"होटल हिमाचल"मे रुके थे वे लोग। साफ सुथरा,बड़ी ही सुन्दर जगह स्थित होटल था वो। वहाँ एक अठारह,उन्नीस साल का वेटर काम करता था। ख़ूब हंसमुख,लेकिन उतनाही सभ्य और बेहद फूर्तीला। बाबूजी तो उसपर एकदम लट्टू हो गए थे। सुबह और रात मे तो वो नज़र आता था dining हाल मे लेकिन दिनके समय नही। एक दिन बाबूजीने पूछ ही लिया,"भई तुम दिन मे नही नज़र आते?सिर्फ सुबह और रातमेही काम करते हो क्या?"

"जीं,दिन मे मैं कालेज जाता हूँ। "
"अच्छा? क्या पढ़ते हो?" बाबूजी ने पूछा।
मैं m.b.b.s के फर्स्ट year मे हूँ। "वो बोला।
"वाह,भई वाह!!बडे होनहार हो!! लेकिन बुरा ना मानो तो एक बात पूछूं बेटा?" बाबूजी ने बडे प्यारसे कहा।
"जीं,बिलकुल पूछिए,"उसने नम्रता से जवाब दिया।
"बेटा तुम्हारे घरमे और कोई कमाने वाला नही है क्या?मेरा मतलब है,वैसे तो खुद कमाना और पढना अच्छी बात है। आत्मसम्मान बना रहता है,लेकिन मेडिसिन की पढाई कुछ अधिक होती है ना इसलिये पूछ रहा हूँ," बाबूजी बोले।
"बाबूजी, दरअसल मेरे पिताका कुछ साल पहले बीमारी से देहांत हो गया । हम लोग रहनेवाले देहरादून के थे। पिताजी का वहाँ छोटा सा कारोबार था। माँ तो मेरे बचपन मे ही चल बसीं थीं। मैं अकेली ही संतान था। मेरे पिताजी का अपने छोटे भाई पर बड़ा विश्वास था। मरने से पहले अपना सारा कारोबार पितीजी ने उन्हें सौप दिया। सोंचा,चाचाजी कारोबार के पैसों से मुझे पढा देंगे और बादमे यथासमय कारोबार मेरे हवाले कर देंगे। लेकिन चाचाजी ने सब हड़प लिया। घर मे मुझे बड़ा तंग करने लगे। मैं अपनी पढाई हरगिज़ नही छोड़ना चाहता था। घर छोड़ काम की तलाश मे यहाँ चला आया। इस होटल मे काम करते हुए पढने लगा।
"दरअसल, इस होटल के जो मालिक है ना, बडेही भले आदमी है। उन्हों नेही पहले तो स्कूल मे, फिर मेडिकल कालेज मे दाखिला कराया। उनकी ऑलाद नही है। अकेले ही रहते है। कहते है, पढाई का पूरा खर्चा वोही देंगे। मुझे तो काम करे से भी रोकते हैं,पर मेरा मन नही मानता। सुबह एक डेढ़ घंटा तथा रात मे एक डेढ़ घंटा काम कर लेता हूँ। "
कुतूहल और प्रशंसा से नीरा भी सब कुछ सुन रही थी। वाकई कितना नेक और सरल,सच्चा इन्सान है ये! होटल के मालिक के प्रती भी उस का मन श्रद्घा से भर आया।
"शाबाश बेटे,शाबाश! बोहोत ख़ूब!!अच्छा बताओ तुम्हारा नाम क्या है?"बाबूजी ने पूछा।
"नाम तो मेरा निरंजन है,वैसे सब मुझे राजू ही कहते है।" निरंजन ने बताया।
जब निरंजन वहाँ से हट गया तो माँ ने भी कह दिया,"बड़ाही होनहार लड़का है! भगवान् इसे सफलता दे और होटल के मालिक को लम्बी उम्र!!"

