( पूर्व भाग: विनीता ने e-mail लिखनी शुरू कर दी..)
'मै, विनीता वर्मा, उम्र ३७, कहना चाहती हूँ: विनय श्रीवास्तव तथा उनका परिवार, बरसों हमारे परिवार के पड़ोसी रहे।
ये तब की बात है,जब मै अपने परिवार के साथ बांद्रा , पाली हिल, पे रहते थी । विनय ने मुझ से शादी का वादा किया था। हम दोनों एकसाथ घूमते फिरते रहे।
बाद में वह आगे की पढाई के लिए लन्दन चले गए। कुछ मुद्दत तक उनके पत्र आते रहे, फिर बंद हो गए। बाद में मेरी अन्य जगहों पे शादी की चर्चा चली। लेकिन जहाँ भी बात चलती, पता नही, मेरे तथा विनय के संबंधों के बारे में बात पता चल जाती।
अंत में, मैंने तंग आके शादी के लिए मना कर दिया। मै अपनी नौकरी में रमने लगी। उस दरमियान पहले तो मेरी माँ की मृत्यु हो गयी और बाद में पिताजी की। पिताजी के मौत के पूर्व हमने अपना घर बदल लिया। हम बांद्रा छोड़, इस मौजूदा फ्लैट में रहने चले आए।
कल शाम अचानक, विनय मुझे एक बस स्टाप पे मिल गया। मुझे काफी हाउस ले गया, तथा आज मेरे घर आने का वादा किया। हम कुछ देर बाहर घूमने जानेवाले थे।
औरत, शायद, कुछ ज़्यादाही भावुक होती है। मैंने उसकी बातों पे विश्वास कर लिया। वो शाम चार बजे आनेवाले था। मैंने तैयार होके उनका इंतज़ार किया चार बजेसे लेके रात ११ बजे तक.....
मै सिर्फ़ कारण जानना चाहती थी,कि, विनय ने मेरे साथ ये व्यवहार क्यों किया..क्यों लन्दन जाने के बाद, मुझे अपने जीवन से हटा दिया...फिरभी मैंने सोचा, छोड़ो, बीती बातों को क्यों दोहराना...
लेकिन,मेरी क़िस्मत में ये एक मुलाक़ात भी नही लिखी थी...इस धोके बाज़ इंसान पे मुझे इतना विश्वास भी नही करना चाहिए था...इसने मेरी हत्या तो नही की,पर ,मेरी जीने की सारे तमन्ना ख़त्म कर दी। मेरे प्यार भरे दिलको समझाही नही...
विनय के ख़त मेरे ड्रेसिंग टेबल की सबसे ऊपर वाली दराज़ में पड़ें हैं...जिनमे शादी का बार बार ज़िक्र है। हमारी साथ,साथ ली हुई तस्वीरें भी हैं...जब तक ये ख़बर छपेगी या लोगों/बहन बहनोई तक पहुँचेगी, मै दुनियामे नही रहूँगी।
इसे कोई मेरी कायरता समझना चाहे तो समझे...लेकिन उम्र की उन्नीस साल से लेके सैंतीस साल तक जो वक्त मैंने गुज़ारा है, गर वह कोई गुजारता ,तो, समझता ,कि, बहादुरी और कायरता में क्या फ़र्क़ है...खैर! जिसको जो समझना है, समझे...
निशा दीदी, जीजाजी, तुम अफ़सोस मत करना। मुझे जीजाजी पे बेहद नाज़ है। न कोई कसमे खाईं, ना वादे किए, कितनी सादगी से साथ निभाया.....
बच्चों को मासी की तरफ़ से ढेर सारा प्यार।
विनीता वर्मा।
ये ख़त कम्पोज़ करके उसने, अलग अखबारों ,पुलिस स्टशन पे ,तथा निशा दीदी को फॉरवर्ड कर दिया। फिर रसोई से एक तेज़ छुरी ले आयी और फर्श पे लेटे,लेटे कभी कलाई की, तो कभी कहीँ की, नसें चीरने लगी...खून बहने लगा...सिंगार मिटने लगा...ना जाने कब उसके प्राण उड़ गए...
समाप्त।
Saturday, August 15, 2009
Monday, August 10, 2009
याद आती रही ९
(पूर्व भाग : एक बार फिर घंटी बजी...)
जैसेही इस बार घंटी बजी, विनीता को यक़ीन हो गया कि,अबके विनय ही होगा...उसके घर वरना आताही कौन था? गालों पे लालिमा छा गयी..शर्म के मारे,चेहरा तमतमा गया..कितने बरसों बाद...! क्या वो बाहों में भर लेगा...या..?उसने दरवाज़ा खोला...तो सामने खड़ी थी पड़ोस की नौकरानी..रूक्मिणी...एक कटोरी लिए....
"हमारी में साब ने पूछा है,चीनी है क्या? एकदमसे मेहमान आ गए हैं...और बाज़ार से लानेमे समय लगेगा...देर हो जायेगी..करके मै..."
विनीता ने लपक कर उसके हाथ से कटोरी लगभग छीन ली...और चीनी भर के पकडा दी..रूक्मिणी तब तक उसे ऊपरसे नीचेतक, बड़े ही गौरसे निहारती रही...कितनी सुंदर लग रही थी...ये लडकी...इतनी सुंदर दिखी हो,पहले,उसे याद नही आ रहा था...!
चीनी लेके रूक्मिणी रुक्सत हो गयी..घड़ी का काँटा सरकता रहा..साधे चार बजे...फिर पाँच बजे...फिर सात...और न जाने कब रात के ग्यारह.....
बाहर ज़ोरदार बूँदा-बांदी हो रही थी..काश ! काश ! निशा दीदी पास होतीं...! उनके गले लग वो खूब रो लेती...काश...! विनय उसे कल मिला ही नही होता..काश ! कल उसने विनय को अपने घर आने के लिए मना कर दिया होता॥! बेरहम वक़्त ! एक भी गलती माफ़ नही करता...! कभी नही करता...
अब उसे अगले दिन दफ्तर जाना मंज़ूर ना था..अब फिरसे कोई आस, न सहारा न साथ...सिर्फ़ अकेलापन...गहरी तनहाई...कैसे कटे जीवन? किसी के इंतज़ार में निगाहें दूर दूरतक जाके लौट आयेंगी...क्या करे अब वह? विनय को उसकी ज़िंदगी से खिलवाड़ करने की कौनसी सज़ा दिलवाए?
देखते ही देखते एक भयंकर कल्पना ने जन्म लिया...उसने एक ई मेल कम्पोज़ की...
"मै, विनीता शर्मा.....उम्र, ३७, कहना चाहती हूँ...कि......
क्रमश:
जैसेही इस बार घंटी बजी, विनीता को यक़ीन हो गया कि,अबके विनय ही होगा...उसके घर वरना आताही कौन था? गालों पे लालिमा छा गयी..शर्म के मारे,चेहरा तमतमा गया..कितने बरसों बाद...! क्या वो बाहों में भर लेगा...या..?उसने दरवाज़ा खोला...तो सामने खड़ी थी पड़ोस की नौकरानी..रूक्मिणी...एक कटोरी लिए....
"हमारी में साब ने पूछा है,चीनी है क्या? एकदमसे मेहमान आ गए हैं...और बाज़ार से लानेमे समय लगेगा...देर हो जायेगी..करके मै..."
विनीता ने लपक कर उसके हाथ से कटोरी लगभग छीन ली...और चीनी भर के पकडा दी..रूक्मिणी तब तक उसे ऊपरसे नीचेतक, बड़े ही गौरसे निहारती रही...कितनी सुंदर लग रही थी...ये लडकी...इतनी सुंदर दिखी हो,पहले,उसे याद नही आ रहा था...!
