Saturday, May 30, 2009

किसी राह्पर ५

एक सुबह उठके उसने बच्चे को छुआ तो उसे निष्प्राण पाया। उसने कोई शोर नही मचाया। साथ सोये सागर को भी नही जगाया। बच्चे को गोद मे उठाकर वो अपनी सास के पास गयी तथा उन्हें बताया। सागर कोभी उन्होनेही जगाया, जहाँ,जहाँ, फ़ोन करने थे किये। जो जो क्रिया कर्म ,विधियाँ होनी थी शुरू हो गयी। अडोसी,पड़ोसी,रिश्तेदार आ गए। जब उस नन्ही जान की अन्तिम यात्रा का समय आया,बस तब संगीता अपनी सास तथा माके गले लग के रोली। फिर अपने ससुरकी ओर मुड़कर बोली ,"बच्चे का क्रिया कर्म आप करेंगे।" समझने वाले बात को समझ गए।
उसने बैंक मे जाना शुरू कर दिया। सागर एक हिरोइन के साथ मुम्बई मे घूमता फिरता है ,ये बात उसके पढ्नेमे तथा सुननेमे आ गयी थी। सागर कुछ दिनोके लिए पूना आया था। एक दिन सुबह उठा तो उसे पास मे पड़ा एक कागज़ दिखा। आँखें मलते हुए उसने पढा,
"सागर,
हमारा साथ बस इतनाही था। मैंने बैंक द्वारा दिया गया फ़्लैट कुछ दिन पहलेही कब्ज़मे ले लिया था। मेरी ओरसे अब तुम पूर्ण तया स्वतंत्र हो। जब चाहो तलाक़ ले सकते हो।
संगीता"
सागर काफी दिनों के बाद पुणे आया था अपनी माँ के पास जाके उसने पूछा,"संगीता तुम्हे बताके गयी?"
"हाँ! बताके गयी",माँ ने शांत भाव से जवाब दिया।
"तुमने उससे कुछ कहा नही?मतलब रोका नही?"सागर ने पूछा।
"क्यों और किसके लिए? तुमने तो अपनी उससे अलग अपनी ज़िंदगी बानाही ली है। वैसेभी उसने घर छोड़ा है,मुझे या तुम्हारे बाबूजी को नही छोड़ा है,"माँ ने कहा।
सागर खामोश हो गया। मनही मन निश्चिंत भी हो गया। अब वो पूरी तरह अपनी मनमानी कर सकता था। वो हिरोइन भी उसके मुम्बई के फ़्लैट मे रहने लगी। दिन बीतते गए और सागर की कुछ फिल्मे एकदम फ्लॉप गयी। कुछ फिल्मों मे उसकी अदाकारीभी घटिया थी, येभी अलग,अलग अखबार तथा पर्चियों मे छपके आया। बचत नाम की आदत तो सागर के जीवन मे थी ही नही। सागर की ये प्रवृत्ती देख करही संगीताने अपने बैंक का खाता अपने ही नाम पे रखा था। सागर उसकी उस हिरोइन के साथ परदेस भ्रमण कर आया था। फिल्मी दोस्तो के साथ पंच तारांकित होटलों मे मेहेंगी पार्टीस ,मेहेंगे कपडे,मेहेंगे तोहफे ये सब कुछ वो करताही चला गया और फिर वो दिनभी आया जिस दिन उसे एहसास हुआ के संगीता नामक सपोर्ट सिस्टम अब उसकी ज़िन्दगी मे नही है। वो चिडचिडा हो गया, और उसके पसेसिव बर्ताव के कारण वो हिरोइन भी उसे छोड़ के चल दी....

अब क्या किया जाय उसकी समझ मे नही आ रहा था। गुमनामी के अँधेरे से बचने के लिए उसने कुछ बड़ी ही घटिया फिल्मोंमे ,घटिया किर्दारोंको निभाया। इससे उसकी औरभी बदनामी हुई। उसे एक दिन एक और बात याद आयी के पिछले कुछ महीनोसे उसने अपनी माँ को पैसेभी नही दिए है। पेंशन वाले पिताके पैसोंसे माँ घर किस तरह चला रही होगी?
क्रमशः
प्रस्तुतकर्ता shama पर 6:55 AM
1 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर. अच्छा लगा पढ़ना.
Posted by Shama at 12:02 AM
Labels: कहानी, किरदार., किसी राह्पर, फ़िल्म, हिन्दी
1 comments:

नीरज गोस्वामी said...

वाह शमा जी क्या कहानी लिखी है...बेहद खूबसूरत...एक एक लफ्ज़ सोच कर लिखा हुआ है...और आपने ये नाराज़गी वाली बात क्या कर डाली...आप से नाराज़गी भला क्यूँ कर होगी? आप तो इतनी अच्छी इंसान हैं हैं की कोई आप से चाहकर भी नाराज़ नहीं हो सकता...आप हमेशा खुश रहन ये ही खुदा से आपके लिए दुआ है...
नीरज
April 7, 2009 12:12 AM

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