एक दिन सुबह होटल के लॉन के एक कोनेमे नीरा को कुछ घाँस के फूल दिखाई दिए....... बडेही सुन्दर,कोमल। उसने धूप सेकते बैठे बाबूजी से चिहुक के कहा,"बाबूजी! देखिए तो! कितने सुन्दर फूल है ये!!"
इन्हें तोड़ कर अपनी किसी किताब मे रख लेना। ये एक यादगार बन जायेंगे,"बाबूजी बोले।
"आज नही। जिस दिन चंडीगढ़ के लिए वापस चलेंगे ना, उस दिन मैं इन्हें किताब मे दबा कर रख लूँगी",नीरा ने कहा था।

जिस दिन चलने लगे उस दिन नीरा उन फूलोंके बारेमे भूल ही गयी। माँ टैक्सी मे समान रखवा रहीँ थीं ,बाबूजी होटल का बिल अदा कर रहे थे,नीरा ,कुछ भूला तो नही ,ये देखने के लिए अपने कमरे के ओर बढ़ी तो दरवाज़ेपर वही घाँस के फूल लिए निरंजन खङा था....
"उस दिन आप अपने बाबूजी से कह रही थी ना,ये फूल बडे सुन्दर हैं,"कहते हुए उसने उन घाँस के फूलोंका छोटासा गुच्छा नीरा की ओर बढाया।
चकित ,भरमायी -सी नीराने आँखें उठाके उसे देखा तो पाया, कि वो बेहद उदास निगाहोंसे उसे अपलक देख रहा था। एक अबीब-सी , अजनबी संवेदना उसके अन्दर तक दौड़ गयी, जिसका उस समय उसका अबोध किशोर मन नामकरण नही कर पाया। महसूस हुई कान और गालों पर एक अनोंखी गरमी। उसने निरंजन के हाथोंसे फूल लिए और शरमा कर टैक्सी की ओर चल दी । निरंजन उसके पीछे आया । तब तक बिल अदा करके बाबूजी भी वहाँ पोहोच चुके थे।

नीरा के हाथ मे फूल देखे तो बोले,"अरे फूल इक्ट्ठे कर रही थी हमारी बिटिया!"
जी ,!"इस से आगे नीरा कुछ बोल नही पायी।
माँ बाबूजी ने निरंजन की ओर मुखातिब हो उसे जी भर के शुभ कामनाएँ दीं। निरंजन ने हाथ जोडे और टैक्सी चलने के पहले ही तेज़ कदमों से अन्दर मुड़ गया। नीरा समझ नही पायी कि, क्या उसकी आँखों मे उन वादियों के कोहरे की नमी थी...?

चंडीगढ़ से जब वे लोग शिमला की ओर चले थे पूरा रास्ता नीरा चिड़िया की तरह चिहुकती आयी थी। लॉटते हुए उसे उस अर्ध क्षण की अनुभूती ने कितना अंतर्मुखी बना दिया था!

घर पहुँचते ही नारा ने उन फूलोंको अपनी एक किताब मे दबा दिया। देखते ही देखते वर्ष बीत ते गए। उन गर्मियों के बाद उस परिवार का कभी दोबारा शिमला जाना ही नही हुआ। उन्नीस वर्ष की पूरी होते,होते नीरा की विपुल से शादी भी हो गयी।
विपुल के पास धन दौलत की विपुलता तो थीही , उसने नीरा लो चाहा भी बेहद। वैसे स्वभावत: वो बड़ा हँसमुख और बातूनी था।
एक दिन उसने नीरा को कहा था,"तुम जब भी बाहर निकला करो ना, तब धूप का काला चश्मा आंखों पे लगा लिया करो"।
"क्यों",नीरा ने हैरत से पूछा था।
"पता नही,मेरी तरह कौन,कौन बेचारे इन इनकी गिरफ्त मे आकर घायल होते होंगे?"विपुलने छेड़ा।
"अच्छा??जैसे लोगों को मेरी आँखों मे झांक ने के अलावा दूसरा कोई काम ही नही!"नीरा ने कहा था।
"अजी,हम भी उन्ही निकम्मों मे से एक हैं,क्या भूल गईँ?तुम जब चंडीगढ़ से अपने चाचा के पास आयी थी तो canaught प्लेस मे हमने तुम्हे देख लिया था, और ऐसा पीछा किया, ज़िंदगी भर छूटेगा नही,"विपुल ने शरारत से याद दिलाया था।
लेकिन इतना भरा पूरा घर-संसार होते हुए भी नीरा के मन का एक कोना बिलकुल सूना ,अछूता रह गया था। एक सुनसान,अंधेरी गूफा की तरह।

ना जाने नीरा कितनी देर खयालों मे खोयी रही। जब गर्मियों की छुट्टियों की जब तैयारियां होने लगी तो नीरा मे एक अजीब सी चेतना भर गयी। लड़कपन की अधीरता से वो शिमला जानेका इंतज़ार करने लगी। इतना उल्लसित उसे उसके परिवालों ने शायद ही कभी देखा था।
"अपनी ही कार से चलेंगे!",उसने विपुल से आग्रह किया।
विपुल ने मान भी लिया।