चीनी लेके रूक्मिणी रुक्सत हो गयी..घड़ी का काँटा सरकता रहा..साधे चार बजे...फिर पाँच बजे...फिर सात...और न जाने कब रात के ग्यारह.....
बाहर ज़ोरदार बूँदा-बांदी हो रही थी..काश ! काश ! निशा दीदी पास होतीं...! उनके गले लग वो खूब रो लेती...काश...! विनय उसे कल मिला ही नही होता..काश ! कल उसने विनय को अपने घर आने के लिए मना कर दिया होता॥! बेरहम वक़्त ! एक भी गलती माफ़ नही करता...! कभी नही करता...
अब उसे अगले दिन दफ्तर जाना मंज़ूर ना था..अब फिरसे कोई आस, न सहारा न साथ...सिर्फ़ अकेलापन...गहरी तनहाई...कैसे कटे जीवन? किसी के इंतज़ार में निगाहें दूर दूरतक जाके लौट आयेंगी...क्या करे अब वह? विनय को उसकी ज़िंदगी से खिलवाड़ करने की कौनसी सज़ा दिलवाए?
देखते ही देखते एक भयंकर कल्पना ने जन्म लिया...उसने एक ई मेल कम्पोज़ की...
"मै, विनीता शर्मा.....उम्र, ३७, कहना चाहती हूँ...कि......
क्रमश:
Sunday, August 2, 2009
याद आती रही...! ८
( पूर्व भाग: अपने अतीत के खयालों में खोयी विनीता,न जाने कब सो गई...)
जब झिलमिल परदों से छन के धूप उसकी आँखों पे पडी, तो उसके साथ,साथ उसकी ज़िंदगी, फिर एक बार जाग उठी...
अखबार वाले ने अखबार अन्दर खिसका दिया था..दरवाजा खोल उसने दूध की थैली अन्दर कर ली ..पीले गुलाब...! उसे फूलों के लिए फोन करना था...! झट पट फोन घुमाके ,पूरे चौबीस पीले गुलाबों का आर्डर उसने दे दिया...घरका पता समझाया...साथ ही कहा," एकेक फूल चुनके चाहिए...अधखिला...!"
हाँ...और आज वो ब्यूटी पार्लर ज़रूर जायेगी...वहाँ जाके शैंपू करायेगी..बाल निखर जायेंगे...pedicure, manicure,
facial ...सब कुछ करायेगी...उसे खूब निखर जाना है...सुंदर दिखना है...शायद विनय थोड़ी-सी देर क्यों न मिलके चला जाय...फिरभी उसके मनमे अपनी,एक ऐसी छवी बना दूँगी, जिसे वो ताउम्र भूल नही पायेगा...उसने सोचा...आगे पीछे कुछ भी हो जाय, उस शाम वो उसपे ऐसे बरसेगी, मानो किसी नगमे पे बरसता संगीत...!
वह पार्लर गयी...गुदानों में फूल सजे..अब घड़ी के काँटे की तरफ़ उसकी नज़र बार,बार घूम रही थी..विनयने उसे चार बजे का समय दिया था...!
एकबार फिर आदम क़द आईने के सामने खड़ी हुई...और खुदको न जाने कितनी बार निहारा...! सच...उसकी उम्र से मानो किसी ने दस साल चुरा लिए हों,ऐसा प्रतीत हो रहा था...!
जिस पुरूष ने उसे इतना तड़पाया था, इतना रुलाया था, इतनी वेदना पहुँचाई थी, उसी के लिए वह इतनी बेताब हुए चली जा रही थी...?विनीता, तू भी क्या मोम की बनी हुई है? अरे कहाँ तो तूने सोचा था, कि, गर कभी कभी वो सामने दिख गया तो एक चाँटा रसीद देगी...और अब ?
अरे...! बरसों तेरे सपनों में तकरीबन वह रोज़ आता रहा है...किन,किन रूपों में...कभी तेरा दूल्हा बन, तो कभी तेरे साथ समंदर के किनारे घुमते हुए, तो कभी तेरा हाथ अपने हाथमे पकड़, तेरी आँखों में गहराई से झाँकते हुए...इन सपनों से जब भी जागती तो कितनी उदास हो जाती थी तू...!
अब...! अब चंद लम्हों की खुशियाँ होंगी शायद ये....ज़्यादा दामन मत फैलाना....ज़्यादा उम्मीद मत रखना..फिर से पछताएगी...इन पल दो पलों से एक उम्र चुरा लेना...तेरे नसीब में यही एक शाम लिखी हो शायद...!
इतने में दरवाज़े की घंटी बजी...एक आख़री नज़र आईने पे डाल, उसने लपक के दरवाजा खोला...!
दरवाज़े पे विनय नही, दफ्तर की किरण खड़ी थी..! विनीता को देख कर उसने एक हल्कि-सी सीटी बजायी और बोली," हाय, हाय ! वारी जाऊँ...! गर बॉस देख ले तो, कैमरा के पीछे नही,आगे खड़ा कर दे...! क्या लग रही है...! कहाँ की तैय्यारी है...? मै तो तुझे पृथ्वी थिएटर ले जाने आयी थी...बड़ा अच्छा नाटक है...पर यहाँ तो कुछ और ही अंदाज़ नज़र आ रहा है ! ! बोल ना...क्या बात है...? वादा करती हूँ...किसी को नही बताउंगी ...!"
बातूनी किरण, बोले चली जा रही थी..बड़े साफ़ दिल की थी वह...हमेशा विनीता का भला चाहती रही थी...लेकिन इस वक़्त विनीता को उस पे बड़ी खिज आ रही थी...! बेवक़्त जो टपक पडी थी...!
"उफ़ ! किरण....कितनी बकबक करती है तू...! बता दूँगी, गर ऐसा कुछ हुआ तो, जैसा कि, तू सोच रही है...बड़े दिनों से वही घिसी-पिटी साडियाँ...या फिर जींस पहन के तंग आ चुकी थी..सो ये पहन ली.....एक कॉलेज के समय की सहेली आ रही है...उसके साथ कहीँ जा रही हूँ...," विनीता किरण को दफा करने के मूड में बोल पडी...उसने किरण को ना तो बैठने के लिए कहा ना चाय पूछी..! बेचारी किरण दरवाज़े परसे ही लौट गयी...
अब तक चार बज के दस मिनट हो चुके थे...विनीता को अब ख़याल आया,कि, उसने अपना नंबर तो विनय को दे दिया था...उसका नही लिया था...अब वह उसकी देरी की वजह भी जान नही सकेगी...! एकेक मिनट काटना मानो एकेक युग के बराबर लग रहा था...पाँच मिनट और कटे...वह कमरे के चक्कर कटे चली जा रही थी...और फिर एकबार घंटी बजी...
क्रमश:
जब झिलमिल परदों से छन के धूप उसकी आँखों पे पडी, तो उसके साथ,साथ उसकी ज़िंदगी, फिर एक बार जाग उठी...
अखबार वाले ने अखबार अन्दर खिसका दिया था..दरवाजा खोल उसने दूध की थैली अन्दर कर ली ..पीले गुलाब...! उसे फूलों के लिए फोन करना था...! झट पट फोन घुमाके ,पूरे चौबीस पीले गुलाबों का आर्डर उसने दे दिया...घरका पता समझाया...साथ ही कहा," एकेक फूल चुनके चाहिए...अधखिला...!"
