(पूर्व भाग : एक बार फिर घंटी बजी...)
जैसेही इस बार घंटी बजी, विनीता को यक़ीन हो गया कि,अबके विनय ही होगा...उसके घर वरना आताही कौन था? गालों पे लालिमा छा गयी..शर्म के मारे,चेहरा तमतमा गया..कितने बरसों बाद...! क्या वो बाहों में भर लेगा...या..?उसने दरवाज़ा खोला...तो सामने खड़ी थी पड़ोस की नौकरानी..रूक्मिणी...एक कटोरी लिए....
"हमारी में साब ने पूछा है,चीनी है क्या? एकदमसे मेहमान आ गए हैं...और बाज़ार से लानेमे समय लगेगा...देर हो जायेगी..करके मै..."
विनीता ने लपक कर उसके हाथ से कटोरी लगभग छीन ली...और चीनी भर के पकडा दी..रूक्मिणी तब तक उसे ऊपरसे नीचेतक, बड़े ही गौरसे निहारती रही...कितनी सुंदर लग रही थी...ये लडकी...इतनी सुंदर दिखी हो,पहले,उसे याद नही आ रहा था...!
चीनी लेके रूक्मिणी रुक्सत हो गयी..घड़ी का काँटा सरकता रहा..साधे चार बजे...फिर पाँच बजे...फिर सात...और न जाने कब रात के ग्यारह.....
बाहर ज़ोरदार बूँदा-बांदी हो रही थी..काश ! काश ! निशा दीदी पास होतीं...! उनके गले लग वो खूब रो लेती...काश...! विनय उसे कल मिला ही नही होता..काश ! कल उसने विनय को अपने घर आने के लिए मना कर दिया होता॥! बेरहम वक़्त ! एक भी गलती माफ़ नही करता...! कभी नही करता...
अब उसे अगले दिन दफ्तर जाना मंज़ूर ना था..अब फिरसे कोई आस, न सहारा न साथ...सिर्फ़ अकेलापन...गहरी तनहाई...कैसे कटे जीवन? किसी के इंतज़ार में निगाहें दूर दूरतक जाके लौट आयेंगी...क्या करे अब वह? विनय को उसकी ज़िंदगी से खिलवाड़ करने की कौनसी सज़ा दिलवाए?
देखते ही देखते एक भयंकर कल्पना ने जन्म लिया...उसने एक ई मेल कम्पोज़ की...
"मै, विनीता शर्मा.....उम्र, ३७, कहना चाहती हूँ...कि......
क्रमश:
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2 comments:
कहानी का अंत बडा ही दुखद है । इतनी आत्मनिर्भर लडकी और इतनी कमजोर ..........
bahut din hue aapse jyaadaa baat nahi hui. aaj pataa chalaa ki aapka janm din aayaa hai. badhaai
prabhu kare aap laakhon baras jiye aur swasth rahen tathaa yoon likhti rahen
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