सारा रास्ता नीरा खयालों मे खोयी रही । क्या निरंजन का पता मिलेगा??क्या वो शिमला मे ही होगा?बाबूजी से तो उसने एक दिन यही कहा था डाक्टर बन के वो शिमला मेही काम करेगा। लेकिन ज़िंदगी का क्या भरोसा?किस वक़्त किस मोड़ पर ले जाये?उसने विवाह भी कर लिया होगा!!लेकिन कर भी लिया हो तो क्या??उसके अतीत के वो कुछ पल जो नितांत उसके अपने थे, उसमे तो किसी की साझेदारी नही हो सकती!केवल उसने उन पलोंको जिया है,और किसी ने तो नही!उन पलोंकी स्मुतियों को उजागर करनेकी चाह मन और जीवन की सारी सीमा रेखाओं को पार कर उसे व्याकुल,अधीर बनाती रही।

शिमला पहुँचने के दुसरे ही दिन उसने दिन विपुल तथा बच्चों से कहा,"भयी,आज मैं अकेलेही शिमला मे कुछ देर घूमूँगी, खुद ही ड्राइव भी करूँगी । "
विपुल हैरानी उसे देखता रहा,बोला,"अकेली? क्यों?और खुद ही ड्राइव भी करोगी?तुम देहली मे तो इतना डरती हो कार चलाने से और यहाँ ड्राइव करोगी??इन अनजान पहाड़ी रास्तोंपे??
"बस ऐसे ही मन कर रहा है.बोहोत साल पेहेले माँ-बाबूजी के साथ यहाँ आयी थी। उन्ही यादोंको अकेले उजागर करना चाहती हूँ",नीरा ना चाहते हुए भी कुछ खोयी-सी बोली।
ओहो??ऎसी कौनसी यादें हैं जो हम नही बाँट सकते ?और फिर होटलकी भी कार सर्विस है,उससे जाओ। गाडी मत चलाओ। आख़िर किसलिये रिस्क लेना चाहती हो?" विपुल ने हर तरह से उसे रोकना चाहा, लेकिन नीरा के साथ हर बेहेस बेअसर थी। बच्चे भी माँ के इस बदले हुए रुप को हैरत से देखते रहे, बोले कुछ भी नही। विपुल ने हार के कार की चाभियाँ नीरा को पकडा दीं और हताश हो कमरेमे बैठ गया।
नीरा ने होटल से रोड़ मैप ले लिया और "होटल हिमाचल"की ओर चल दीं। एक अनाम धुन मे सवार,कहीं कोई अपराध बोध नही। केवल एक आत्यंतिक उत्कंठा। क्या निरंजन को वो तलाश पायेगी??

"होटल हिमाचल"पोहोंच के उसने कार पार्क की। होटल का हूलीया काफी बदला हुआ नज़र आ रहा था। पहले कितना साफ सुथरा हुआ करता था ये होटल!
काउंटर पर पोहोच कर उसने मेनेजर से कहा, 'देखिए मैं यहाँ किसी का पता पूछने आयी हूँ, कुछ बीस साल पहले हम यहाँ एक बार आये थे तब...."
"बीस साल पहले?पिछले दस सालोंसे मैं यहाँ मेनेजर हूँ। किसका पता चाहती हैं आप?"मेनेजर ने उसकी बात काट ते हुए उस से प्रतिप्रश्न किया।
"ओह! क्या इस होटल के मालिक से मिल सकती हूँ मैं?"नीरा ने बड़ी आशा से पूछा।
"इस होटल के जो पुराने मलिक थे,देहांत हो गया,कुछ सात साल पहेले। नए मालिक तो...."
हे भगवान्!पुराने मालिक का देहांत हो गया?"नीरा एकदम हताश हो उठी। अब कौन उसे निरंजन का पता बतायेगा??
उसकी निराशा देख,मेनेजर ने उस से कहा,"देखिए,इस होटल के जो पुराने मालिक थे,सुना है उन्होने एक वेटर को बिलकूल अपने बेटे की तरह रखा था, शायद वो आपकी ......"
"कहाँ है वो? क्या करता है?शिमला मे ही है?क्या आप मुझे उसका पता बता पायेंगे?"नीरा का खोया उल्लास लॉट आया और उसने सवालों की बौछार कर दीं।
"वो आजकल शिमला मे ही है, काफी जाना माना डाक्टर है,डाक्टर निरंजन्कुमार। पुराने मालिक ने पढाई के लिए उसे परदेस भी भेजा था,और उन्होनेही अस्पताल भी खुलवा दिया। "