हाँ...और आज वो ब्यूटी पार्लर ज़रूर जायेगी...वहाँ जाके शैंपू करायेगी..बाल निखर जायेंगे...pedicure, manicure,
facial ...सब कुछ करायेगी...उसे खूब निखर जाना है...सुंदर दिखना है...शायद विनय थोड़ी-सी देर क्यों न मिलके चला जाय...फिरभी उसके मनमे अपनी,एक ऐसी छवी बना दूँगी, जिसे वो ताउम्र भूल नही पायेगा...उसने सोचा...आगे पीछे कुछ भी हो जाय, उस शाम वो उसपे ऐसे बरसेगी, मानो किसी नगमे पे बरसता संगीत...!
वह पार्लर गयी...गुदानों में फूल सजे..अब घड़ी के काँटे की तरफ़ उसकी नज़र बार,बार घूम रही थी..विनयने उसे चार बजे का समय दिया था...!
एकबार फिर आदम क़द आईने के सामने खड़ी हुई...और खुदको न जाने कितनी बार निहारा...! सच...उसकी उम्र से मानो किसी ने दस साल चुरा लिए हों,ऐसा प्रतीत हो रहा था...!
जिस पुरूष ने उसे इतना तड़पाया था, इतना रुलाया था, इतनी वेदना पहुँचाई थी, उसी के लिए वह इतनी बेताब हुए चली जा रही थी...?विनीता, तू भी क्या मोम की बनी हुई है? अरे कहाँ तो तूने सोचा था, कि, गर कभी कभी वो सामने दिख गया तो एक चाँटा रसीद देगी...और अब ?
अरे...! बरसों तेरे सपनों में तकरीबन वह रोज़ आता रहा है...किन,किन रूपों में...कभी तेरा दूल्हा बन, तो कभी तेरे साथ समंदर के किनारे घुमते हुए, तो कभी तेरा हाथ अपने हाथमे पकड़, तेरी आँखों में गहराई से झाँकते हुए...इन सपनों से जब भी जागती तो कितनी उदास हो जाती थी तू...!
अब...! अब चंद लम्हों की खुशियाँ होंगी शायद ये....ज़्यादा दामन मत फैलाना....ज़्यादा उम्मीद मत रखना..फिर से पछताएगी...इन पल दो पलों से एक उम्र चुरा लेना...तेरे नसीब में यही एक शाम लिखी हो शायद...!
इतने में दरवाज़े की घंटी बजी...एक आख़री नज़र आईने पे डाल, उसने लपक के दरवाजा खोला...!
दरवाज़े पे विनय नही, दफ्तर की किरण खड़ी थी..! विनीता को देख कर उसने एक हल्कि-सी सीटी बजायी और बोली," हाय, हाय ! वारी जाऊँ...! गर बॉस देख ले तो, कैमरा के पीछे नही,आगे खड़ा कर दे...! क्या लग रही है...! कहाँ की तैय्यारी है...? मै तो तुझे पृथ्वी थिएटर ले जाने आयी थी...बड़ा अच्छा नाटक है...पर यहाँ तो कुछ और ही अंदाज़ नज़र आ रहा है ! ! बोल ना...क्या बात है...? वादा करती हूँ...किसी को नही बताउंगी ...!"
बातूनी किरण, बोले चली जा रही थी..बड़े साफ़ दिल की थी वह...हमेशा विनीता का भला चाहती रही थी...लेकिन इस वक़्त विनीता को उस पे बड़ी खिज आ रही थी...! बेवक़्त जो टपक पडी थी...!
"उफ़ ! किरण....कितनी बकबक करती है तू...! बता दूँगी, गर ऐसा कुछ हुआ तो, जैसा कि, तू सोच रही है...बड़े दिनों से वही घिसी-पिटी साडियाँ...या फिर जींस पहन के तंग आ चुकी थी..सो ये पहन ली.....एक कॉलेज के समय की सहेली आ रही है...उसके साथ कहीँ जा रही हूँ...," विनीता किरण को दफा करने के मूड में बोल पडी...उसने किरण को ना तो बैठने के लिए कहा ना चाय पूछी..! बेचारी किरण दरवाज़े परसे ही लौट गयी...
अब तक चार बज के दस मिनट हो चुके थे...विनीता को अब ख़याल आया,कि, उसने अपना नंबर तो विनय को दे दिया था...उसका नही लिया था...अब वह उसकी देरी की वजह भी जान नही सकेगी...! एकेक मिनट काटना मानो एकेक युग के बराबर लग रहा था...पाँच मिनट और कटे...वह कमरे के चक्कर कटे चली जा रही थी...और फिर एकबार घंटी बजी...
क्रमश:
Monday, July 13, 2009
याद आती रही...७
(पूर्व भाग: विनीता, अपने प्रती, अपने सह कर्मियों का रवैय्या देख हैरान हो गयी...क्यों उसके साथ कोई सीधे मुँह बात नही कर रहा था? जब अपने बॉस के चेंबर में पहुँची तो बात समझ में आयी..अब आगे पढ़ें...)
विनीता के बॉस ने ही उसे हक़ीक़त से रू-बी-रू कराया..विज्ञापन फिल्में,जो, विनीता की गैर हाज़िरी में शूट की गयीं, वो सब रिजेक्ट हो गयीं...! सब मशहूर products थे ! इस एजंसी की, विनीता ने काम शुरू किया तब से,एक भी फ़िल्म रिजेक्ट नही हुई थी...!
अचानक, विनीता के सह कर्मियों को ये एहसास हो गया,कि, विनीता उन सब से, अपने काम में कहीँ ज़्यादा बेहतर थी......और इस बात का उसने उन लोगों को कभी एहसास नही दिलाया था...ऐसा मौक़ा भी कभी नही आया था...! वैसे भी विनीता बेहद विनम्र लडकी थी...!
बस, यहीँ से ईर्षा आरंभ हो गयी...! बॉस ने ज़ाहिर कर दिया कि, ये लोग विनीता की काम की बराबरी कर नही सकते...! मेलजोल का वातावरण ख़त्म हो गया...ताने सुनाई देने लगे..सभी ने मिल के उसे परेशान करने का मानो बीडा उठा लिया...
आउटडोर शूटिंग होती तो परेशानी....इनडोर होती तो परेशानी...! अंत में विनीता ने अपने बॉस को बता दिया...उसके लिए ऐसे वातावरण में काम करना मुमकिन नही था....वह मजबूर थी...अबतक उसे काफी शोहरत मिल चुकी थी...उस बलबूते पे उसे अन्य किसी भी नामांकित एजंसी में काम मिल सकता था...वो, इन रोज़ाना मिल ने वाले तानों और काम के प्रती दिखायी जाने वाली गैर ज़िम्मेदारी से तंग आ चुकी थी...उस एजंसी से निकल जाना चाह रही थी...
बॉस ने एक अभूत पूर्व,अजीबो गरीब, निर्णय ले लिया...! उसने विनीता को काम पे क़ायम रखते हुए, अन्य सभी को, जो उसे परेशान कर रहे थे, तीन माह की तनख्वाह दे, काम परसे हटा दिया...! विनीता जैसी आर्टिस्ट...ऐसी कलाकार, जो, इतनी मेहनती थी, उन्हें ढूँढे नही मिलती....वो बखूबी जानते थे, कि,विनीता लाखों में एक थी...जो निकले गए,उनके मुँह पे, मानो एक तमाचा लग गया...क्या करने गए,और क्या हो गया...!
खैर ! विनीता अपने काम में अपने आप को अधिकाधिक उलझाती रही । उसके पास अब इतनी आमदनी थी,कि, वह आसानी से एक कार रख सकती...लेकिन उस कार की देखभाल कौन करता ? बेकार की सरदर्दी क्यों मोल लेना? कभी बस कभी taxee...उसके लिए यही सब से बेहतर पर्याय था...ठीक उसके दफ्तर के सामने बस स्टॉप था...!
