Sunday, March 29, 2009

आकाशनीम ...१

"शाम के समारोह के बाद गाडी हवेली के गेट मे घुसी तो अचानक महसूस हुआ कि जाड़ों की शुरुआत हो चुकी है। फिर एकबार आकाशनीम की मदहोश बनाने वाली सुगंध फिज़ा मे समा गयी थी......
एक ऎसी सुगंध जो जीवन मे बुझे हुए चरागों की गँध को कुछ देर के लिए भुला देती। मेरा अतीत इस गँध से किस तरह जुडा है ,मेरे अलावा इस राज़ को और जानता ही कौन था! शाम के धुनदल के मे इसकी महक आतेही अपने आप पर काबू पाना मुझे कितना मुश्किल लगता था!!अपने हाथों पे हुआ किसी का स्पर्श याद आता,दो समंदर सी गहरी आँखें मानसपटल पे उभर आतीं और मैं डूबती चली जाती। एक ऐसा स्पर्श जो इतने वर्षों बाद भी मेरी कया रोमांचित कर देता।

ज़िंदगी की लम्बी खिजा मे फूटा एक नन्हा-सा अंकुर जो मैंने अंतर्मन मे संजोया था,जिसे सारे तूफानों से बचाने के लिए मेरे मन:प्राण हरदम सतर्क थे,ताउम्र इस नन्हे कोंपल की मुझे रक्षा करनी थी। वरना इस रूखी , सूखी ज़िंदगी मे अपने फ़र्जों की अदायगी के अलावा बचाही क्या था?
क्रमशः।

1 comment:

अजय कुमार झा said...

shama jee,
saadar abhivaadan, aaj kaafee dino ke baad padhaa aapko, aur hameshaa ke tarah aapne prabhaavit kiya.