मेनेजर जैसे,जैसे बताता गया,नीरा का चेहरा खुशी से खिलता गया। निरंजन के अस्पताल का पता जान ने के लिए वो बेताब हो उठी।
मनेजर ने एक कागज पे उसे रास्ते समझाते हुए पता लिख दिया.... नीरा ने बे-सब्रीसे उसके हाथ से कागज छीना अपनी कार की ओर तेज़ीसे दौड़ पडी,ख़ुशी और उत्कंठा से उसका शरीर काँप सा रहा था....
ये ऎसी उत्कंठा,ऐसा अछूता,अनूठा कंपन उसके लिए तकरीबन अपरिचित ही था। जिस व्यक्ती को उसने वर्षों पहेले केवल एकही बार देखा था,क्या वो ऎसी विलक्षण संवेदना जगह सकता है??नीरा को अपने आप पे अचरज हो रहा था.....

अस्पताल होटल से ज़्यादा दूर नही था। पता ढूँढने मे नीरा को खास परेशानी नही हुई। गेट के अन्दर घुसते ही उसने देखा कि छोटा-सा लेकिन काफी साफ सुथरा था अस्पताल। मुख्य द्वार से अन्दर जाते ही सामने बैठी receptionist ने उसे एक कार्ड थमाया, जिस पे नीरा ने काँपते हाथों से अपना नाम लिखा और वापस किया...

हॉल मे कुछ और लोग भी बैठे हुए थे। नीरा एक कुर्सी पर जा बैठी। इतना उत्कंठा भरा इंतज़ार तो नवपरिणीता नीरा ने सुहाग रात के दिन अपने पती का भी नही किया था। आज उसे वो व्यक्ती दिखने वाला था,जिसे इतने वर्षों मे वो कभी भी नही भूली थी। नीरा को देखते ही वो अनायास कह उठेगा,"अरे आप!!इतने सालों बाद?"
"पहचाना मुझे?" काँपते होंटों से कुछ अलफ़ाज़ फिसल पड़ेंगे। इस पर निरंजन का क्या जवाब रहेगा?

अचानक उसका नाम पुकारा गया। दरवाजा खोल कर अन्दर जाने तक उसका मुँह सूख गया.... शरीर पसीने से लथपथ..... सामने वही निरंजन था।
नीरा मूर्तिवत खडी उसे देखती रही...
"आयिये , बैठिये !!"किसी व्यावसायिक डाक्टर की सभ्यता से निरंजन ने उस से कहा।
"हे भगवान्!!इसने लगता है,मुझे पहचाना ही नही!,"निरंजन उसे पहचानेगा नही, इस संभावना का तो उसने अनुमान ही नही किया था..... वो जड़वत कुर्सी पे बैठ गयी.....
"कहिये क्या तकलीफ है आप को?"डाक्टर उसे पूछ रहा था।
"जी .....तकलीफ......नही....मुझे....मैं..."
नीरा की समझ मे नही आ रहा था कि उस से कैसे पूछे,कैसे बताये??
"हाँ,हाँ,कहिये!!आप कुछ परेशान-सी लग रही हैं। आपके साथ औरभी कोई है या आप अकेली आयी हैं?"निरंजन उस से पूछ रहा था।
जी नही...मेरा मतलब है,जी हाँ.......होटल मे हैं......मेरे पती और बच्चे.... मैं आपके अस्पताल मे अकेली आयी हूँ। मैं पूछना चाह रही थी कि आप "होटल हिमाचल"जानते हैं?"नीरा ने पूछने की कोशिश की।
"क्या आप वहाँ रुकी हैं? वहाँ पर कोई बीमार है?मतलब आप मुझे visit पे बुलाने आयीं हैं?"
"नही,नही, मैं वहाँ नही रुकी हूँ। विजिट पे भी नही बुलाना चाहती। मैं तो .....क्या उस होटल के पुराने मालिक को...कभी....आप...जानते थे??"
नीरा की खुद समझ नही आ रहा था कि वो क्या बोल रही है......
"क्या आप उनके बारेमे जानना चाहती हैं?अफ़सोस!वो अब इस दुनिया मे नही रहे। कुछ सात साल पहेले उनका निधन हो गया," डॉक्टर निरंजन ने बताया।
"जी ...वो तो मैंने भी सुना। लेकिन...लेकिन...अबसे बीस साल पहेले हम उस होटल मे रुके थे। मतलब मैं और मेरे माँ-बाबूजी। उस समय वहाँ पे एक........."
अब नीरा बेहद व्याकुल हो उठी। उसके कतई समझ मे नही आ रहा था वो उस डाक्टर से कैसे पूछे क्या कि क्या वो वही राजू है?
अंत मे उसने पर्स मेसे वो लिफाफा निकाला, जिसमे वो घाँस के नीले, पीले फूल रख कर साथ लाई थी। धीरे से उन फूलोंको निरंजन के सामने रखते हुए उसने पूछा,"क्या आप इन फूलोंको पहचानते हैं?क्या आपने ये फूल कभी किसीको .. ....",इसके आगे उस से बोला नही गया....