उस दिन यही तो हुआ...जब विनय उसके आगे आ खड़ा हुआ...रिम झिम बौछारें हो रहीँ थीं..और विनीता बस का इंतज़ार कर रही थी...कितने सालों बाद विनय उसे दिखा...!
काफी हाऊस में उसने विनय को अपना टेलीफोन नंबर तो दे दिया...उसका नही लिया...उसे कितना कुछ पूछना था..कितना कुछ जानना था...विनीता को लगा था,कि, वो सब कुछ दफना चुकी है...लेकिन सब कुछ ताज़ा था...एक उफान के साथ उमड़ घुमड़ के बाहर आने को बेताब ! इन्हीं ख़यालों में खोयी, उसकी आँख लग गयी...तब पौ फटने वाली थी...!
क्रमश:
विनीता के बॉस ने ही उसे हक़ीक़त से रू-बी-रू कराया..विज्ञापन फिल्में,जो, विनीता की गैर हाज़िरी में शूट की गयीं, वो सब रिजेक्ट हो गयीं...! सब मशहूर products थे ! इस एजंसी की, विनीता ने काम शुरू किया तब से,एक भी फ़िल्म रिजेक्ट नही हुई थी...!
अचानक, विनीता के सह कर्मियों को ये एहसास हो गया,कि, विनीता उन सब से, अपने काम में कहीँ ज़्यादा बेहतर थी......और इस बात का उसने उन लोगों को कभी एहसास नही दिलाया था...ऐसा मौक़ा भी कभी नही आया था...! वैसे भी विनीता बेहद विनम्र लडकी थी...!
बस, यहीँ से ईर्षा आरंभ हो गयी...! बॉस ने ज़ाहिर कर दिया कि, ये लोग विनीता की काम की बराबरी कर नही सकते...! मेलजोल का वातावरण ख़त्म हो गया...ताने सुनाई देने लगे..सभी ने मिल के उसे परेशान करने का मानो बीडा उठा लिया...
आउटडोर शूटिंग होती तो परेशानी....इनडोर होती तो परेशानी...! अंत में विनीता ने अपने बॉस को बता दिया...उसके लिए ऐसे वातावरण में काम करना मुमकिन नही था....वह मजबूर थी...अबतक उसे काफी शोहरत मिल चुकी थी...उस बलबूते पे उसे अन्य किसी भी नामांकित एजंसी में काम मिल सकता था...वो, इन रोज़ाना मिल ने वाले तानों और काम के प्रती दिखायी जाने वाली गैर ज़िम्मेदारी से तंग आ चुकी थी...उस एजंसी से निकल जाना चाह रही थी...
बॉस ने एक अभूत पूर्व,अजीबो गरीब, निर्णय ले लिया...! उसने विनीता को काम पे क़ायम रखते हुए, अन्य सभी को, जो उसे परेशान कर रहे थे, तीन माह की तनख्वाह दे, काम परसे हटा दिया...! विनीता जैसी आर्टिस्ट...ऐसी कलाकार, जो, इतनी मेहनती थी, उन्हें ढूँढे नही मिलती....वो बखूबी जानते थे, कि,विनीता लाखों में एक थी...जो निकले गए,उनके मुँह पे, मानो एक तमाचा लग गया...क्या करने गए,और क्या हो गया...!
खैर ! विनीता अपने काम में अपने आप को अधिकाधिक उलझाती रही । उसके पास अब इतनी आमदनी थी,कि, वह आसानी से एक कार रख सकती...लेकिन उस कार की देखभाल कौन करता ? बेकार की सरदर्दी क्यों मोल लेना? कभी बस कभी taxee...उसके लिए यही सब से बेहतर पर्याय था...ठीक उसके दफ्तर के सामने बस स्टॉप था...!
उस दिन यही तो हुआ...जब विनय उसके आगे आ खड़ा हुआ...रिम झिम बौछारें हो रहीँ थीं..और विनीता बस का इंतज़ार कर रही थी...कितने सालों बाद विनय उसे दिखा...!
काफी हाऊस में उसने विनय को अपना टेलीफोन नंबर तो दे दिया...उसका नही लिया...उसे कितना कुछ पूछना था..कितना कुछ जानना था...विनीता को लगा था,कि, वो सब कुछ दफना चुकी है...लेकिन सब कुछ ताज़ा था...एक उफान के साथ उमड़ घुमड़ के बाहर आने को बेताब ! इन्हीं ख़यालों में खोयी, उसकी आँख लग गयी...तब पौ फटने वाली थी...!
क्रमश:
Monday, July 6, 2009
याद आती रही....६
(पूर्व भाग: विनीताने शादी करने से मना कर दिया...बता दिया,कि, वो अपने काम में खुश है...अब अन्य किसी और चीज़ की चाहत नही...)
...और एक दिन अचानक माँ चल बसीं...!शायद उनसे विनीता का सदमा सहा न गया...दोपहर में खाना खाके लेटीं, तो बाद में उठीही नहीँ...
उनके जाने के बाद विनीता और बाबूजी बेहद उदास और तनहा हो गए...बाबूजी का तो मानो ज़िंदगी पर से विश्वास उठ-सा गया...अपनी छोटी बेटी की क़िस्मत में क्यों इतने दर्द लिखे हैं, उन्हें, समझ में नही आ रहा था..
अपनी सारी जायदाद उन्हों ने दोनों बेटियों के नाम कर दी...एक दिन विनीता ने अपने पिता से कहा,"क्यों न हम ये फ्लैट बेच के, कोई छोटा फ्लैट ले लें? फ्लैट बेच के जो रक़म आयेगी, उसे चाहे आप रखें, या दीदी को दे दें..इतना बड़ा घर माँ के बिना खाने को उठता है....और वैसे भी इस पड़ोस, इस मोहल्ले से दूर कहीँ, जाने का मन करता है..."
"ठीक है, बेटी, तुझे जो सही लगे, वैसा ही कर," बाबूजी ने उत्तर दिया...
विनीता ने उस लिहाज़ से क़दम उठाने शुरू कर दिए। उनका मौजूदा फ्लैट, निहायत अच्छी जगह स्थित था। उन्हें अच्छे ऑफ़र्स आने शुरू हो गए।
दूसरी ओर विनीता ने नया फ्लैट खोजना शुरू कर दिया...इस बारेमे, उसने अपनी विज्ञापन एजंसी के सह कर्मियों को भी कह रखा...क़िस्मत से वो काम भी बन गया...
बड़ा फ्लैट बिकने पर, बाबू जी ने उस रक़म में से आधे पैसे निशा को देने चाहे...लेकिन निशाने इनकार किया, बोली,"मै इन पैसों को आपके जीते जी छू भी नही सकती...आप इन्हें बैंक में रखें...फिक्स डिपॉजिट में रखें...उस पे जो ब्याज मिलेगा, आपके काम ही आयेगा...इस तरह बँटवारा करने की जल्द बाज़ी न करें..मेरे पास ईश्वर दिया सब कुछ है...अपना और विनीता ख्याल रखें...मुझे तो केवल ये दो चिंताएँ सताती रहती हैं...." बात करते, करते वो अपनी माँ को याद कर रो पडी...विनीता का दर्द वो खूब अच्छी तरह महसूस करती......
चंद दिनों में विनीता और उसके पिता नए फ्लैट में रहने चले गए....फ्लैट छोटा ज़रूर था, लेकिन, खुशनुमा, हवादार और रौशन था...पिता-पुत्री का मन धीरे, धीरे प्रसन्न रहने लगा...मायूसी का अँधेरा छंट ने लगा...बेटी को, गुनगुना ते, मुस्कुराते देख, पिता भी खुश हो गए...इसीतरह तीन साल बीत गए...
