Monday, July 13, 2009

याद आती रही...७

(पूर्व भाग: विनीता, अपने प्रती, अपने सह कर्मियों का रवैय्या देख हैरान हो गयी...क्यों उसके साथ कोई सीधे मुँह बात नही कर रहा था? जब अपने बॉस के चेंबर में पहुँची तो बात समझ में आयी..अब आगे पढ़ें...)

विनीता के बॉस ने ही उसे हक़ीक़त से रू-बी-रू कराया..विज्ञापन फिल्में,जो, विनीता की गैर हाज़िरी में शूट की गयीं, वो सब रिजेक्ट हो गयीं...! सब मशहूर products थे ! इस एजंसी की, विनीता ने काम शुरू किया तब से,एक भी फ़िल्म रिजेक्ट नही हुई थी...!

अचानक, विनीता के सह कर्मियों को ये एहसास हो गया,कि, विनीता उन सब से, अपने काम में कहीँ ज़्यादा बेहतर थी......और इस बात का उसने उन लोगों को कभी एहसास नही दिलाया था...ऐसा मौक़ा भी कभी नही आया था...! वैसे भी विनीता बेहद विनम्र लडकी थी...!

बस, यहीँ से ईर्षा आरंभ हो गयी...! बॉस ने ज़ाहिर कर दिया कि, ये लोग विनीता की काम की बराबरी कर नही सकते...! मेलजोल का वातावरण ख़त्म हो गया...ताने सुनाई देने लगे..सभी ने मिल के उसे परेशान करने का मानो बीडा उठा लिया...

आउटडोर शूटिंग होती तो परेशानी....इनडोर होती तो परेशानी...! अंत में विनीता ने अपने बॉस को बता दिया...उसके लिए ऐसे वातावरण में काम करना मुमकिन नही था....वह मजबूर थी...अबतक उसे काफी शोहरत मिल चुकी थी...उस बलबूते पे उसे अन्य किसी भी नामांकित एजंसी में काम मिल सकता था...वो, इन रोज़ाना मिल ने वाले तानों और काम के प्रती दिखायी जाने वाली गैर ज़िम्मेदारी से तंग आ चुकी थी...उस एजंसी से निकल जाना चाह रही थी...

बॉस ने एक अभूत पूर्व,अजीबो गरीब, निर्णय ले लिया...! उसने विनीता को काम पे क़ायम रखते हुए, अन्य सभी को, जो उसे परेशान कर रहे थे, तीन माह की तनख्वाह दे, काम परसे हटा दिया...! विनीता जैसी आर्टिस्ट...ऐसी कलाकार, जो, इतनी मेहनती थी, उन्हें ढूँढे नही मिलती....वो बखूबी जानते थे, कि,विनीता लाखों में एक थी...जो निकले गए,उनके मुँह पे, मानो एक तमाचा लग गया...क्या करने गए,और क्या हो गया...!

खैर ! विनीता अपने काम में अपने आप को अधिकाधिक उलझाती रही । उसके पास अब इतनी आमदनी थी,कि, वह आसानी से एक कार रख सकती...लेकिन उस कार की देखभाल कौन करता ? बेकार की सरदर्दी क्यों मोल लेना? कभी बस कभी taxee...उसके लिए यही सब से बेहतर पर्याय था...ठीक उसके दफ्तर के सामने बस स्टॉप था...!

उस दिन यही तो हुआ...जब विनय उसके आगे आ खड़ा हुआ...रिम झिम बौछारें हो रहीँ थीं..और विनीता बस का इंतज़ार कर रही थी...कितने सालों बाद विनय उसे दिखा...!

काफी हाऊस में उसने विनय को अपना टेलीफोन नंबर तो दे दिया...उसका नही लिया...उसे कितना कुछ पूछना था..कितना कुछ जानना था...विनीता को लगा था,कि, वो सब कुछ दफना चुकी है...लेकिन सब कुछ ताज़ा था...एक उफान के साथ उमड़ घुमड़ के बाहर आने को बेताब ! इन्हीं ख़यालों में खोयी, उसकी आँख लग गयी...तब पौ फटने वाली थी...!

क्रमश:

1 comment:

शरद कोकास said...

शमा जी. तो आप कथाकार भी हैं. और क्या क्या हैं आप? चलिए एक बेहतर इंसान तो है ही ,यही होना मुश्किल है आजकल. कहानी रोचक है लेकिन इस पर अभी कोई कमेंट नहीं कर रहा हूँ दर असल कहानी मै एक बैठक मे पढने का आदि हूँ वरना anxiety मुझे पागल कर देती है या आगे की कथा छूट जाती है सो जिस दिन कहानी पूरी हो जाये बता दीजियेगा . अच्छा किसी पत्रिका मे भी भेजी है कहानी? दर असल कथाकार का ठप्पा वहीं से लगता है