"ये क्या फूल हैं?शायद आप किसीकी तलाश मे यहाँ आयीं है!!कुछ गलत फेहेमी तो नही हुई आपको?"निरंजन ने बडे ही शांत भाव से कहा। नीरा को सारी दुनिया घूमती हुई-सी नज़र आने लगी।
"क्या सच मे आप इन फूलोंको नही जानते??कुछ याद नही आपको?"नीरा बेताब हो उठी।
"नही तो!!देखिए,मैंने कहा ना,आप किसी गलत जगह पोहोंच गयी है!"निरंजन ने हल्की-सी मुस्कान के साथ फिर एकबार कहा।
"ओह!"'नीरा के होटों से एक अस्फुट-सी आह निकली।कुर्सी को थामते हुए डगमगाते क़दमों से खडी हुई,और धीरे, धीरे दरवाज़े की ओर बढ़ी....
दरवाज़े का नोब घुमाते हुए एक बार फिर उसके दिल ने चाहा,जैसे वो घूम जाये,निरंजन से सीधा सवाल करे,"क्या तुम वही निरंजन नही हो? वही निरंजन,जिसने बीस साल पहले एक चौदह वर्षीया लडकी को ये घंस के फूल थमाये थे,उसे ऎसी निगाहोंसे देखा था,जिसे वो लडकी आज तलक भुला नही पायी?निरंजन !मैं वही लडकी हूँ!क्या अब भी मुझे जानोगे नही?"

लेकिन तबतक डाक्टर ने अगले patient के लिए बेल बजा दीं थी। वो बाहर निकली। कुछ ही देर पहले खुशनुमा हवामे लहराती एक चुनर तूफान की जकड मे मानो तार,तार हुई जा रही थी।
थोडी देर काउंटर को पकड़ के नीरा खडी हो गयी। अपने आप पे काबू पाने की भरसक कोशिश करती रही। फिर उसने अपने पर्समे से ,जिस होटल मे वे लोग रुके थे ,उसका फ़ोन number ,रूम नंबर तथा नाम receptionist को थमाते हुए बोली,"please,ज़रा इस नंबर पे मेरी बात करा देंगीं आप?"

फ़ोन मिलाके receptionist ने नीरा को थमाया।
"हलो... ,"धीरेसे नीराने कहा।
"हलो...!नीरा??कहाँ से बोल रही हो??क्या बात है?"उधर से विपुल की चिंतित आवाज़ आयी।
"सुनो,विपुल,मैं रास्ता भटक गयी थी। किसी गलत फ़हमी मे, किसी डाक्टर निरंजन कुमार की अस्पताल मे आ गयी। तुम यहाँ आकर....."
"अरे,तो अपने होटल का नाम बता के रास्ता पूछ लो!इतना मशहूर होटल है.....कोयीभी रास्ता बता देगा....घबराओ मत",विपुल ने उधर से कहा।
"नही विपुल,अब मुझ मे कार चलाने की हिम्मत नही। दरअसल तबीयत कुछ खराब लग रही है। तुम यहाँ आके मुझे ले जाओ please!"नीरा ने इल्तिजा भरे स्वर मे कहा।
"देखा ना मैं पहेले ही कह रहा था,गाडी चलाने की तुम्हें आदत नही है। ठीक है,पहोचता हूँ वहाँ। ज़रा ठीक से नाम बताना तो!"
नीरा ने नाम बताया और विपुल ने फ़ोन रख दिया।