विनीता की दिनचर्या दिन-ब-दिन और ज़ियादा व्यस्त होती जा रही थी...बाबूजी रोज़ाना अपने हम उम्र दोस्तों के साथ घूमने निकल जाया करते...ऐसे ही एक शाम वो घूमने निकले और दिल के दौरे का शिकार हो गए...दोस्त उन्हें अस्पताल ले गए, लेकिन उनके प्राण उड़ चुके थे....
विनीता पे फिर एक बार वज्रपात हुआ...अभी तो ज़िन्दगी में कुछ खुशियाँ लौट रही थीं...वो फिर एकबार इस बेदर्द दुनियाँ में एकदम अकेली पड़ गयी...
निशा दीदी और कबीर आए..उन्हों ने विनीता को अपने साथ, कुछ रोज़, जबलपूर चलने की ज़िद की...उसके सहकर्मियों ने भी यही सलाह दी....कहा," चली जाओ, कुछ रोज़...ज़रूरी है..इस माहौल से बाहर निकलो...वरना, घुट के रह जाओगी..."
विनीता ने बात मान ली....लेकिन जब लौटी,तो घर का ताला खोल, अकेले ही अन्दर प्रवेश करना, उसे बेहद दर्द दे गया...वो ज़ारोज़ार रो दी....नौकर होते हुए भी, कई बार, बाबूजी अपने हाथों से व्यंजन बनाते...बड़े प्यार से उसे अपने सामने बिठाके खिलाते...
इधर, जब वो अपने दफ्तर लौटी, तो कुछ अजीब-सा माहौल उसका इंतज़ार कर रहा था...जिन सहकर्मियों ने उसे छुट्टी लेके जाने को कहा था...उसका काम सँभाल लेंगे, ये विश्वास दिलाया था, उन में से कोई भी उस के साथ,सीधे मुँह बात करने को तैयार नही था...! उसे माजरा समझ नही आया...बड़ी हैरान हो गयी...ये परिवर्तन क्यों ? किसलिए ? ऐसी क्या ख़ता हो गयी थी उससे, कि, उसके सहकरमी ,उसके साथ बात करना भी नही चाह रहे थे...!
वो अपने बॉस के चेंबर मे गयी....वहाँ मामला समझ मे आया....
क्रमश:
...और एक दिन अचानक माँ चल बसीं...!शायद उनसे विनीता का सदमा सहा न गया...दोपहर में खाना खाके लेटीं, तो बाद में उठीही नहीँ...
उनके जाने के बाद विनीता और बाबूजी बेहद उदास और तनहा हो गए...बाबूजी का तो मानो ज़िंदगी पर से विश्वास उठ-सा गया...अपनी छोटी बेटी की क़िस्मत में क्यों इतने दर्द लिखे हैं, उन्हें, समझ में नही आ रहा था..
अपनी सारी जायदाद उन्हों ने दोनों बेटियों के नाम कर दी...एक दिन विनीता ने अपने पिता से कहा,"क्यों न हम ये फ्लैट बेच के, कोई छोटा फ्लैट ले लें? फ्लैट बेच के जो रक़म आयेगी, उसे चाहे आप रखें, या दीदी को दे दें..इतना बड़ा घर माँ के बिना खाने को उठता है....और वैसे भी इस पड़ोस, इस मोहल्ले से दूर कहीँ, जाने का मन करता है..."
"ठीक है, बेटी, तुझे जो सही लगे, वैसा ही कर," बाबूजी ने उत्तर दिया...
विनीता ने उस लिहाज़ से क़दम उठाने शुरू कर दिए। उनका मौजूदा फ्लैट, निहायत अच्छी जगह स्थित था। उन्हें अच्छे ऑफ़र्स आने शुरू हो गए।
दूसरी ओर विनीता ने नया फ्लैट खोजना शुरू कर दिया...इस बारेमे, उसने अपनी विज्ञापन एजंसी के सह कर्मियों को भी कह रखा...क़िस्मत से वो काम भी बन गया...
बड़ा फ्लैट बिकने पर, बाबू जी ने उस रक़म में से आधे पैसे निशा को देने चाहे...लेकिन निशाने इनकार किया, बोली,"मै इन पैसों को आपके जीते जी छू भी नही सकती...आप इन्हें बैंक में रखें...फिक्स डिपॉजिट में रखें...उस पे जो ब्याज मिलेगा, आपके काम ही आयेगा...इस तरह बँटवारा करने की जल्द बाज़ी न करें..मेरे पास ईश्वर दिया सब कुछ है...अपना और विनीता ख्याल रखें...मुझे तो केवल ये दो चिंताएँ सताती रहती हैं...." बात करते, करते वो अपनी माँ को याद कर रो पडी...विनीता का दर्द वो खूब अच्छी तरह महसूस करती......
चंद दिनों में विनीता और उसके पिता नए फ्लैट में रहने चले गए....फ्लैट छोटा ज़रूर था, लेकिन, खुशनुमा, हवादार और रौशन था...पिता-पुत्री का मन धीरे, धीरे प्रसन्न रहने लगा...मायूसी का अँधेरा छंट ने लगा...बेटी को, गुनगुना ते, मुस्कुराते देख, पिता भी खुश हो गए...इसीतरह तीन साल बीत गए...
विनीता की दिनचर्या दिन-ब-दिन और ज़ियादा व्यस्त होती जा रही थी...बाबूजी रोज़ाना अपने हम उम्र दोस्तों के साथ घूमने निकल जाया करते...ऐसे ही एक शाम वो घूमने निकले और दिल के दौरे का शिकार हो गए...दोस्त उन्हें अस्पताल ले गए, लेकिन उनके प्राण उड़ चुके थे....
विनीता पे फिर एक बार वज्रपात हुआ...अभी तो ज़िन्दगी में कुछ खुशियाँ लौट रही थीं...वो फिर एकबार इस बेदर्द दुनियाँ में एकदम अकेली पड़ गयी...
निशा दीदी और कबीर आए..उन्हों ने विनीता को अपने साथ, कुछ रोज़, जबलपूर चलने की ज़िद की...उसके सहकर्मियों ने भी यही सलाह दी....कहा," चली जाओ, कुछ रोज़...ज़रूरी है..इस माहौल से बाहर निकलो...वरना, घुट के रह जाओगी..."
विनीता ने बात मान ली....लेकिन जब लौटी,तो घर का ताला खोल, अकेले ही अन्दर प्रवेश करना, उसे बेहद दर्द दे गया...वो ज़ारोज़ार रो दी....नौकर होते हुए भी, कई बार, बाबूजी अपने हाथों से व्यंजन बनाते...बड़े प्यार से उसे अपने सामने बिठाके खिलाते...
इधर, जब वो अपने दफ्तर लौटी, तो कुछ अजीब-सा माहौल उसका इंतज़ार कर रहा था...जिन सहकर्मियों ने उसे छुट्टी लेके जाने को कहा था...उसका काम सँभाल लेंगे, ये विश्वास दिलाया था, उन में से कोई भी उस के साथ,सीधे मुँह बात करने को तैयार नही था...! उसे माजरा समझ नही आया...बड़ी हैरान हो गयी...ये परिवर्तन क्यों ? किसलिए ? ऐसी क्या ख़ता हो गयी थी उससे, कि, उसके सहकरमी ,उसके साथ बात करना भी नही चाह रहे थे...!
वो अपने बॉस के चेंबर मे गयी....वहाँ मामला समझ मे आया....
क्रमश:
Wednesday, June 24, 2009
याद आती रही..५ ..
