Monday, June 1, 2009

याद आती रही...१ .

विनीता को दफ्तर से लौटते समय न जाने कितने बरसों बाद विनय मिला। वो बस स्टैंड पे खड़ी थी.....हलकी-सी बूँदा बाँदी हो रही थी....इतनेमे एक लाल रंग की, लम्बी-सी गाडी बस स्टैंड के कुछ आगे निकल अचानक से रुक गयी...विनीता ने शुरूमे तो ख़ास ध्यान नही दिया, लेकिन जब वो उसके सामने आ खडा हुआ तो वो चौंक-सी गयी...!

"अरे ! विनय! तुम ! मुम्बई में !"विनीता अचंभे से बोली।

" हाँ ! पिछले पाँच सालों से यहीँ हूँ...लंदनसे लौट कर पेहेले तो देहली गया...कुछ अरसा वहीँ गुज़ारा...फिर मुम्बई आया...हिन्दुस्तान आए दस साल हो गए..! चलो, यहाँ खड़े , खड़े बात करनेसे तो कहीँ चलते हैं...किसी रेस्तराँ में , या घर में कोई इंतज़ार कर रहा होगा?"विनय ने पूछा।

" नही...घरमे कोई नही है.....लेकिन साधे सात बज रहे हैं....मै एक अपार्टमेन्ट में रहती हूँ...देरसे पोहोंच ने की आदत नही रही है,"विनीता ने कुछ हिचकिचाते हुए कहा।

"आधे घंटे के लिए चलो....कॉफी लेते हैं, साथ, साथ..कल छुट्टी का दिन है..अगर कल हम एक लम्बी शाम बिताएँ, तो तुम्हें कोई ऐतराज़ तो नही होगा? बोहोत कुछ कहना है...बोहोत कुछ सुनना है.... इन दस सालों में मेरे साथ क्या हुआ, क्या गुज़री, तुमने क्या किया, तुम्हारी ज़िंदगी कैसे कटी....सभी कुछ तो जानना है...", विनय ने बात करते हुए, अपनी कार की और इशारा किया।

दोनों करीब के ही एक कॉफी हॉउस पोहोंच , कॉफी पीते बतियाते रहे...विनीता का ब्याह नही हुआ था। विनय ने वहीँ बैठे, बैठे ख़ूब माफ़ी माँगी.....इन सभी हालात का वही ज़िम्मेदार था, उसने क़ुबूल किया। न जाने पैसा कमाने की कैसी धुन सवार हो गयी थी उस पर तब...लेकिन उसे, उसकी विनीता समझेगी, ऐसा हमेशा लगता रहा...अब भी उसने अपनी निजी ज़िंदगी के बारेमे कुछ नही बताया...

"अपने परिवार के बारे में कुछ बताओ न!" विनीता उससे पूछना चाह रही थी...उसने ब्याह किया या नही...उसके मनमे बार, बार यही सवाल उठ रहा था...वो कल उससे मिलना चाह रहा है,तो क्या ये बात जायज़ है? पर चाह के भी वो कुछ पूछ नही पायी...

कुछ देर बाद विनय ने उसे, उसकी बिल्डिंग के बाहर छोड़ दिया। अरसा हो गया था, उसे अपने घर की सफाई किए हुए...या घर को सजाये हुए...खुदपे भी तो कहाँ उसने कुछ ध्यान दिया था?

घर में घुसते ही उसने उसकी सफाई शुरू कर दी। सुबह, सुबह, पीले गुलाबों का ऑर्डर देने की सोच ली....रातमे ही बैठक के सारे परदे धोके सुखा दिए....लपेट के रखा क़ालीन बिछा दिया...अपने कमरे की और भी मोर्चा घुमाया.....
गर वो यहाँ भी विनय आया तो....एक अजीब-सी संवेदना उसके मनमे दौड़ गयी...क्या ऐसा होगा....? वो मनही मन ज़रा-सी लजाई...ऐसे लजाना तो वो भूलही गयी थी...!क्या विनय उसे छुएगा.....?

कमरा सजा-सँवारा तो लगनाही चाहिए...आए या ना आए...! कौनसे फूल? सुगन्धित? और रंग? सफ़ेद और लाल दोनों रंगों के...गुलाबों के साथ रजनीगन्धा....नाज़ुक सफ़ेद परदों के साथ...लाल और सफ़ेद बुनत की चद्दर...! कितने दिन हो गए, वो चद्दर बिछाए...और वो परदे लगाये हुए! इनके बारेमे तो वो भूलही गयी थी!

जब देर रात वो लेटी, तो नींद कोसों दूर थी...क्या, क्या याद आ रहा था....विनय और उसका परिवार पड़ोसी हुआ करते थे.....

क्रमश:

1 comment:

निर्झर'नीर said...

aapka gadh lekhan bahot accha hota hai..
chalchitra ki tarah