बाहर तो धूप थी,लेकिन नीरा की आखोँ मे बंद, वो एक निरंतर पल, बूँद-सा फिसल कर वक़्त के घने कोहरे मे खो गया। वो ठगी-सी,लुटी-सी देखती रही।
उसने पर्स मे से वो लिफाफा निकाला,जिसमे वो नीले-पीले फूल सहेज के देहली से चली थी,बरसों सँजोए फूल!वेटिंग रूम के कोने मे एक कूडादानी थी। नीरा ने उसमे धीरे से लिफाफा छोड़ दिया।

विपुल तेज़ी से सीढियाँ लाँघता हुआ बढ रहा था..... नीरा ने झट धूप का चश्मा आँखों पर लगा लिया..... कहीँ विपुल उन सजल आँखों मे की धुन्द देख ना ले.....
"तुम भी कमाल करती हो नीरा!!अस्पताल कैसे पोहोंची?जाना कहाँ चाह रही थी??मैं कह भी रहा था होटल की कार लेलो,लेकिन पता नही उस समय तुम्हारे सर पे क्या सवार था??"विपुल बोलता चला जा रहा था।
"कुछ नही,विपुल,जो सवार था,उतर गया। बस ऐसेही अकेले कुछ वक़्त गुज़रना चाहती थी ",नीरा ने अपने आप को ज़ब्त करने की भरसक कोशिश करते हुए कहा। अब शिमला की वो हँसीं वादियाँ उसके लिए रेगिस्तान की वीरानियाँ बन चुकी थीं.....

रात मे काम ख़त्म करके निरंजन्कुमार अपने निवास पे डायरी लिख रहे थे.....
"नीरा!!पहली बार मुझे उसका नाम मालूम हुआ। जब मैंने उसे कमरेमे घुसते देखा,तो मैं स्तब्ध रह गया। इतने वर्षों बाद मेरे सामने वही आँखें ,जिन्हें मैंने किस किस मे नही तलाशा! उन आँखों को मैं भला भूला ही कब था??
अपने आपको कितनी मुश्किल से सम्भाला!अब भी वे आँखें वैसी ही थीं!उतनी ही निश्छल, निरागस !जब मैंने पहचान नेसे इनकार किया तो उफ़!कितनी आहत ......!उनमे की दीप्ती जैसे बुझ-सी गयी....पलभर लगा,बढ कर उसे थाम लूँ,और कह दूँ,"हाँ नीरा,मैं वही निरंजन हूँ,जिसे खोजती हुई तुम यहाँ आयी हो....
"लेकिन बड़ी निर्ममता से मैंने खुदको रोका..... वो शादीशुदा थी..... उसके कार्ड पे लिखा था,मिसेस नीरा सेठ। हमारे रास्ते कबके जुदा हो चुके थे.....
"प्रथमत: मुझे लगा,वो वाकयी patient के तौर पे आयी है। इतने वर्षों तक उसने मुझे याद रखा होगा,ये तो मैं सोंच भी नही सकता था। जब हम पहली बार मिले थे,तब मैं था ही क्या??केवल एक वेटर!!लेकिन जब एहसास हुआ कि वो मेरी ही खोज मे है तो हैरानी के साथ असीम ख़ुशी भी महसूस हुई। फिर भी मैंने निर्दयता से अपरिचय जताया। नियती की विडम्बना ही सही,लेकिन हम दोनो के वजूद का सम्मान अपरिचय बनाए रखने मेही था.......वरना पता नही उस मृगजल के धारा प्रवाह मे पतित हो हम किस ओर बह निकलते!!उबरना कितना मुश्किल होता!वक़्त उसे मरहम लगा ही देगा। वक़्त!!किसी भी डाक्टर से बड़ा डाक्टर!!
लेकिन सोंचता हूँ तो सिहर उठता हूँ!!मेरे प्रती इतनी गहरी आसक्ती रखते हुए,उसने अपने पती के साथ इतने साल कैसे बिताये होंगे!!अतीत को अनागत मे बदल ने के प्रयास मे क्या उसने अपना वर्तमान नही खोया होगा??मैंने तो शादी ही नही की। उन आखोँ की गिरफ्त मे गिरफ्तार, मैं रिहा कब हुआ??लेकिन नीरा??
"अच्छा हुआ इन फूलों का लिफाफा वो मेरे अस्पताल मे फेँक गयी....... भगवान् करे इन फूलों के साथ,साथ वो अपनी सँजोई यादेँ भी फ़ेंक दे..... वो यादें और ये नीरा के स्पर्शित फूल,अब मेरी धरोहर रहेँगे...... शायद मेरे ना पहचाननेसे वो मुझ से नफरत ही करने लगी हो। लेकिन उसके लिए तो इस मोहमयी मृगत्रिष्णा से ये नफरत ही अच्छी। "