(इसके पूर्व...विनीता और विनय के दरमियान, खतों का सिलसिला चलता रहा....)
धीरे, धीरे विनय के खतों की नियमितता घटने लगी...तथा वो सब कुछ सारांश में लिखने लगा..वजह...समय की कमी...
निशा दीदी की शादी की तारीख तय हो गयी। विनीता के माता-पिता, विनय के परिवार वालों को सादर आमंत्रित करने गए...लेकिन वहाँ उनका बड़ा ही अनमना स्वागत हुआ...जब विनीता के पिता ने कहा,
"आप लोग तो हमारे भावी समाधी हैं..आपको अपने परिवार के सदस्य ही समझता हूँ...आपके आने से हमारे समारोह में चार चाँद लग जायेंगे...! अवश्य पधारियेगा...!"
उत्तर में विनय के पिता ने कहा," अभी कोई रस्म तो हुई नही...इसलिए ये भावी समाधी होने का रिश्ता आप जोड़ रहें हैं, सो ना ही जोडें तो बेहतर गोगा..हाँ...गर पड़ोसी होने के नाते आमंत्रण है,तो, देखेंगे...बन पाया तो आ जायेंगे..
वैसे, क्या आप लोग घर जमाई ला रहे हैं?"
"जी नही ! कबीर पेइंग गेस्ट की हैसियत से रह रहा था...और अब जबलपूर लौट जायेगा, जहाँ उसका परिवार है..निशा ब्याह के बाद वहीँ जायेगी...," विनीता के पिता ने ना चाहते हुए भी किंचित सख्त स्वर में कहा और नमस्कार कर के वहाँ से वो पती- पत्नी निकल आए.....
इस मुलाक़ात के पश्च्यात, वे दोनों बड़े ही विचलित हो गए..विनीता ने अपने पिता को अस्वस्थ पाया तो उससे रहा नही गया...वह बार, बार उन्हें कुरेद ने लगी और अंत में उन्हों ने सब कुछ उगल ही दिया..सुन के वो दंग रह गयी..!
वैसेभी शुरू से ही उसे यह आभास हो रहा था कि, विनय के परिवार वालों ने उसे अपनाया नही है....विनय ने उसे बार, बार विश्वास दिलाया था, लेकिन उसका मन नही माना था...इतने सालों में उन लोगों ने किसी भी तीज त्यौहार में उसे शामिल नही किया था...! हाँ ! सालों में...क्योंकि, विनय को गए अब दो साल से अधिक हो गए थे...और इस दौरान विनय एक बार भी हिन्दुस्तान नही आया था...हर बार कुछ ना कुछ बहाना बनाके वो टाल ही जाता रहा था...
निशा दीदी की शादी हो गयी...विनीता और भी अकेली पड़ गयी...ये तो राहत थी,कि, उसके पास काम था, नौकरी थी...जिसे वो खूब अच्छी तरह से निभा रही थी...
अब तो वो add फिल्में भी बनने लगी थी, जोकि, काफी सराही जा रहीँ थीं...उसे पुरस्कृत भी किया जा चुका था...
कुछ और दिन इसी तरह गुज़रे..विनय की ओरसे खतो किताबत पूरी तरह बंद हो गयी...विनीता ने किसी से सुना,कि, विनय को लन्दन में ही कहीँ बड़ी बढिया नौकरी भी मिल गयी है...फिर सुना, उसने अपना अलग से व्यवसाय शुरू कर दिया है..उसने अपनी ज़िंदगी से विनीता को क्यों हटा दिया, ये बात, विनीता कभी समझ नही पायी...
अब उसे हर कोई शादी कर लेने की सलाह देने लगा..उसने इनकार भी नही किया...राज़ी हो गयी...हालाँकि जानती थी, शादी उसकी ज़िंदगी का अन्तिम ध्येय नही है...एक ओर अगर, विनय को कोई बंदी बना के उसके सामने खडा कर देता, तो वो उसे चींख चींख के चाँटे मारती...पूछती, क्यों, क्यों इतना तड़पाया उसने, गर अंत में छोड़ ही जाना था तो...!
दूसरी ओर, गर, बाहें फैलायें, विनय ख़ुद उसके सामने खड़ा हो जाता और उससे केवल एक बार क्षमा माँग लेता तो, वो सब कुछ भुला के, उसकी बाहों में समा जाती...
लेकिन ये दोनों स्थितियाँ केवल काल्पनिक थीं...ऐसा कुछ नही होना था...! माँ-बाबूजी, निशा दीदी, अन्य मित्र गण, रिश्तेदार, जहाँ, जहाँ उसके रिश्ते की बात चलाते, या तो उसकी बढ़ती उम्र आड़े आती, या फिर एक ज़माने मे उसका और विनय का जो रिश्ता था, वो आड़े आ जाता..ये बात ना जाने कैसे, हर जगह पहुँच ही जाती...अंत में तंग आके, उसने सभी से कह दिया,इक, अब उसे ब्याह नही करना..वो अपनी नौकरी, अपने काम में खुश है...उसे अब और कोई चाहत ,कोई तमन्ना नही...
क्रमश:
धीरे, धीरे विनय के खतों की नियमितता घटने लगी...तथा वो सब कुछ सारांश में लिखने लगा..वजह...समय की कमी...
निशा दीदी की शादी की तारीख तय हो गयी। विनीता के माता-पिता, विनय के परिवार वालों को सादर आमंत्रित करने गए...लेकिन वहाँ उनका बड़ा ही अनमना स्वागत हुआ...जब विनीता के पिता ने कहा,
"आप लोग तो हमारे भावी समाधी हैं..आपको अपने परिवार के सदस्य ही समझता हूँ...आपके आने से हमारे समारोह में चार चाँद लग जायेंगे...! अवश्य पधारियेगा...!"
उत्तर में विनय के पिता ने कहा," अभी कोई रस्म तो हुई नही...इसलिए ये भावी समाधी होने का रिश्ता आप जोड़ रहें हैं, सो ना ही जोडें तो बेहतर गोगा..हाँ...गर पड़ोसी होने के नाते आमंत्रण है,तो, देखेंगे...बन पाया तो आ जायेंगे..
वैसे, क्या आप लोग घर जमाई ला रहे हैं?"
"जी नही ! कबीर पेइंग गेस्ट की हैसियत से रह रहा था...और अब जबलपूर लौट जायेगा, जहाँ उसका परिवार है..निशा ब्याह के बाद वहीँ जायेगी...," विनीता के पिता ने ना चाहते हुए भी किंचित सख्त स्वर में कहा और नमस्कार कर के वहाँ से वो पती- पत्नी निकल आए.....
इस मुलाक़ात के पश्च्यात, वे दोनों बड़े ही विचलित हो गए..विनीता ने अपने पिता को अस्वस्थ पाया तो उससे रहा नही गया...वह बार, बार उन्हें कुरेद ने लगी और अंत में उन्हों ने सब कुछ उगल ही दिया..सुन के वो दंग रह गयी..!
वैसेभी शुरू से ही उसे यह आभास हो रहा था कि, विनय के परिवार वालों ने उसे अपनाया नही है....विनय ने उसे बार, बार विश्वास दिलाया था, लेकिन उसका मन नही माना था...इतने सालों में उन लोगों ने किसी भी तीज त्यौहार में उसे शामिल नही किया था...! हाँ ! सालों में...क्योंकि, विनय को गए अब दो साल से अधिक हो गए थे...और इस दौरान विनय एक बार भी हिन्दुस्तान नही आया था...हर बार कुछ ना कुछ बहाना बनाके वो टाल ही जाता रहा था...
निशा दीदी की शादी हो गयी...विनीता और भी अकेली पड़ गयी...ये तो राहत थी,कि, उसके पास काम था, नौकरी थी...जिसे वो खूब अच्छी तरह से निभा रही थी...
अब तो वो add फिल्में भी बनने लगी थी, जोकि, काफी सराही जा रहीँ थीं...उसे पुरस्कृत भी किया जा चुका था...
कुछ और दिन इसी तरह गुज़रे..विनय की ओरसे खतो किताबत पूरी तरह बंद हो गयी...विनीता ने किसी से सुना,कि, विनय को लन्दन में ही कहीँ बड़ी बढिया नौकरी भी मिल गयी है...फिर सुना, उसने अपना अलग से व्यवसाय शुरू कर दिया है..उसने अपनी ज़िंदगी से विनीता को क्यों हटा दिया, ये बात, विनीता कभी समझ नही पायी...
अब उसे हर कोई शादी कर लेने की सलाह देने लगा..उसने इनकार भी नही किया...राज़ी हो गयी...हालाँकि जानती थी, शादी उसकी ज़िंदगी का अन्तिम ध्येय नही है...एक ओर अगर, विनय को कोई बंदी बना के उसके सामने खडा कर देता, तो वो उसे चींख चींख के चाँटे मारती...पूछती, क्यों, क्यों इतना तड़पाया उसने, गर अंत में छोड़ ही जाना था तो...!
दूसरी ओर, गर, बाहें फैलायें, विनय ख़ुद उसके सामने खड़ा हो जाता और उससे केवल एक बार क्षमा माँग लेता तो, वो सब कुछ भुला के, उसकी बाहों में समा जाती...
लेकिन ये दोनों स्थितियाँ केवल काल्पनिक थीं...ऐसा कुछ नही होना था...! माँ-बाबूजी, निशा दीदी, अन्य मित्र गण, रिश्तेदार, जहाँ, जहाँ उसके रिश्ते की बात चलाते, या तो उसकी बढ़ती उम्र आड़े आती, या फिर एक ज़माने मे उसका और विनय का जो रिश्ता था, वो आड़े आ जाता..ये बात ना जाने कैसे, हर जगह पहुँच ही जाती...अंत में तंग आके, उसने सभी से कह दिया,इक, अब उसे ब्याह नही करना..वो अपनी नौकरी, अपने काम में खुश है...उसे अब और कोई चाहत ,कोई तमन्ना नही...
क्रमश:
Monday, June 22, 2009
याद आती रही...४
(पूर्व भाग: विनय लन्दन चला गया...वकालत की आगे की पढाई के लिए॥) अब आगे पढ़ें...
विनीता को अब उसके खतों का ही एक सहारा था...वही इंतज़ार उसके जीवन का मक़सद-सा बन गया। कभी कबार फोन आते, तो मानो, उसमे नव जीवन का संचार हो जाता...लगता, विनय उसके साथ ही तो है...आ जायेगा..लेकिन, बस चंद पल...सिर्फ़ चंद पल...उसके बाद फिर एक बिरह की गहरी वेदना उसे कचोट देती...
अपनी पढाई ख़त्म होते ही, उसने कई जगह नौकरी के लिए आवेदन पत्र दे रखे थे...उनमेसे कई आवेदन पत्र इश्तेहार एजंसीस के लिए थे। आवेदन पत्र देने के बाद वो सब भूल भाल गयी...ना उसे जवाब का इंतज़ार रहता , न अपनी किसी बात का ख़याल....
एक दिन अचानक से उसे एक एजंसी से साक्षात्कार के लिए बुलावा आया। वो अचरज में पड़ पड़ गयी...! इतनी नामवर एजंसी से बुलावा आयेगा, ये उसने कभी सोचा ही नही था...! लेकिन, बुलावा मतलब नौकरी तो नही..! अपना सारा पोर्ट फोलियो, कागज़ात आदि लेके वो साक्षात्कार के लिए चली गयी। बड़ी अनमनी-सी अवस्था में उसने साक्षात्कार दिया।
घर लौटी तो माँ ने पूछा," कैसा रहा?"
"ठीक रहा माँ,"उसने कहा।
"तुझे क्या लगता है...मिल जाएगा ये काम?",माँ ने फिर पूछा।
"माँ, नौकर मिलना इतना आसान थोड़े ही है? और भी कितने सारे लोग थे वहाँ...", विनीता ने कुछ चिढ के माँ को जवाब दिया। वैसे भी आज कल वो गुमसुम -सी रहती थी। माँ चुप हो गयी। अपनी बेटी की मनोदशा खूब समझ सकती थीं...
ऐसे ही कुछ दिन और गुज़र गए...और फिर उसी एजंसी से उसे काम के लिए बुलावा आया...! उसके हाथ जब वो ख़त लगा तो उसका अपनी आँखों पे विश्वास नही हो पाया...! उसे सच में नौकरी मिल गयी थी? वोभी इतनी नामवर एजंसी में?
उसी दिन उसकी बड़ी बहन, निशा ने एक ख़बर सुनाई... निशा दीदी और कबीर ने विवाह कर लेने का फ़ैसला कर लिया था...! कोई बाधा नही थी..कबीर ने पहले ही अपने घरवालों से बात कर ली थी...बाद में निशा को पूछा था...कबीर, वैसे भी बड़ा ही दृढ़ निश्चयी व्यक्ती था। अब उसने जबलपूर लौट जाने का इरादा भी कर लिया था। मुम्बई का अनुभव उसके लिए हमेशा अच्छा साबित रहेगा, ये उसे खूब पता था।
विनीता को याद आया, उस दिन उसकी और उसकी माँ की, आँखें कैसी भर आयीं थीं...! खुशी भी और दर्द भी... एक साथ....! विनीता को लगा था, जिस एक सहेली-सी बहन के साथ वो अपना सारा सुख-दुःख बाँट सकती थी, वो दूर हो जायेगी...माँ को लगा, अपनी बिटिया अब पराई हो जायेगी...खुश भी थी, कि , इतना अच्छा वर और घर, दोनों निशा को मिल रहा था...! कबीर बड़ा ही संजीदा और सुलझा हुआ व्यक्ती था....
इन सब घटनाओं के चलते, एक और बड़ी अच्छी घटना उस परिवार के साथ घट गयी...जिस ने जाली हस्ताक्षर करा के बाबू जी को ठग लिया था, वो व्यक्ती कानून के हत्थे लग गया...उसने काफी सारे, अन्य गुनाह भी उगल दिए... लम्बी चौड़ी कानूनी कारवाई के बाद, बाबूजी को काफी सारी रक़म वापस मिल गयी...!
विनीता ये सारा ब्योरा बाकायदा से विनय को बताती रहती। साथ ही लिखती,
"विनय,तुम्हें बता नही सकती, कि, कितना याद आते हो तुम...हर पल, हर जगह, तुम्हें ही देखती हूँ...जहाँ देखती हूँ, तुम्हें तलाशती हूँ...
बचपन से तुम्हें देखा, लेकिन बाद में कौनसी जादू की छडी घुमा दी, कि, पल भर भी तुम्हें भुला नही पाती...!
ज़िंदगी का हरेक लम्हाँ तुम्हारे नाम लिख चुकी हूँ...जाने कब अपने दिल का दरवाज़ा खोल दिया, और बिना आहट किए, तुम चले आए...!शरीर यहाँ रहता है , मन तुम्हारे पास....!
हर कोई मुझे छेड़ता है...कि मै खोयी-खोयी रहती हूँ...