डाक्टर निरंजन ने अपनी डायरी मे बडे जतन से वो फूल रखे और धीरे से उसे उठा अपने सीने से लगा लिया। अनायास ही उनकी ऑंखें भर आयी।
सम्पूर्ण।

7 टिप्पणियाँ:

परमजीत बाली said...

शंमा जी ,कहानी अच्छी है। लेकिन कहानी नही हकीकत लगती है।आप अच्छा लिखती हैं। आगे इन्तजार है।

उन्मुक्त said...

पढ़ता था क्या

परमजीत बाली said...

शमा जी,आप की अभी-अभी मैने आपकी टिप्पणी पढी और जैसा कि आप ने बताया कि आप की कहानी पूरी हो गई जान कर खूशी हुई ।
पूरी कहानी पढ चुका हूँ"नीले पीले फूल"आप ने नारी ह्रदय की कोमल भावनाओं को बखूबी व्यक्त किया है।अपनें कहानी के पात्रों को भी एक सम्मान प्रदान किया है ।बहुत अच्छा लगा। आप की लिखी कहानी मुझे बहुत पसंद आई। मै चाहता हूँ कि आप कि इस कहानी को अन्य पाठक भी पढे । यदि आप अनुमति दे तो मै इस कहानी का लिंक अपनी पोस्ट पर दे दूँ। ताकि एक कहानीकार (शमा)को पाठको के सामने लाने का श्रैय मै पा सकूँ। कृपया सूचित करे।

उन्मुक्त said...

क्या आप ने इसी पोस्ट में कहानी पूरी कर दी? इसी पर तो मैंने पहले टिप्पणी की थी।
आप भी भावनाओं में बहती हैं।

ऒशॊदीप said...

अच्छी कहानी है।पसंद आई।

abhivyakti said...

AAPKI KAHANI ME PRAVAH AUR JIGYASU PRAVRITI HAI JO KAHANI KA ATYAVSHYAK GUN HAI.KAHANI BAHUT NAYI SI NAHI HAI KINTU SUNDER PRASTUTI KE KARAN BAHUT ACHCHI AUR PATHNIYA HAI.

Irshad said...

लोगो को एक जीवन मिलता है शमा जीने के लिये लेकिन तुम तो गजब किये देती हो कितने रूपों मे जी रही हो, अपनी कहानीयों में, कविताओं में जीऐ चली जा रही हो। नीरा कोई और नही कही पर किसी कोने में उसके मन से तुम्हारा मन भी तो मिलता है। तुम्हारे भोगे हुए सुख और दुख आज तुम्हारी सबसे बड़ी दौलत बन गये है। तुम अपने अनुभवों को किरदारों के रूप में ढालकर साफ-साफ बचकर निकल जाती हो। कमाल कर जाती हो। इतना सबकुछ देखलेने पर भी, जानलेने पर तुम्हारे पास कितना कुछ नया बचा है। तुम वोही बांट रही हो। कल कोई और किरदार निकलेगा, कोई और बात चलेगी। लेकिन तुम्हारी परछाईयां और रंग उन सब में दिखाई देगे।
तुम कहती हो ( नीरा के मन का एक कोना बिलकुल सूना ,अछूता रह गया था। एक सुनसान,अंधेरी गूफा की तरह।) शमा जानती हो अगर नीरा के मन का यह कोना जिस दिन भर गया उस दिन उसकी मौत हो जायेगी। वो इसी पागलपन, इसी खोज में तो है। अपनी अन्धेरी और सुनसान गुफा से बाहर आने की कोशिश ही दुसरों को उजालों का रास्ता दिखा रही है। तुम बस चलती जाओ जहां तक तुम्हे जाना है। एक बात और बताओ ( इतना उत्कंठा भरा इंतज़ार तो नवपरिनीता नीरा ने सुहाग रात के दिन अपने पती का भी नही किया था।) इस तरह की पंक्तिया आपको सुझ कहां से जाती है।