विनय, तुम्हारी छुट्टियों का बेक़रारी से इंतज़ार है...कब आओगे ? बताओ ना ...! हर बार ताल जाते हो...!क्यों ? आँखें तुम्हें देखने के लिए तरस गयीं हैं....तुम्हारी एक मुस्कान देखने के लिए कितनी तरस गयीं हैं, कैसे बताऊँ?"
सिर्फ़ तुम्हारी
विनीता। "
विनय के भी लंबे चौडे ख़त आते....वो भी लिखा करता,
"मेरी विनीता,
इस अनजान मुल्क में आके हम दोनों ने एक साथ गुजारे दिन बेहद याद आते हैं....कोई भी सुंदर जगह देखता हूँ, तो
सोचता हूँ, तुम साथ होती तो कितना अच्छा होता...हम दोनों घंटों बातें करते, या मीलों घूमने निकल पड़ते...और ख़ामोश रहके भी कितना कुछ बोल जाते.....!
मेरे ज़हन में कई बार लाल या काली साडी ओढे, तुम चली आती हो.....कभी तुम्हें थामने की कोशिश करता हूँ, तो दौड़ के दूर चली जाती हो...!
कई, कई, रूपों में तुम्हें देखता हूँ...हमेशा तुम पे गर्व महसूस करता हूँ....तुम सब से अलग, सबसे जुदा हो....अभिमानी हो...ऐसी ही रहना...!
सदा तुम्हारा
विनय। "
क्रमश:
विनीता को अब उसके खतों का ही एक सहारा था...वही इंतज़ार उसके जीवन का मक़सद-सा बन गया। कभी कबार फोन आते, तो मानो, उसमे नव जीवन का संचार हो जाता...लगता, विनय उसके साथ ही तो है...आ जायेगा..लेकिन, बस चंद पल...सिर्फ़ चंद पल...उसके बाद फिर एक बिरह की गहरी वेदना उसे कचोट देती...
अपनी पढाई ख़त्म होते ही, उसने कई जगह नौकरी के लिए आवेदन पत्र दे रखे थे...उनमेसे कई आवेदन पत्र इश्तेहार एजंसीस के लिए थे। आवेदन पत्र देने के बाद वो सब भूल भाल गयी...ना उसे जवाब का इंतज़ार रहता , न अपनी किसी बात का ख़याल....
एक दिन अचानक से उसे एक एजंसी से साक्षात्कार के लिए बुलावा आया। वो अचरज में पड़ पड़ गयी...! इतनी नामवर एजंसी से बुलावा आयेगा, ये उसने कभी सोचा ही नही था...! लेकिन, बुलावा मतलब नौकरी तो नही..! अपना सारा पोर्ट फोलियो, कागज़ात आदि लेके वो साक्षात्कार के लिए चली गयी। बड़ी अनमनी-सी अवस्था में उसने साक्षात्कार दिया।
घर लौटी तो माँ ने पूछा," कैसा रहा?"
"ठीक रहा माँ,"उसने कहा।
"तुझे क्या लगता है...मिल जाएगा ये काम?",माँ ने फिर पूछा।
"माँ, नौकर मिलना इतना आसान थोड़े ही है? और भी कितने सारे लोग थे वहाँ...", विनीता ने कुछ चिढ के माँ को जवाब दिया। वैसे भी आज कल वो गुमसुम -सी रहती थी। माँ चुप हो गयी। अपनी बेटी की मनोदशा खूब समझ सकती थीं...
ऐसे ही कुछ दिन और गुज़र गए...और फिर उसी एजंसी से उसे काम के लिए बुलावा आया...! उसके हाथ जब वो ख़त लगा तो उसका अपनी आँखों पे विश्वास नही हो पाया...! उसे सच में नौकरी मिल गयी थी? वोभी इतनी नामवर एजंसी में?
उसी दिन उसकी बड़ी बहन, निशा ने एक ख़बर सुनाई... निशा दीदी और कबीर ने विवाह कर लेने का फ़ैसला कर लिया था...! कोई बाधा नही थी..कबीर ने पहले ही अपने घरवालों से बात कर ली थी...बाद में निशा को पूछा था...कबीर, वैसे भी बड़ा ही दृढ़ निश्चयी व्यक्ती था। अब उसने जबलपूर लौट जाने का इरादा भी कर लिया था। मुम्बई का अनुभव उसके लिए हमेशा अच्छा साबित रहेगा, ये उसे खूब पता था।
विनीता को याद आया, उस दिन उसकी और उसकी माँ की, आँखें कैसी भर आयीं थीं...! खुशी भी और दर्द भी... एक साथ....! विनीता को लगा था, जिस एक सहेली-सी बहन के साथ वो अपना सारा सुख-दुःख बाँट सकती थी, वो दूर हो जायेगी...माँ को लगा, अपनी बिटिया अब पराई हो जायेगी...खुश भी थी, कि , इतना अच्छा वर और घर, दोनों निशा को मिल रहा था...! कबीर बड़ा ही संजीदा और सुलझा हुआ व्यक्ती था....
इन सब घटनाओं के चलते, एक और बड़ी अच्छी घटना उस परिवार के साथ घट गयी...जिस ने जाली हस्ताक्षर करा के बाबू जी को ठग लिया था, वो व्यक्ती कानून के हत्थे लग गया...उसने काफी सारे, अन्य गुनाह भी उगल दिए... लम्बी चौड़ी कानूनी कारवाई के बाद, बाबूजी को काफी सारी रक़म वापस मिल गयी...!
विनीता ये सारा ब्योरा बाकायदा से विनय को बताती रहती। साथ ही लिखती,
"विनय,तुम्हें बता नही सकती, कि, कितना याद आते हो तुम...हर पल, हर जगह, तुम्हें ही देखती हूँ...जहाँ देखती हूँ, तुम्हें तलाशती हूँ...
बचपन से तुम्हें देखा, लेकिन बाद में कौनसी जादू की छडी घुमा दी, कि, पल भर भी तुम्हें भुला नही पाती...!
ज़िंदगी का हरेक लम्हाँ तुम्हारे नाम लिख चुकी हूँ...जाने कब अपने दिल का दरवाज़ा खोल दिया, और बिना आहट किए, तुम चले आए...!शरीर यहाँ रहता है , मन तुम्हारे पास....!
हर कोई मुझे छेड़ता है...कि मै खोयी-खोयी रहती हूँ...
विनय, तुम्हारी छुट्टियों का बेक़रारी से इंतज़ार है...कब आओगे ? बताओ ना ...! हर बार ताल जाते हो...!क्यों ? आँखें तुम्हें देखने के लिए तरस गयीं हैं....तुम्हारी एक मुस्कान देखने के लिए कितनी तरस गयीं हैं, कैसे बताऊँ?"
सिर्फ़ तुम्हारी
विनीता। "
विनय के भी लंबे चौडे ख़त आते....वो भी लिखा करता,
"मेरी विनीता,
इस अनजान मुल्क में आके हम दोनों ने एक साथ गुजारे दिन बेहद याद आते हैं....कोई भी सुंदर जगह देखता हूँ, तो
सोचता हूँ, तुम साथ होती तो कितना अच्छा होता...हम दोनों घंटों बातें करते, या मीलों घूमने निकल पड़ते...और ख़ामोश रहके भी कितना कुछ बोल जाते.....!
मेरे ज़हन में कई बार लाल या काली साडी ओढे, तुम चली आती हो.....कभी तुम्हें थामने की कोशिश करता हूँ, तो दौड़ के दूर चली जाती हो...!
कई, कई, रूपों में तुम्हें देखता हूँ...हमेशा तुम पे गर्व महसूस करता हूँ....तुम सब से अलग, सबसे जुदा हो....अभिमानी हो...ऐसी ही रहना...!
सदा तुम्हारा
विनय। "
क्रमश:
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